सिमटती दूरियाँ – स्नेह ज्योति

ट्रिन-ट्रिन घर की बेल बज़ी,दरवाज़े पे शोर मचा छोटू-छोटू नाम पर बहुत ऊँचा उद्घोष हुआ।तभी पापा श्री सरपट दौड़ते हुए बाहर निकले कही कोई और ना सुन ले ये नाम,पापा ने फटाफट दरवाज़ा खोल माँ को गले लगाया।आप तो कल आने वाली थी अम्मा! ,अगर आज आ गई तो क्या कचहरी लगाओगे।नहीं अम्मा,अंदर आओ ।मम्मी भी आधी सोई आधी जागी चरण छोड़ गले लगा ली दादी….फिर क्या दादी की यलगार हुई हमारे जीवन में एक नयी शुरुआत हुई……

मैंने भी डरते-डरते दादी को प्रणाम किया इतने देर से उठना अच्छी बात नहीं है गुड़िया रानी जल्दी उठ कर सूर्य को नमस्कार किया करो।धीरे-धीरे घर का माहौल बदलने लगा जो ना होता था इस घर में अब वो सब होने लगा।

कई दिन गुजर गए दादी जी की आदत थी हर काम को अपने तरीक़े से करवाने की,हर चीज में नुकस निकलने की वैसे तो स्कूल और पढ़ाई के चक्कर में मेरा उनसे मिलना कम ही होता था।लेकिन एक दिन उन्होंने मुझे रोक सुना ही दिया रीना!अब तुम बड़ी हो गयी हो घर में अपनी माँ का हाथ बटाया करो….हाँ जी,बोल मम्मी के पास चली गई मम्मी-मम्मी पेड्स है मेरी डेट शुरू हो गई है ओह! ओह!वो तो खत्म है बाज़ार से लाने पड़ेगे।

मन तो नही था जाने का पर कोई चारा भी नही था।ना जाने दादी को कैसे भनक पड़ गयी जैसे ही मैं घर वापस आयी और वो बरस पड़ी सुधा तुमने इसे इस हालत में बाहर भेजा और वो भी यें लाने शर्म है या नहीं,ऐसे वक़्त में सब छुपाते है ना कि प्रचार करते है।

सुधा-अब मैं क्या कहूँ? कुछ सूझ नही रहा था,कोई नहीं माँ ज़ी आगे से ध्यान रखूँगी।

दादी-हमारे समय में तो खास ध्यान रखा जाता था।ना ही रसोई घर में,ना ही पूजा स्थल पे जाने दिया जाता था और नाही खेल-कूद।

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रीना- दादी अब सब बदल गया है।पहले जैसा कुछ नही,यें बोल मैं अंदर चली गई और बात आयी-गयी हो गई।फिर कुछ देर बाद मुझे लगा की दादी भी अपनी जगह सही है,उनके समय पे जो होता था वो तो वोही बोलेगी।रात के नौ बज रहे थे मैं किताब में ध्यान लगाए भी वहीं बात सोच रही थी तभी किताब छोड़ दादी और मम्मी को बाहर हॉल में बुला के ले आयी।

दादी- क्या है छोरी! अब सोने भी नही देगी

रीना – दादी सो लेना,पर मेरी बात तो सुनो!

सुधा – क्या बात है रीना?माँ जी को क्यों तंग कर रही हो,ऐसी क्या बात है जो सुबह नही हो सकती??

रीना -वोही बात जो आप लोग करने से कतराते हो…..

दादी-कौन सी बात ?

रीना-आपके समय के मासिक धर्म और आज के युग के पीरियड

सुधा-ये तू क्या ले के बैठ गयी छोड़

रीना-छोड़-छोड़ कर ही आज सोच में इतना फर्क आ गया है।अच्छा दादी आप बताओ आपके टाइम में क्या होता था?

दादी- बेटा हमारे टाइम में अपने बड़ो से ऐसी बेतकल्लुफ़ी नहीं होती थी…

रीना- मुझे पता है दादी,पर मैं आपसे दोस्तों वाला रिश्ता रखना चाहती हूँ इसलिए प्लीज़ बताओ ना ….

सुधा- मैं तो जा रही हूँ तू भी जा के चुप सो जा।

रीना- माँ बैठो बात नहीं करोगे तो पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी की राहे कैसे मिलेगी ?

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दादी- हमारे टाइम में तो मासिक धर्म एक बड़ी समस्या थी इस विषय पे बात करना भी पाप समझा जाता था।इतनी पाबंदी में जकड़ी नारी उस पे ये मासिक धर्म की क्रिया निराली…..

रीना- मम्मी क्या आप के टाइम पे भी ऐसा ही था?

सुधा-हाँ,पर इतनी पाबंदी नहीं थी,शायद मेरी क़िस्मत अच्छी थी।

ये सुन! मेरी दादी को अपना क़िस्सा याद आया तुम्हें पता है जब मुझे मासिक धर्म हुए तो बोलते-बोलते वो चुप हो गयी…..मैंने कहा दादी क्या हुआ- बोलो! आज हम बात करने के लिए ही बैठे है

दादी-नही तुझसे ऐसी बात करूँ,ना बाबा ना और अगर तेरे पापा ने सुन लिया तो…तो क्या हुआ दादी उन्हें सब पता है वो भी कई बार हमारे लिए पैड्स लाते है।

दादी मम्मी की ओर देखते हुए ख़ैर मैंने दादी का पीछा नहीं छोड़ा आज तो बताना पड़ेगा।

दादी-गहरी साँस लेते हुए…हमारे वक़्त में तो बुरा हाल था।हमे तो कुछ पता ही नहीं था और ना ही माँ ने कभी बात करने की सोची।उन्हें लगा जब समय आएगा तो बता देंगी,ऐसा सोच चुप रही और जब समय आया तो …

रीना-क्या हुआ था दादी?

दादी-छोड़ो नहीं रहने दो……बताओ ना दादी




जब ये वाक्या हुआ तब में तुम्हारे जितनी ही होंगी।हम अपने मामा के घर गए हुए थे।सब बड़े मजे कर रहे थे, तभी पेट में दर्द उठ्ठा और मैं लोटा उठाये भाग चली,जैसे-तैसे साफ कोना पकड़ हल्की हो गई….

रीना-मतलब ?

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मतलब तब पहली बार मैंने मासिक धर्म का अनुभव किया।ये देख मैं घबरा गयी,कुछ पल्ले ना पड़ा और घर वापस आ गई,घर आके देखा तो सब वापस अपने घर जाने की तैयारी कर रहें थे।किस से क्या कहूँ कुछ समझ ही नही आया???

फ़िल्मो में देखा सुना था कि जब किसी को खून की उल्टी हो या मूत्राशय से खून आए तो उसे कैंसर होता है इसीलिए “मुझे काफ़ी दिनों से कमजोरी और दर्द हो रहा था”।यही सोच मन में रोते हुए,हज़ारो सवालो का भार ढोते हुए पूरा रास्ता गुजार दिया पर चुप्पी ना तोड़ पायी।

जैसे ही हम घर पहुँचे तो मैं माँ का हाथ पकड़ एक कोने में ले गई और लिपट के रोने लगी,”माँ”मैं मरने वाली हूँ। माँ को कुछ समझ ना आया ।

मैंने कहा माँ मुझे खून आ रहा है….खून !

मुझे कैंसर हो गया है अब ज़्यादा समय नहीं है मेरे पास ….




ये सुन! माँ-क्या कह रही हो पगली,कुछ ज़्यादा ही टी.वी. देखती हो।फिर माँ मुझे गौर से देखने लगी और थोड़ी ही देर में माँ सब भाप गई और फिर हस्ते हुए मेरी तरफ़ देखा और बोली मुझसे ही देर हो गई तुझको ये सब बताने में, तुझे कैंसर नहीं है मेरी झल्ली ये एक प्राकृतिक क्रिया है।जो हर महीने महिलाओ को होती है,ताकि हमारे अंदर की गंदगी बाहर आ जाए।यानी मैं मरने वाली नहीं हूँ। ये सुन!साँस में साँस आयी चलो अच्छा है।अभी तो मुझे धनिया से अपनी बकाया इमली भी लेनी है…लेकिन आज जब भी वो सब सोचती हूँ तो अपनी बेवकूफ़ी पर हँसी आ जाती है ।

रीना-सच में दादी ये एक मज़ेदार क़िस्सा है और सीख भी

दादी-कैसी सीख??

यही कि हमे अपने बच्चों को,अपनों को सब बताना चाहिए ऐसी बातो पे चर्चा करनी चाहिए आगे चल वो काम ही आएगा।

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माना आपके समय में ज्यादा जानकारी,सुविधाएँ नहीं थी,लेकिन आज के जमाने में सब बदल गया है दादी,अब तो माँ ही अपनी बेटी को ये जानकारी देती है और तो और स्कूल में भी इसके बारे में,इस समय पे होने वाली तकलीफ़ रख-रखाव सबका ज्ञान दिया जाता है।जब हम स्कूल जा सकती हैं,सब काम कर सकती है तो पाबंदी किस बात की।ये सुन!दादी ने रीना को गले लगाया।बेटा जान तो पहले ही गई थी पर झिझक ने रोक रखा था।लेकिन आज तुम से बात कर हर झिझक मिट गई।

सुधा-दादी-पोती का ये प्यार देख मैं उनकें पास गई और उन्हें गले लगा आत्मविभोर हो गई।

मिले तीनों कुछ इस तरह कि हर दूरी सिमट गई बीच में जो लकीर थी वो भी अब मिट गई….कुछ देर बाद पापा श्री आए क्या बात है रात का एक बज रहा है सोना नहीं है?फिर धीरें-धीरे मुस्कान लिए सब अपने-अपने बिस्तर में जा सो गए।इस रात की भी सुबह हुई नयी सोच संग पुरानी की दोस्ती हुई।

ना डरना है ना घबराना है

हर मौजू पे बात कर

ज्ञान का दिया जलाना है।।

#5वाँ_जन्मोत्सव

स्वरचित चौथी रचना

स्नेह ज्योति

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