शौक या दिखावा – रंजू अग्रवाल “राजेश्वरी’

मई में मुक्ता दीदी के बेटे की शादी थी ।मायके और ससुराल दोनों ही पक्षों के लोग अति उत्साहित थे ।हो भी क्यों न …एक तो परिवार की शादी ऊपर से मुक्ता दीदी के शान शौकत की वजह से चर्चाओं का भी जोर था ।कोई कह रहा था शादी में पचास लाख खर्च होंगे ,कोई एक करोड़ तो किसी का अंदाजा  डेढ़ दो करोड़ से नीचे का नही था ।

ऐसा नही था कि मुक्ता दीदी के सभी रिश्तेदार धनाढ्य थे ।मायका हो या ससुराल दोनो ही तरफ कुछ आर्थिक रूप से सामान्य थे तो एक आध ऐसे भी थे जिनका  एक महीने का खर्च मुक्ता दीदी की एक दिन की कमाई के बराबर था  । शादी के नाम से जहां सभी खुश थे वहीं उन सामान्य लोगों के मन मे शादी के अनुकूल वेशभूषा के इंतज़ाम का तनाव भी था ।

राशि भाभी भी उनमें से एक थीं ।

एक दिन राशि भाभी का फोन आया ।

“पूनम दीदी सुना है ,मुक्ता दीदी के यहां रोज की रस्मों के हिसाब से ‘ड्रेस और कलर कोड’ भी तय हुआ है ।”

“हां भाभी ,सुना तो मैंने भी है ।”एक दिन मुक्ता दीदी कह रही थीं कि ड्रेस कोड का सारा विवरण परिवार के व्हाट्सएप ग्रुप में  डाल देंगीं।” 

कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा ।

“क्या हुआ भाभी?” मैंने ही पूछ लिया ।

“कुछ नही दीदी ।मैं तो बस ये सोच रही थी कि मेरे परिवार में चार लोग हैं ।मुक्ता दीदी के यहां हल्दी ,कीर्तन ,संगीत वगैरह मिलाकर कम से कम पांच दिन का कार्यक्रम है ।तो क्या पूरे परिवार के उसी के हिसाब से कपड़ों की व्यवस्था करनी होगी?”

राशि भाभी के इस सवाल ने मुझे बहुत कुछ सोचने को विवश कर दिया ।




क्यों धनाढ्य लोग अपनी शान शौकत दिखाने के चक्कर मे औरों को मुसीबत में डाल देते हैं ? 

दो दिन बीते थे कि बड़ी भाभी का फोन आ गया ।इधर उधर की बातें करते करते  बातों की सुई मुक्ता दीदी के घर की शादी के ऊपर अटक गई ।

बातों ही बातों में मैंने राशि भाभी का नाम न लेते हुए उनके जैसे लोगों की  परेशानी की चर्चा बड़ी भाभी से कर ही दी ।

“क्या पूनम दीदी ..आप भी कैसी बातें करती हैं ? अरे मुक्ता दीदी के भी तो अपने शौक हैं ,उनको पूरा करने में क्या बुराई है ।बाकी जिसको शादी में आना है वो उसकी समस्या है ।”

बड़ी भाभी की बातों से मैं निरुत्तर हो गयी। फोन रखने के बाद मैं सोचने लगी ,

“ये शौक है या दिखावा ? क्या पहले के लोगों के शौक नही होते थे ? शादी तो वो भी अपने बच्चों की करते थे। मगर उस समय समारोह में आने वाला कोई रिश्तेदार हीन भावना से ग्रसित होकर नही आता था ।”

खैर …

समय बीता ।शादी के कार्यक्रमों का शुभारंभ हो गया ।मुक्ता दीदी के घर को विदेश से मंगवाए गए फूलों से सजाया गया था । पूरी व्यवस्था  दूसरे शहर के नामी इवेंट मैनेजर को सौंपी गई थी । पेय पदार्थों ,जलपान से लेकर खाने तक मे ऐसे ऐसे व्यंजन थे जिनके नामों से आम आदमी शायद अनभिज्ञ ही हो । 

“व्यवस्था तो बड़ी अच्छी है । किससे  करवाई है ?”दीदी के किसी रिश्तेदार को जब जीजाजी से पूछते सुना तो बरबस ही ध्यान उनकी बातों में चला गया ।

“अरे मुम्बई वाले थॉमसन इवेंट ग्रुप की है ।”

“अच्छा !! कितने का पैकेज पड़ा?”




“अरे मत पूछिए भाई साहब ।तीन हज़ार रुपये प्लेट का तो सिर्फ इस समय  का खाना है।”

“तीन हज़ार रुपये प्लेट!” सुनकर मैं चौंक गयी । ऐसा क्या है इस खाने में ? वही आटा ,सब्जियां ,मसाले ।

मुझे लगा मेरी प्लेट में नान की जगह चांदी का सिक्का और पनीर के स्थान पर मोती के टुकड़े रखें हैं । साथ ही नज़र बगल में पड़े उस कूड़ेदान की ओर भी चली गयी जिसमें आधा खाये भोजन से भरी प्लेटें रखी थीं ।लोगों ने सिर्फ उत्सुकतावश चखने के लिहाज से जिनको अपनी प्लेटों में भर लिया था ।

“हाय रे बर्बादी ।कहाँ कोई एक रोटी को तरसता है और यहां ये सब।”

पांच दिन की धमा चौकड़ी में शादी समारोह बहुत सी सुखद  यादें छोड़ गया ।मगर …साथ ही कुछ सवाल भी छोड़ गया ।

न जाने क्यों मेरी  आँखों के सामने राशि भाभी और उनके जैसे तमाम चेहरे आ रहे थे जो अपनी हीनता को अपनी मुस्कुराहट के पीछे छुपा रहे थे ।राशि भाभी का अपने गले में पड़ा नकली  हार बार बार अपनी साड़ी के आंचल से छुपाना ,भले ही औरों की नज़र में सामान्य हरकत हो मगर मेरी नज़रों से उनकी हिचकिचाहट छुपी न रह सकी ।

हद तो तब हो गयी जब मुक्ता दीदी की ननद को मैंने अपने पांच साल की बेटी को डांटते सुना …

“देखिए न आज के ही दिन के लिए पूरे ढाई हजार की पीली फ्रॉक खरीदी थी , दो घंटे भी नही पहनी कि गन्दी कर ली । आखिर कल के लिए रखी ये लाल फ्रॉक पहनानी पड़ी ।”

 जबकि मैं सुबह से उस बच्ची को उसी फ्रॉक में देख रही थी ।”कितनी सरलता से उन्होंने अपनी मजबूरी को बेटी की शरारत से ढक दिया था ।” मैं सोचने लगी ।

“क्या हमारी आज की दुनिया मे शौक और दिखावे में कोई अंतर नही रह गया है ?”

मैं बार बार अपने आप से बस यही पूछ रही थी ।

#दिखावा 

रंजू अग्रवाल “राजेश्वरी’

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