सप्तपदी-सप्तवचन* – अनुराधा अनिल द्विवेदी*

ऑटो में मेरे सामने बैठे एक भले मानस मेरे दादा जी के उम्र के रहे होंगे, बड़ी देर से मुझे घूरे जा रहे थे, जब भी मैं उनकी तरफ देखती मुझसे नजरे हटा लेते, उनकी नजरों से मैं असहज महसूस कर रही थी।

बात दस साल पहले की है जब मैं ग्रेजुएशन कर रही थी, मेरे गांव से कॉलेज लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर था, जिसमे तीन किलोमीटर पैदल चलने के बाद मैं ऑटो स्टैंड से ऑटो पकड़ कर कॉलेज जाती।

ये क्रम लगभग चार सालों से चल रहा था, पहले बारहवीं के लिए मैं और मेरी एक दोस्त जाते थे, ग्रेजुएशन के पहले साल में ही मेरी दोस्त की शादी हो गई, बाकी दोस्तों की शादियां तो बारहवीं के बाद ही हो चुकी थी, अब मैं अकेली ही कॉलेज जाती थी, उन्हीं दिनों की एक याद शेयर कर रही हूं।

हां तो मैं बता रही थी उन बाबा जी के बारे में जो मुझे लगातार घूरे ही जा रहे थे,  पंद्रह मिनट के रास्ते में से दस मिनट का रास्ता गुजर गया,पर उनका घूरना ज्यों का त्यों था, मैंने सोचा टोकूं, फिर सोचती सब क्या सोचेंगे, एक वृद्ध पर मैं कैसे लालछन लगा रही हूं, मैंने सामने देखा, एक सज्जन फोन पे बातें करने में व्यस्त थे पर बीच बीच में मुझ पर और उन वृद्ध पर नजर डाल लेते, फिर बात करने लगते, शायद कोई महत्त्वपूर्ण कॉल थी।

फिर मैंने साहस की और गला खंखारते हुए कहा–

”सुनिए बाबा जी क्या मेरी शक्ल आपके पोती से मिलती है?”

अब बाबा जी सकपका गए फिर बोले…क्या कहा!

मैने फिर कहा– मैं कबसे देख रही हूं, आप मुझे घूरे जा रहे हैं आपको शर्म नहीं आती।

मेरे कहने पर बाबा जी भड़क उठे– क्या बोल रही हो लड़की।

बाबा जी के कहने पर ऑटो में बैठे सारे लोग बोलने लगे, सही बोल रही है ये हमलोग भी कबसे देख रहे हैं,  अब बाबाजी का मुंह शर्म से लाल हो गया, बेचारे को ऑटो वाले ने वहीं उतार दिए, और वो फोन पे व्यस्त सज्जन अब फारिग हुए और मुझसे कहा– अच्छा एटीट्यूड है, ऐसे लोगों को सबक सिखाना चाहिए, मै कबसे टोकना चाह रहा था, पर इंपोर्टेंट कॉल थी।




उस सज्जन व्यक्ति का ये कहना जैसे मुझे कोई उपलब्धि मिल गई।

ये बात मैं इस लिए शेयर कर रही हूं की मैं एक दब्बू, डरपोक लड़की हुआ करती थी, मेरे गांव में मेरे साथ की सारी लड़कियां डिस्टेंस से बारहवीं कर ली,पर मेरे पिता ने मुझे कहा की कॉलेज जाकर तुम्हे पढ़ना चाहिए, इससे अक्ल आती है, आत्मविश्वास आता है।

और एक मजेदार बात की कॉलेज जाने से पहले मैं और मेरी दोस्त कभी अकेले सफर नहीं किए थे, पहले दिन तो हमारे अंकल ने पहुंचा दिया कॉलेज अब उसके बाद हमे अकेले जाना था, हमारा कॉलेज स्टॉपेज सौ कदम पहले पड़ता था।

और ऑटो ड्राइवर से कहना पड़ता – भैया कॉलेज गेट पर उतार देना।

इतना बात कहने में इतना डर लगता हमे, रास्ते भर सोचते कॉलेज गेट पर बोलना पड़ेगा।

और फिर कॉलेज गेट आते ही मिमियाते हुए बोलते– भईया यहीं उतार देना।

कभी कभी तो ऑटो पर चढ़ते ही बोल देते– कॉलेज गेट पर हमे उतरना है, ड्राइवर चिढ़ कर बोलता, गाड़ी चलने तो दो पहले।

कॉलेज में भी चुप चुप दुबके दुबके रहते, प्रोफेसर्स के कुछ पूछने पर गला सुख जाता थूक निगलने लगते।

गांव के ही छोटे से स्कूल में पढ़ाई करने के वजह से दब्बू के दब्बू रह गए वहां सारे लोग गांव के थे, यहां तक के टीचर्स भी।

फिर दो तीन सालों बाद इतने बहादुर हो गई मैं कि कोई ऑटो में गुटखा भी खाता तो विरोध कर देती की यहां पढ़ने वाले बच्चे बैठे हैं, आप आगे जा कर बैठें, और तो और कॉलेज फंक्शन में फर्राटे से स्पीच देते।

अब ये बातें याद आती है तो लगता है,पिताजी ने कितना अच्छा सोचा मेरे लिए।

ये कुछ मेरी सुनहरी यादें हैं।

मौलिक एवं स्वरचित

सुल्ताना खातून 

दोस्तों ये मेरी अपनी यादें हैं जिसे मैंने आप सब से बांटा है, क्या मेरे अब्बा का फैसला सही था मुझे कॉलेज भेजने का और मैने जो किया उस व्यक्ति के साथ सही था या गलत मुझे कॉमेंट बॉक्स में जरूर बताएं। धन्यवाद

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!