सेवा को मेवा – विमला गुगलानी : Moral Stories in Hindi

     विनायक और राजवंत दो भाई और एक बहन दंमयंती।शहर के पास बसा एक  गांव जो कि अब बड़े कस्बे में परिवर्तित हो चुका था जहां पर इस परिवार का बसेरा था। हरिप्रसाद जी की यहां पर बहुत पुरानी बर्तनों की दुकान जहां पर किसी जमानें में पीतल, कांसे, लोहे ,

भरत के बर्तन मिलते थे, पुराने बर्तन भी ले लिए जाते, लेकिन धीरे धीरे स्टील का चलन हुआ और फिर तो नान स्टिक , कूकर और न जाने कौन कौन से कई प्रकार के बर्तन आ गए।

विनायक और राजवंत ने ग्रेजुऐशन की , दमयंती ने गांव के स्कूल से ही बारहवीं पास की क्योंकि लड़कियों से रोज शहर से आना जाना संभव नहीं था तो उसने इतनी ही पढ़ाई की। 

       विनायक शरीर से ह्रष्ट-पुष्ट और खूब लंबी कद काठी का  था, उसका शुरू से ही पुलिस में नौकरी करने का मन था। पढ़ाई में भी अच्छा था। राजवंत भी पढ़ाई में ठीक था,

लेकिन उसने पिता के साथ अपना कारोबार संभालने का ही फैसला किया। घर और दुकान अपनी थी, लेकिन उस समय दुकान छोटी और बहुत कम सामान था उसमें। 

          कुछ खेती योग्य जमीन भी गांव के पास ही थी, जहां पर फसल, फलदार पेड़ , कुछ सब्जियां और एक दो गाएं भी होती थी। कह सकते है कि कुल मिलाकर परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। किस्मत की बात की विनायक की मेहनत रंग लाई और उसे पुलिस में नौकरी मिल गई,

इधर राजवंत ने पिता के साथ दुकान पर बैठना शुरू कर दिया। समय के साथ सब की शादियां हो गई, विनायक के दो बेटे हुए जबकि राजवंत के एक बेटा बेटी हुआ। 

      हरिप्रसाद की उम्र भी हो चली थी और घुटने भी जवाब देने लगे तो वो ज्यादतर काऊंटर पर ही बैठते। राजवंत ने दुकान अच्छे से संभाल ली, हर प्रकार का आधुनिक सामान रख लिया, लेकिन जगह की कमी महसूस हो रही थी। चांस की बात कि साथ वाली दुकान बिकने को हुई

तो राजवंत ने कुछ पैसे देकर और कुछ बैंक से लोन लेकर वो दुकान खरीद ली। अब दोनों दुकानों को मिलाकर बड़ा शो रूम  तैयार हो गया और हर प्रकार का किचन में प्रयोग होने वाला आधुनिक सामान, क्राकरी वगैरह रख ली और “ प्रसाद क्राकरी हाऊस” के नाम से दुकान खूब मशहूर हो गई।

    उधर विनायक की भी पुलिस की नौकरी, सरकारी आवास, सब सुख सुविधाएं, लेकिन उसकी आदतें बिगड़ गई। ऊपरी कमाई खूब करता,रिश्वत वगैरह आम बात थी।जैसी कमाई, वैसे खर्चे, शराब  और सिगरेट के इलावा जुए की लत भी लग चुकी थी।

    अब तो अपने गावं या कस्बा कह सकते हैं, आना जाना बंद ही हो गया था, पहले जब भी आता खेतों के ताजा फल सब्जियां, यहां तक कि ताजा दूध दही भी ले जाते। लेकिन अब फुर्सत ही नहीं थी। पत्नी ने बहुत समझाने की कोशिश की, मां- बाप भी समझाते लेकिन वो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देता। 

       सिरफ ये अच्छा हुआ कि उसने शहर में अपना अच्छा घर बना लिया और दोनों लड़के भी पढ़ाई मे अच्छे थे, बड़ा शशांक एम. बी. ए. के बाद और छोटा रियाशं  सी. ए करने के बाद अपनी कंपनी ही खोलना चाहते थे।दोनों को जब भी समय मिलता दादा दादी व बाकी परिवार से मिलने आते।दादा उनकी पढ़ाई के खर्चे में खूब मदद करते , जबकि विनायक को कोई परवाह नहीं थी। 

           विनायक की मां मीनाक्षी बड़े बेटे की आदतों से बहुत दुःखी थी, लेकिन क्या करती। बढ़ते हुए बिजनैस को देखकर बी़काम करने के बाद राजवंत के बेटे शिखर ने भी दुकान पर बैठने का ही फैसला किया।काम ही इतना बढ़ चुका था। विनायक  बहुत समय से न मां बाप से मिला और न ही कभी उसने उनहें अपने पास बुलाया। 

      विनायक के पिताजी की तबियत काफी खराब रहने लगी तो उनहें शहर के बड़े हस्पताल में दिखाने की जरूरत पड़ी। मजबूरी में वो विनायक के घर पर रूके। कहीं बाहर रूकते तो मीना भाभी बुरा मान जाती।दोनों पोतें तो दूसरे शहरों में पढ़ रहे थे। विनायक रात को देर से घर आता, कुछ तो पुलिस की डयूटी और कुछ उसकी आदतें। उसने तो ढ़ग से बाप भाई से बात भी नहीं की। 

          बहू मीना़ ने जी जान से सेवा की, वापिस आने के कुछ दिनों बाद ही राम प्रसाद जी चल बसे।अब मजबूरी में विनायक को आना ही पड़ा।

उससे किसी की बातचीत कम ही होती। चौथे की रस्म के बाद सब रिश्तेदार चले गए। सिरफ घर के लोग ही रह गए। पिताजी की बीमारी के चलते राजवंत और शिखर में से एक ही दुकान पर जा पाता। नौकर तो थे  परंतु मालिक का होना भी जरूरी होता है, लेकिन उससे जरूरी थी पिताजी की देखभाल। 

    जब से आया था तबसे ही विनायक के मन में द्वंद्ध सा चल रहा था। दोपहर  को खाने के बाद विनायक ने मां से कहा कि जायदाद का बंटवारा कर दिया जाए तो बेहतर है।” बंटवारा कैसा, वो तो हो चुका”। और मेरा हिस्सा, विनायक कुछ उँची आवाज में बोला। तूने क्या किया है घर के लिए, बहन दमंयती बोली। दमंयती पहली बार बड़े भाई के आगे बोली।

वो दोनों भाईयों से छोटी थी तो आगे से कम ही बोलती थी । शादी के बाद विनायक ने तो नाममात्र का रिश्ता भी नहीं निभाया। राखी , टीका वगैरह का नेग मीना ही भेज देती। जब पति ही किसी काबिल न हो तो पत्नी भी क्या करें।हर दिन त्यौहार पर वो छोटे भाई राजवंत और भाभी सुमन के पास ही आती और मां बाप से भी मिल लेती। 

     “मुझे पहले ही पता था, दोनों भाई बहन मेरे साथ विशवासघात ही करेगें। सब कुछ दोनों ने ही हड़प्प लिया।केस कर दूंगा, मैं भी चुप रहने वाला नहीं“ विनायक गुस्से से बोला। तभी वकील आ गया और उसने रामप्रसाद की वसीयत निकाली।

सारे परिवार को बुला लिया गया और वसीयत के अनुसार मकान पत्नी के नाम था, उसकी मर्जी बाद में जिसके नाम करे। बैंक एकाऊंट तो पहले से ही पति पत्नी के सांझा थे। दुकान राजवंत की क्यूकिं सारी मेहनत उसी की थी। 

      अब तक  जमीन की कीमत भी बहुत हो चुकी थी तो उसने तीनों पोतों शंशाक, रेयाशं और शिखर के नाम कर दी। दमयंती ने अपना हिस्सा लेने से मना कर दिया था।फिर भी कुछ कैश उन्होंने दमयंती और नीनू( शिखर की बहन) के नाम किया हुआ था।

“ अब बता, किसने किया विशवासघात” मीनाक्षी ने पूछा।तेरे पास नौकरी है तो राजवंत ने बिजनैस में सारी मेहनत खुद से की है। तूने तो कभी पूछा भी नहीं।

आना ही बंद कर दिया। सारा घर, रिशतेदारी, मां बाप की सेवा सब सुमन और राजवंत ही कर रहे है।तेरी बुरी आदतों के कारण जमीन तेरे बच्चों के नाम कर दी तो विशवासघात कैसे हुआ। विनायक के पास कोई जवाब नहीं था।

    “ बाबूजी ने सब ठीक किया” विनायक की पत्नी मीना बोली। जो किया, सही किया, मैं ही अपना फर्ज भूल बैठा, मुझे बहुत अफसोस है, कोशिश करूगां कि मैं अपनी आदतें सुधार सकूं, विनायक ने हाथ जोड़ते हुए कहा। हो सके तो सब मुझे माफ कर दें । असली विश्वासघाती तो मैं हूं जिसने बाबूजी की बिल्कुल सेवा नहीं की।सबके मनों की मैल धुल चुकी थी।

विमला गुगलानी

चंडीगढ़

विषय- विश्वासघात

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