सिम्बा – शुभ्रा बैनर्जी: Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : आज बेटे ने रेस्ट ले लिया था।कल सिंबा की तबीयत ठीक नहीं थी। बार-बार डॉक्टर से फोन पर दवाई पूछ -पूछकर खरीद कर ला रहा था बेटा।रात में ही बोल दिया”मम्मी!कल मैं रेस्ट ले लेता हूं।सिम्बा के साथ रहूंगा और खेलूंगा।सुबह विद्यालय जाते समय जब शुभा ने सिम्बा को देखा ,एक अजीब सा दर्द था उसकी आंखों में।मन में एक संतोष था,कि बेटा है घर पर।दोपहर लगभग एक बजे बेटी का फोन आया।

फोन ऑफिस में जमा रहता है,पढ़ाई के दौरान।कई बार फोन लगाने के बाद, एक सहकर्मी के फोन पर लगाया उसने।उसीसे पता चला कि घर जल्दी पंहुंचने के लिए बोल रही थी बेटी।बाहर निकलकर जैसे ही उसे फोन लगाया शुभा ने,वह रोते हुए बोली”मम्मी,दादा के पास जल्दी पंहुंचने की कोशिश करो।

बहुत रो रहा है वह।मैं इतनी दूर हूं,कुछ कर भी नहीं सकती।”शुभा समझ चुकी थी,सिम्बा अब नहीं है। रोते-रोते जैसे-तैसे घर पहुंची,तो बेटा उसे देखते ही लिपट कर रोने लगा”मम्मी,चला गया सिम्बा छोड़कर मुझे।”

शुभा ने अपने बेटे को ऐसे कभी रोते हुए नहीं देखा था।यहां तक कि अपने पापा का पार्थिव शरीर एम्बुलेंस में लेकर आठ घंटे का सफर बिना रोए तय करके आया था वह।शुभा से नजरें चुराता रहा पर रोया नहीं।आज वही बेटा अपने दोस्त के चले जाने से अंदर तक टूट गया था।

पिछले आठ सालों से थी उन दोनों की दोस्ती।बेटे के कान में पता नहीं क्या कहता था सिम्बा,और सिम्बा को गले लगाकर वह क्या समझकर अच्छा, अच्छा कहता ,आज तक नहीं समझ पाई थी शुभा।

पिछले आठ सालों में एक बार ही ऐसा हुआ होगा,किवह सिम्बा से एक सप्ताह तक मजबूरी में दूर रहा।इन आठ दिनों में सिम्बा को संभालना शुभा के लिए किसी आपदा से कम नहीं था।बड़ा बेईमान था बदमाश।सारा दिन मां के आगे-पीछे घूमते रहने वाला सिम्बा दादा को देखते ही अनजान बन जाता था,शुभा से।

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उसकी दुनिया था दादा और दादा की दुनिया सिम्बा।एक सप्ताह के बाद आकर सैकड़ों बार आत्मग्लानि से कान पकड़ते हुए सिम्बा से बोला था वह”अब तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा,प्रॉमिस।जहां मैं जाऊंगा,तुझे साथ लेकर ही जाऊंगा।”वह भी शायद उसकी भावनाएं समझता था।

बेटी भी बहुत प्यार करती थी सिम्बा से,पर वह बेईमान सिर्फ दादा का चमचा था।वह हमेशा बोलती”मम्मी,ये तुम्हारा सिम्बा बहुत दगाबाज है,मुझे बिल्कुल प्यार नहीं करता।”शुभा हंसकर टाल देती थी।

इस बार बहुत लंबे समय तक बीमार रहा वह।पिछले पंद्रह दिनों से पित्त की उल्टियां कर रहा था। डॉक्टर को दिखाया ,इंक्जेक्शन,दवाई सब दिया गया उसे।बीच में कुछ ठीक दिखने लगा था,पर ठंड बढ़ने की वजह से ठीक से खा नहीं पा रहा था।बेटे के ड्यूटी जाते समय डाइनिंग टेबल पर उसके साथ रोज खाना खाता था सिम्बा।शाम को रोज अपने पापा की तरह बेटा सिम्बा के लिए कुछ ना कुछ लेकर आता,जिसका उसे इंतज़ार भी रहता था।

बेटे की थाली में जो भी परोसो,उसे वही खाना होता था।चिली पनीर,फुल्की,केला, काजू-बादाम,टॉफी सब उसे पसंद था।कीवी खाने का इतना शौक कि ड्राई फ्रूट्स में उसके लिए अलग से कीवी लेकर आता था बेटा।बचपन से अब तक कभी उसने परेशान नहीं किया था।

गऊ कहती थी शुभा उसे।बंगाली भाषा की इतनी अच्छी समझ थी कि दादा को डांट पढ़ते देख खुद आत्मसमर्पण कर देता था।पापा के जाने का दुख उनके कमरे में चुपचाप बैठकर मनाया उसने तेरह दिनों तक। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया था।बेटे की जान बसती थी उसमें।

आज सुबह ही बेटे ने उसे नारियल पानी लाकर पिलाने की कोशिश की  थी।थोड़ा सा ही पी पाया था वह।शुभा भी निश्चिंत होकर ही गई थी विद्यालय कि बेटा है घर पर।दोपहर को डॉक्टर आकर ड्रिप चढ़ाने वाला था।सिम्बा उसके पहले ही अपने दादा की आंखों के सामने एक झटके में चला गया,नारियल पानी की कुछ बूंदें पीकर।

घर आकर देखा,झूले में लिटाकर रखा है बेटे ने। अंतर्मुखी व्यक्तित्व के बेटे को अपना दुख बताना भी नहीं आता था,और ना ही रोना।आज वह अपनी मां से लिपट कर अपने जिगरी दोस्त के जाने का दुख बांट रहा था।शुभा का सीना छलनी हो रहा था।कैसे संभाले इतने बड़े लड़के को?क्या बोलकर सांत्वना दे।

घर पर काम करने वाली श्यामा दीदी ने इतनी अच्छी बात कही “बेटा,तुम बहुत किस्मत वाले हो,आज छुट्टी के दिन तुम्हारी आंखों के सामने तुम्हारे हांथों में दम तोड़ा सिम्बा ने।तुम्हें अफसोस करने का मौका नहीं देकर गया वह।तुमने बहुत सेवा की उसकी।अब उसकी आत्मा को शांति दो।देखना फिर वह किसी ना किसी रूप में तुम्हारे पास आ जाएगा।

“कितनी सही बात कही थी,दीदी ने।इस मतलबी दुनिया में जहां खून के रिश्ते भी सगे नहीं रह जाते,सिम्बा ने अपने दादा के निश्छल प्रेम को कलंकित नहीं किया।उसने जाते-जाते दादा को आत्मग्लानि के बोझ से मुक्त कर दिया। ड्रिप लगाकर शिथिल पड़े हुए

सिम्बा को देखना शायद ज्यादा कष्टकर होता उसके लिए।अपनी सारी वेदना अपनी करुण आंखों में लिए,आंखें शांति से मूंदकर चला गया सिम्बा।पिछले एक महीनों से मोहल्ले के कुत्ते रो रहे थे।शुभा को खटका लग ही रहा था कि कुछ बुरा होने वाला है मोहल्ले में।आज सिम्बा ही चला गया।

बेटा शाम को लौटा उसके शरीर को मुक्ति देकर।ना वह कुछ कह पा रहा था और ना ही शुभा कुछ पूछ पा रही थी।सही कहते थे शुभा के पति कि कुत्ता मत कहना कभी सिम्बा को।मेरा बेटा है।हमारे जींस में है इनका साथ।”

सिम्बा के जाने का दुख कभी कम तो नहीं होगा पर इस आत्मग्लानि से नहीं जीना पड़ेगा कि उसका सबसे प्रिय दोस्त आखिरी समय में उसके साथ ही रहा।जब तक वह जिया राजा की तरह जिया,गया भी तो दर्द से तड़पते हुए नहीं गया।

शुभ्रा बैनर्जी

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