आज राज, उ. मा. विद्यालय अन्ता में गहमा गहमी थी कारण श्री केश्व दत्त शर्मा प्रधानाचार्य सेवा निवृत्त हो रहे थे सो उनका विदाई समारोह आयोजित था। बच्चे और स्टाफ मन से तैयारी कर रहे थे कारण उनका व्यवहार सबसे सौहार्दपूर्ण रहा। वे विद्यालय के बच्चों एवं स्टाफ को अपना परिवार समझते थे। किसी के भी सुखदुख, परेशानी में पूरी भागीदारी निभाते थे। गुरूर तो उन्हें छू तक नहीं गया था। इसलिए किसी भी विद्यार्थी की पहुंच उन तक थी।
विद्यालय के विकास हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते ! विद्यार्थीयों के हितार्थ नये नये नवाचार करते। इस सब में उनक स्टाफ भी उनका साथ देता। उनसे किसी का मन मुटाव नहीं था सो कोई भी काम करने के लिए सहज तैयार हो जाता। वे आदेश नहीं देते, कहते ही इतने प्रेम से थे कि सामनेवाला मना नहींं कर पाता ।
वे अपने कार्यालय में बैठे सोच रहे थे कि यहाँ आज मेरा आखिरी दिन है जीवन भर के लिए मेरा नाता यहां से टूट जायेगा। सेवा निवृत्ति भी एक आवश्यक प्रक्रिया है जो उम्र होते ही आनी ही है। अभी वे विचार मग्न ही थे कि कुछ अध्यापक आए और बोले सर ,सब तैयार है आप चलें।
जैसे ही वे वहां पहुंचे समस्त विद्यार्थी प्रागंण में बैठे थे कुछ के हाथों में गुलदस्ते थे। स्टेज पर सारा स्टाफ बैठा। वहां बैठने के बाद सबसे पहले माल्यार्पण किया गया प्रत्येक कक्षा के प्रतिनिधी ने भी माल्यापर्ण किया।कुछ जन प्रतिनिधि भी वहाँ मौजूद थे उन्होंने भी माल्यापर्ण किया। बच्चों ने गुलदस्ते भेंट किए। फिर बोलने की बारी आई। सबने उनके मेहनती,क्रियाशील, प्रेमभाव की जमकर तारीफ की। बोलने का सिलसिला खत्म ही नहीं हो रहा था सब अपने अपने विचार उनके प्रति रख रहे थे।
अब उनके बोलने की बारी थी । सबका धन्यवाद एवं आभार प्रकट कर वे बोले ये विद्यालय जिसमें मेरे जीवन का सबसे लम्बा समय बारह वर्ष निकले। मैं इसकी एक-एक दीवार, कमरे से वाकिफ हूं यह मुझे मेरा घर ही लगता था, आप सब लोगों से एवं इन विद्यार्थियों से मुझे अपने स्नेहिल परिवार की अनुभूति होती थी। मैंने अपना सरकारी नौकरी का दायित्व पूरे मनोयोग एवं कर्मठता से निभाया।
मेरा मानना था कि नौकरी भी एक दायित्व है जिसे ईमानदारी से निभाना चाहिए । जिस काम के लिए हम वेतन उठाते हैं उसे ईमानदारी से करना चाहिए। मेरे दो दायित्व तो पूरे हो गए। प्रथम मैंने अपने परिवार के प्रति ,बच्चों को योग्य बनाने में पूर्ण रूप सेअपना दायित्व निभाया। बच्चों को उनके जीवन मे सेटल करके में पारिवारिक दायित्व से स्वतंत्र हो गया था।
दूसरा दायित्व मेरी नौकरी थी जिसे मैंने पूर्ण सत्यता एवं निष्ठा से निभाया और आज में उससे भी मुक्त हो गया । इस तरह मेरे जीवन की प्रथम पारी खत्म हुई। अब में जीवन की दूसरी पारी शुरू कर अपना जीवन नये सिरे से शुरु करूंग , क्योंकि मैं नौकरी से सेवा निवृत्त हुआ हूं जिन्दगी से नहीं। अब जीवन की दूसरी पारी खेलने का दायित्व मेरे ऊपर है। वो दायित्व है पत्नी की ओर देखकर मुस्कराते बोले इनको समय देने का जो जीवन की आपाधापी में नहीं दे पाया।साथ ही सामाजिक सरोकार का दायित्व, समाज के लिए भी कुछ करना बनता है।
तभी एक कार विद्यालय गेट के सामने रुकी और उसमे से एक युवक उतरकर मंच की ओर बढा चला आ रहा था। मंच पर पहुंचते ही पहले उसने प्रधानाचार्य जी के पैर छुए। वे असमंजस से उसे देख रहे थे। वह बोला सर नहीं पहचाना आपने में आपका भोलू । अरे भोलू कह उसे गले से लगा लिया कहाँ चला गया था तेरा कोई अता-पता ही नहीं मिला। सर आपका वहाँ से ट्रांसफर हो गया मैंने पता लगाया पर सही पता नही मिल पाया । फिर मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया और सोचा कुछ बन कर ही आपके समक्ष जाऊंगा।
और आज आपके समक्ष उपस्थित हूं,वो भी ऐसे शुभ दिन। स्टेज पर खड़ा हो कर बोला आप सब को अचरज हो रहा होगा कि मैं कौन हूँ ,सर से मेरा क्या रिश्ता है। तो आज में जो कुछ भी हूं सर की बदौलत ही हूं। अगर इन्होंने अपना वरद हस्त मेरे ऊपर न रखा होता तो आज मैं कहीं मजदूरी कर जीवन यापन कर रहा होता ।इन्होंने मेरी विषम परिस्थितियों को समझा और मुझे सब तरह से सम्बल दिया उसका परिणाम है कि मैं एक सफल सांख्यिकी अधिकारी हूँ.
आप लोगों को विस्तार में बताता हूँ मेरा नाम विजय था किन्छु सर ने प्यार से मुझे भोलू नाम दिया। में एक गरीब परिवार से था । मेरी मां घर घर जाकर झाडू पोंछा, वर्तन साफ करने का काम करती थी पिता तो जैसा हम लोगों में अक्सर होता है जितना कमाते उतने ही की शराब पी जाते ।
घर खर्च में उनका कोई योगदान नहीं था। एक बार मां बहुत बीमार पड़ गई तो वह काम पर बहुत दिनों तक नहीं जा पाईं। ऐसा करीब दो माह तक चला। जब वह काम पर नहीं जा पाती कुछ लोग पैसे काट कर देते , घर खर्च ही नहीं चल पाता दोनों समय का भोजन ही नहीं मिलता ऐसे में, मैं स्कूल यूनिफार्म कैसे बनवा सकता था। उस समय में नवीं कक्षा में पढ़ रहा था ,सो पुरानी यूनिफार्म फटीटूटी ही पहन कर आ जाता।
मेरे कक्षाध्यापक गुरु रोज डाँटते कि यूनिफार्म पहन कर आओ। मैं कहता सर थोडे दिन मे सिल जाएगी। सिलती कहां से मां ठीक नहीं हो पा रही थी पैसे पूरे नहीं ला पा रही थी ।एक दिन कक्षाध्यापक मुझे सर के पास ले गये और मेरी शिकायत की कि न तो में सही यूनिफार्म बनवा रहा हूं न मेरे पास पुस्तकें हैं । सर ये लोग पढने के काविल नहीं होते इन्हें तो मेहनत मजदूरी ही रास आती है।
सर ने उन अध्यापक जी से कहा आप अपनी कक्षा लें इससे में बात करता हूँ। वे चले गए तब सर ने मुझसे पूछा मैं ऐसा क्यों कर रहा हूं। पहले तो डर से में चुप रहा फिर उनके प्यार करने पर घबराओ नहीं जो बात है सच बताओ मैं सजा नहीं दूंगा।
मेरो आँखा से आंसू निकल कर मेरे चेहरे को भिगोने लगे। तब सर ने मेरे सिर पर हाथ फेरते कहा बेहिचक हो कर अपनी परेशानी बताओ । मेरे द्वारा सब स्थिती बताने पर बोले तुम चिन्ता मत करो बेटा शाम को मेरे घर आ जाओ! शाम को, वे मेरे को लेकर बाजार गए नाप की यूनिफार्म, कुछ कापी पेन ओर कुछ पुस्तकें दिलवाई स्कूल बैग भी दि।।
से मुक्त कर दिया। क्योंकि उनका दायित्व मैं अकेला ही नहीं था , और भी बच्चे जो पढ़ना चाहते थे किन्तु विषम परिस्थितियां उनकी पढ़ाई में बाधक थीं उन सभी का दायित्व अपने ऊपर ले रखा था। नौकरी के साथ मैंने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करी और सांख्यिकी अधिकारी के लिए चयन हो गया।
सर की बताई राह पर में भी ऐसे एक दो बच्चों का दायित्व लेता रहता हूं ताकि गुरु दक्षिणा के रूप में अपने गुरु को यही भेंट कर सकू ।यह सब बोलते विजय भावुक हो गया मुश्किल से अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास कर रहा था सर आपतो अपना तीसरा, दयित्व सामाजिक सरोकार का अन्य दायित्वों के साथ निर्वहन कर रहें हैं। में अपने को भाग्यशाली समझता हूं कि आप जैसे गुरू मुझे मिले, और अपने संरक्षण में ।ले मेरा जीवन संवार दिया ।
सब लोग उनका यह तीसरा दायित्व जानकर अवाक थे,केवल दो तीन ही लोग थे जो यह बात जानते थे कि वे गरीब बच्चों की मदद करते हैं। वे इतने चुपचाप यह काम करते थे कि किसी को भनक न लगे। वे अपनी दरियादिली का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहते थे।
यह सब सुन प्रधानाचार्य जी भी भावुक हो गए बोले बेटा यह तो तुम लोगों का बड़प्पन है जो मुझे रस तरह याद रख रहे हो। मैं तो निमित्त मात्र हूं करने वाला तो वह ईश्वर है जो मुझे इस सबके लिए प्रेरित करता है। भगवान मेरी ऐसी सद्बुद्धि, बनायें रखें।
आप सब लोगो का आभार एवं धन्यवाद, अपने सहयोग एवं आयोजन के लिए बच्चों बहुत-बहुत प्यार एवं आशीर्वाद पढ़ाई मन लगा कर करते रहें ताकि जीवन में आगे बढ़ते रहो। मुश्किलें आयेंगीं किन्तु उनसे डर कर हार नहीं मानना अपितु उनसे बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त करना। इन्हीं शुभेच्छाओं के साथ ****आगे बोल न सके गला भर आया अपनों से बिछड़ने के ग़म से।
शिव कुमारी शुक्ला
17-2-2
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित