नीलिमा की अचानक मृत्यु की खबर सुनकर सुकन्या के मम्मी पापा तुरन्त आये लेकिन लाख समझाने पर भी सुकन्या आने को तैयार नहीं हुई।
रोते हुये कहा उसने – ” मैं नीलिमा का मृत शरीर देखने नहीं जा सकती। मैं कभी उसे मृत नहीं मानूॅगी, मेरे लिये नीलिमा कभी नहीं मर सकती। आप लोग जाइये।”
” बेटा, हम लोगों को कश्यप साहब के यहाॅ एक दो दिन रुकना पड़ेगा। तुम अकेले कैसे रहोगी?”
” मैं रह लूॅगी, आप लोग जाइये।”
न चाहते हुये भी उन लोगों को सुकन्या को अकेले छोड़कर आना पड़ा । सुकन्या की पढ़ने की मेज पर ही उन दोनों की संयुक्त फोटो रखी थी। मोबाइल में तो न जाने कितनी थीं। उन्हीं को खोलकर देखती रहती –
” तुम ऐसे कैसे चली गईं नीलू, वह भी आत्महत्या की तुमने? क्यों? सब तो ठीक हो गया था, जय को नौकरी मिल गई थी, तुम्हारी तपस्या सार्थक हो गई थी, नौकरी की तुम्हारी मजबूरी खतम हो गई थी और तुमने नौकरी छोड़ भी दी थी । तुम तो बहुत खुश थीं फिर तुम्हें आत्महत्या क्यों करनी पड़ी? किसी से न सही मुझे तो बता सकती थीं।”
सुकन्या उसकी तस्वीर से बातें करते करते रो पड़ती – ” तुमने मुझे धोखा दिया है, तुम्हें कभी माफ नहीं करूॅगी। ऐसे बीच में छोड़कर तुम कैसे जा सकती हो? चाची, जय और मेरे बारे में जरा भी नहीं सोंचा? मुझे अब भी विश्वास नहीं होता नीलिमा कि तुम अब कभी नहीं मिलोगी, कभी तुम्हारे फोन नहीं आयेंगे, कभी हम पहले की तरह एक दूसरे से घंटों बातें नहीं कर पायेंगे।”
सुकन्या को विश्वास नहीं हो रहा था कि परिस्थितियों की अनुकूलता पर विश्वास करने वाली उसकी नीलिमा आत्महत्या कर सकती है। उसे लग रहा था कि मम्मी पापा के साथ न जाकर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी। उसे आखिरी बार नीलिमा से मिलने जाना चाहिये भले ही मृत नीलिमा से लेकिन अब क्या करे, अब तो नीलिमा चिता के रथ पर बैठकर अनंत में विलीन हो गई है और अपने पीछे छोड़ गई है कई अनुत्तरित प्रश्न।
नीलिमा की मृत्यु का चौथा दिन था जब सुकन्या को एक रजिस्टर्ड पत्र मिला, सुकन्या ने हस्ताक्षर करके पत्र ले तो लिया लेकिन पते पर नीलिमा की राइटिंग देखकर चौंक गई –
” नीलिमा को तो गये तो चार दिन हो गये फिर यह पत्र?”
सुकन्या ने सबसे पहले पत्र की तारीख पर नजर डाली तो समझ गई कि यह पत्र नीलिमा ने अपनी मृत्यु से दो दिन पहले लिखकर पोस्ट किया है। रजिस्टर्ड पत्र होने के कारण आज प्राप्त हुआ है।
उस पत्र ने सुकन्या की सारी जिज्ञासाओं, उलझनों, परेशानियों और प्रश्नों का उत्तर दे दिया। नीलिमा ने कुछ नहीं छुपाया, शुरू से आखिरी तक सब बता दिया। पत्र के साथ वो तस्वीरें भी थीं जिसके माध्यम से बॉस उसे ब्लेकमेल करते थे।
सुकन्या का दिल बैठने लगा, इतनी मानसिक यंत्रणा सहकर भी उसने अपने परिवार की नाव मझधार में नहीं छोड़ी। जय की नौकरी लगने तक सब सहती रही और अंत में सब समेटकर चली गई । कहते हैं कि कलाई पर राखी बॉधकर बहन अपने भाई से अपनी रक्षा और संरक्षता का वचन मॉगती है लेकिन नीलिमा ने तो मृत्युंजय के जीवन और कैरियर के लिये अपना सब कुछ यहॉ तक प्राण भी न्यौछावर कर दिया।
सुकन्या जैसे जैसे पत्र पढ़ती जा रही थी, उसका खून खौलता जा रहा था। उस दिन उसने पूरा दिन कुछ नहीं खाया, मम्मी से फोन पर ज्यादा बात नहीं की। वो भी उसकी स्थिति समझती थीं, इसलिये बार बार अपना ख्याल रखने को कहा। अब सुकन्या को लगा कि उसके मम्मी के साथ न जाने की जिद के पीछे कुदरत का यही संदेश छिपा था कि उसे नीलिमा का यथार्थ पता भी चल जाये और किसी दूसरे को मालुम भी न हो।
सुकन्या को खुद पर गर्व हो आया। उसे याद आ रही थी पत्र की वो पंक्तियॉ – ” जीवन में पहली बार तुमसे कुछ छुपाया है मैंने। जानती हूॅ कि जीवन भर तुम्हें मेरी आत्महत्या का यह प्रश्न ” क्यों ” सताता रहेगा , इसलिये तुम्हें सब बता रही हूॅ। कम से कम तुम मुझे गलत नहीं समझोगी, मेरी विवशता समझोगी। पहले बता देती तो मेरे साथ और भी बहुत कुछ बरबाद हो जाता, उसी बरबादी को बचाने के लिये अभी तक चुप भी रही और आत्महत्या भी नहीं की। “
सुकन्या का मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था, वह अपनी प्यारी सहेली को इतनी यंत्रणा देने वाले को कभी क्षमा नहीं कर सकती। नीलिमा की यंत्रणा और उसकी मृत्यु का उसके बॉस से बदला लिये बिना वह चैन नहीं लेगी, चाहे इस प्रयत्न में उसकी मृत्यु भले हो जाये।
लेकिन कैसे? किसकी सहायता ले? क्या पुलिस को बता दे? लेकिन पर्याप्त प्रमाण के अभाव में रिश्वत के बल पर बॉस मिo वरदान आहूजा का कुछ नहीं बिगड़ेगा। फिर ….. बॉस के आफिस में जाकर उसे गोली मारकर खुद को गोली मार ले? लेकिन इससे क्या होगा, अपनी जान देकर भी नीलिमा की यंत्रणा का बदला तो ले नहीं पायेगी? मात्र मृत्यु बॉस का दंड नहीं है,उसे तो मृत्यु से भी भयंकर यंत्रणा मिलनी चाहिये। फिर क्या करे……. क्या मृत्युंजय को बता दे? लेकिन क्या वह बर्दाश्त कर पायेगा? कहीं उत्तेजना में गलत कदम उठा लिया तो नीलिमा की सारी तपस्या और बलिदान व्यर्थ हो जायेंगे।
नीलिमा ने केवल उसे अपना रहस्य बताया है तो जो कुछ भी करना है उसे अकेले ही करना है बिना किसी को बताये। नीलिमा ने सिर्फ उस पर विश्वास किया है। नीलिमा तो चली गई, अब सुमन चाची का एकमात्र सहारे मृत्युंजय का कैरियर और जीवन दाॅव पर नहीं लगा सकती।
सुकन्या के सामने अपना तीनों का बचपन तैर गया। मृत्युंजय के साथ बिताये क्षण ऑखों के सामने तैर गया। मृत्युंजय हमेशा उन दोनों की हर काम में सहायता तो करता था लेकिन हमेशा एक अनुशासन में भी रखता था। पीठ पीछे दोनों उसका ” हिटलर” कहकर मजाक भी उड़ाती थीं।
उसकी और नीलिमा की सहेलियाॅ एक ही थीं, इसलिये सहेलियों के यहॉ जन्मदिन या ऐसे ही कभी देर तक रुकना हो तो वे दोनों मृत्युंजय के पीछे पड़ जातीं कि वह उन्हें सहेली के घर छोड़ कर भी आये और लेकर भी आये। कालेज का फंक्शन हो या किसी सहेली की शादी आफत मृत्युंजय पर ही आती थी और मृत्युंजय भी कम खुशामद नहीं करवाता था दोनों से।
” मैं आने के पहले फोन कर दूँगा, मुझे गेट पर खड़ी मिलना तुम लोग। मुझे एक मिनट भी इंतजार न करना पड़े, नहीं तो मैं वापस लौट आऊँगा फिर जैसे मन हो आना।”
” हम लोग तुम्हें बाहर ही मिलेंगे।”
फिर दोनों घरों में जाने की सहमति भी उसे ही दिलानी पड़ती –
” जाने दीजिये, आप लोग चिन्ता न करें। मैं छोड़ भी आऊँगा और लिवा भी लाऊँगा।”
दोनों को मालुम था कि अगर मृत्युंजय ने मना कर दिया तो उन्हें जाने की इजाजत ही नहीं मिलेगी। इसलिये उसकी खुशामद करनी पड़ती थी।
” पूरे हिटलर है, जरा से काम के लिये कितनी मिन्नत करवाते हैं।”
” यही क्या कम है कि राजी हो जाते हैं, नहीं तो जा भी न पाते। काम निकलवाना हो तो इतना तो करना ही पड़ेगा हमें।”
” हॉ सचमुच, कहते हैं न मतलब पड़ने पर गधे को भी……।”
” अरे, चुप रहो यार, सुन लेंगे तो जायेंगे भी नहीं।” और दोनों की खिलखिलाहट बिखर जाती।
मृत्युंजय बड़ा था और अपनी वरिष्ठता को कायम रखता था। दोनों लड़कियों पर पूरा नियंत्रण रखता था। सुकन्या और नीलिमा उसको इस कठोर नियंत्रण से कभी कभी बहुत झुंझला जाया करतीं – ” सॉस भी लो तो इनको हिसाब देना पड़ता है।”
फिर हँस पड़तीं – ” लेकिन वक्त पर काम भी तो वही आते हैं खोटे सिक्के की तरह।”
अक्सर नीलिमा कहती थी – ” इतना खराब नहीं है मेरा भाई कि तुम ध्यान ही नहीं देती हो। कितना खुश होता है तुम्हारे आने से। मेरी भाभी बन जाओ, मेरे जैसी ननद मिलेगी नहीं तुम्हें।”
सुकन्या भी हॅसकर कह देती – ” तुम्हारे जैसी ननद के लालच में फॅसने वाली नहीं हूॅ मैं। वो हिटलर तो मेरी ओर देखता भी नहीं है, अपना भाई अपने पास रख। “
लेकिन सुकन्या जानती थी कि भले ही अब मृत्युंजय उनका साथ नहीं देता है लेकिन उसे देखकर मृत्युंजय के ऑखों और चेहरे पर आई दमक से अनजान नहीं थी वो। इसीलिये मृत्युंजय के लिये हमेशा उसके मन में एक कोमल कोना बना रहा। मन ही मन प्यार करती थी उसे।
अपना कर्त्तव्य निश्चित किया उसने। मम्मी पापा के लौट के आने के बाद उसने उनसे कहा कि वह कुछ दिन के लिये सुमन चाची के पास जाकर रहना चाहती है, जिससे उनसे नीलिमा का दुख बाॅट सके। घर में किसी को कोई एतराज नहीं था।
सुकन्या के आने से सुमन को लगा कि जैसे उनके जलते जख्मों पर किसी ने मरहम रख दिया हो। मृत्युंजय ने भी फोन पर सुकन्या को धन्यवाद दिया – ” इम्तहान होने तक मैं मम्मी के लिये बहुत परेशान था, तुमने मेरी चिन्ता दूर कर दी। तुम ऐसे समय मम्मी के पास आई हो कि मैं तुम्हारा कृतज्ञ हो गया।”
” जय , इस तरह कहकर मुझे पराया क्यों कर रहे हो? क्या मैं इस परिवार का हिस्सा नहीं हूॅ? तुम चिन्ता न करो, मैं चाची का पूरा ध्यान रखूॅगी। अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दो। नीलिमा की यही इच्छा थी। शायद तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिये नीलिमा ने पढ़ाई छोड़कर नौकरी की थी।”
मृत्युंजय फोन पर ही रो पड़ा – ” हॉ जानता हूँ तभी तो समझ में नहीं आता कि उसने आत्महत्या क्यों कर ली? अब तो सब ठीक हो गया था। कहीं प्यार वगैरह …….।” कहते कहते रुक गया मृत्युंजय।
” नहीं जय, नीलिमा की जिन्दगी में कोई नहीं था।”
” फिर………।”
” भूल जाओ जय। जो हो गया वह लौटेगा नहीं, अब तुम्हारा कैरियर ही उसे सच्ची श्रद्धांजलि है।”
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श्रद्धांजलि (भाग 6) – बीना शुक्ला अवस्थी: Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर