साथ – कंचन श्रीवास्तव

“कामवाली से लेकर पति का नाश्ता, बच्चों का टिफिन सांस ससुर की दवा उनका नाश्ता सबसे खाली होके पल भर अखबार लेके बैठी तो पहले ही पन्ने पर हेड लाइन पढ़कर रेखा  सहम गई ।

लिखा था ” रिश्ते बनाम पैसे “

बाकी क्या लिखा है भीतर पढ़ती कि उसके पहले उसके अपने भीतर के तुफान ने उसे अपनी चपेट में ले लिया ।और आंखों के गीले कोर को आंचल से पोछते हुए  धम्म से बिस्तर पर गिर गई।

उसे याद आए वो दिन  जब किलो भर आटा आता  तब कहीं जाके चूल्हे पर तवा गरम होता ,अरे उसने तो वो दिन भी देखा है जब  कई कई दिनों तक सत्तू  और नमक खाकर रहना पड़ता ।

अरे छोटी को नमकीन सत्तू पसंद न आता तो मां को पड़ोस से थोड़ी चीनी मांगनी पड़ती ।पर आंटी बहुत अच्छी थी कि कभी ना न करती और हंस कर मांगी हुई चीज देती।

कभी कभी तो अपने घर बुलाकर खाना भी खिलाती। और मां थोड़ी चीनी डाल अगले बार के लिए बचाती हुई कहती थोड़ा फीका खा लो, कहते हुए पुड़िया बनाकर रख देती फिर  जाने कितने कोने का मुंह सिकोड़ सिकोड़ कर वो खाती और बड़बड़ाती जाती कि खाना ही पड़ेगा।और उसे खाते देख मेरी आंखें नम हो जाती फिर सोचने पर मजबूर कि वाह ! रे पेट की आग ,जब इसमें आग लगी हो तो इंसान सिर्फ भरने की सोचता है।


अच्छा खराब बासी तीबासी और ताजा नहीं देखता।और आंसुओं को छिपाते हुए उसे डांटते और कहती हां मां ठीक ही तो कह रही है ।रोज़ रोज़ कहा से मांग कर लाएगी।

और फिर खाकर हम सब भाई बहन मां के इर्द गिर्द सो जाते।

कभी कभी तो सोचती ये कंट्रोल का सहारा न होता तो पेट का क्या होता।ऐसा नहीं था कि पापा कमाते नहीं थे कमाते थे पर जो भी कमाते वो पढ़ाई और दादी बाबा की दवा दारू में निकल जाता।

बस किसी तरह आए राशन में गेहूं पिसाने और नून तेल लाने का ही पैसा बचता।हां कभी कभार आलू या बहुत सस्ती होने पर सब्जी आती तो हम सब उसी से गुजारा कर लेते।

और तो और  दाल तो हम लोग कई महीने में एक बार खाते।

हां तो हम बात कर रहे थे पढ़ाई की हां पढ़ाई तो वो हम सब जी जान से करते।

इसी बात का तो पापा को गर्व रहता ।

 जब भी वो स्कूल जाते अध्यापक बहुत तारीफ करते।

उसी के साथ साथ ये भी कहते “हमारे आपसी प्यार को देखकर” कि बच्चे हो तो ऐसे।

सच मुच आपकी पत्नी ने संस्कार बहुत अच्छे दिए।

जितना वो सबका सम्मान करते हैं उतना ही आपस में मिल मिल कर  रहते हैं।

फिर धीरे धीरे हम सब बड़े होने लगे। और बड़े होने लगे साथ सबका टेस्ट भी अलग हो गया।

कोई कुछ तो कोई कुछ जाब करने लगा। अब बारी ब्याह की आई तो जैसे तैसे वो भी हो गया।

पर

 पापा का साथ छूट गया।

फिर भी सब कुछ ठीक ही चल रहते देख खुशी हुई।तमाम जिम्मेदारियों के बाद भी सभी का परस्पर मिलना जुलना बना रहता।


पर जैसे जैसे नई पीढ़ी जवान होने लगी  रिश्तों से ज्यादा पैसों की अहमियत बढ़ने लगी।

अब भाई सभी के पास एक जैसा पैसा तो रहेगा नहीं किसी के पास कम तो किसी के पास ज्यादा।इस तरह कोई किसी की कभी मदद कर देता तो कोई किसी की पर  उसने महसूस किया कि जागर से चाहे जितना भी कर दो पर तारीफ लोग उसी की करते जो पैसे से मजबूत होता।

ये बात साफ तौर पर समझ में तब आई जब किसी आरोप में उसी के भाभी ने उसे फंसा दिया।

और वो झटपटा कर रह गई पर  कुछ कर न सकी।

क्योंकि सफाई देने का उसे मौका ही नहीं मिला।

आज उसे समझ आया।

कि इंसान दो में से एक के साथ ही रह सकता है रिश्ता या पैसा।

क्योंकि जहां पैसे हैं वहां रिश्ता नहीं जहां रिश्ता है वहां पैसा नहीं।

आज वो पुराने दिन याद कर फूट फूट कर रो पड़ी।

जब पैसा नहीं था तो सब भाई बहन कितने प्यार से रहते थे।

और आज पैसा है तो रिश्तों में कितना बिखराव है।

ऐसे में निष्कर्ष यही निकलता है कि भले हालात अच्छे न हो पर साथ सबका हो क्योंकि ये वो ताकत है जो हर परिस्थितियों से लड़ने की शक्ति देता है।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!