Moral stories in hindi : ” थोड़ी देर और बैठ जाइये, फिर सब साथ में चलते हैं।”
” अरे नहीं माणिक,संध्या होने को आ गई और फिर तुम तो जानते ही हो कि…।” कहते हुए मिथिलेश बाबू एक ठंडी साँस भरते हुए उठे और अपने घर की तरफ़ जाने लगे।पीछे से उन्हें सुनाई दिया…
” बेचारे की भी क्या किस्मत है…।”
” किस्मत की बात नहीं है मित्र, सब इनका खुद का किया धरा है।आप तो इन्हें चार महीने से जानते हैं और चालीस साल से।इन्होंने…….।” माणिक बाबू अपने मित्र को बताते रहे और मिथिलेश बाबू के कानों में उनकी आवाज़ मद्धम होती चली गई।
घर आकर उन्होंने बल्ब का स्वीच ऑन किया। अपने अंधेरे घर को रौशन करके उन्होंने एक नज़र अपनी एकांत कोठी के चारों ओर डाली और पत्नी जानकी की तस्वीर के आगे दीया जलाने लगे तो उन्हें माणिक की बात याद आई,” सब इनका खुद…।” हाँ, माणिक ने सच ही तो कहा है कि सब मेरा ही…।उनकी आँखों के सामने हमीरपुर कस्बे के मिथिलेश ज़मींदार का जीवन चलचित्र की भांति चलने लगा।
हमीरपुर कस्बे में मिथिलेश ज़मींदार का खूब दबदबा था।बाप-दादाओं की संपत्ति के इकलौते वारिस थें।माता-पिता के देहांत के बाद बड़ी हवेली में तीन ही प्राणी रहते थें -पत्नी जानकी, उनका लाडला आशुतोष और वे स्वयं।उनके मित्र भवानी मिश्र का उनके घर खूब आना- जाना होता था।यूँ तो भवानी मिश्र विवाहित थें लेकिन विवाह के पाँच बरस बाद ही उनकी घरवाली उन्हें कोई औलाद दिये बिना ही स्वर्ग सिधार गई,बस तभी से वे विधुर की ज़िंदगी जी रहें थें।रिश्तेेदार दूजा ब्याह की बात कहते तो वे हँसकर टाल जाते।
स्वभाव से हँसमुख भवानी का आना-जाना शुरु में तो जानकी को अच्छा नहीं लगा, पति से भी कहा तो मिथिलेश हँसते हुए बोले,” अजी..वो तो मेरा लंगोटिया यार है,आज उसकी पत्नी होती तो अपने आशु जितना ही बड़ा उसका बेटा होता।यहाँ आकर थोड़ा हँस-बोल लेता है,आशु के साथ खेल लेता है तो उसका जी बहल जाता है।” उसके बाद से जानकी ने भी भवानी से परदा करना छोड़ दिया।
आशु तीसरी कक्षा में पढ़ने लगा था, उसी समय जानकी ने पति को दूसरी संतान के आने की खुशखबरी सुनाई तो मिथिलेश तो खुशी से फूले नहीं समाये।आखिर इतनी संपत्ति को भोगने वाला भी तो होना ही चाहिए।उन्होंने पत्नी से कहा कि आशु जैसा एक और बेटा ही देना।
अब भवानी का मिथिलेश के घर बिना रोक-टोक के आना-जाना भला लोगों को कैसे हजम होता।एक दिन मिथिलेश बाज़ार से लौट रहें तो रास्ते में खड़े कुछ लोगों ने कह दिया,” भाई, इस बार तो मिथिलेश के घर भवानी की ही औलाद पैदा होगी।” सुनते ही उनके तो तन- बदन में आग लग गई।जी तो किया कि उनका मुँह तोड़ दे लेकिन फिर अपने पर काबू किया।घर आये तो देखा कि भवानी जानकी से कह रहा था कि आपके गुलाबी गालों को देखकर तो लगता है कि अबकी तो आपको बेटी होगी।
अब तो मिथिलेश की आँखों से जैसे नींद ही गायब हो गई हो।दिल और दिमाग के बीच चल रहे द्वंद में वे किसकी सुने…एक उनकी पत्नी जिससे बहुत प्यार करते थें और दूजा उनका भाई समान मित्र।इसी कशमकश में एक दिन जब वे घर लौटे तो देखा कि भवानी जानकी की साड़ी का पल्लू ठीक कर रहा था।बस फिर क्या था…इतने दिनों का गुबार उन्होंने निकाल दिया।भवानी को अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया और आस्तीन का साँप कहकर घसीटते हुए घर से बाहर निकाल दिया।
उस रात उन्होंने जानकी के हाथ से पानी भी नहीं पीया और तड़के ही जानकी के भाई को बुलवाकर कहा कि अपनी बहन को ले जाओ।जानकी घुटकर रह गई।आशु का हाथ पकड़कर जाने लगी तो उन्होंने आशु को अपनी ओर खींच लिया और दाँत पीसते हुए बोले,” ये मेरा बेटा है, मेरे पास ही रहेगा।” तब जानकी ने अपने उभरे पेट की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा, ” और ये? ”
” मेरा मुँह न खुलवाओ..”
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विभा गुप्ता