सपनों से समझौता ** – डॉ उर्मिला शर्मा

  #ख़्वाब

एक छोटे से शहर के निकटवर्ती गॉव की नम्रता स्नातक की छात्रा थी। जो रोजाना सायकिल से शहर के कॉलेज में पढ़ने जाया करती थी। औसत दर्जे की पढाई में नम्रता बहुत ही महत्वाकांक्षी लड़की थी। घर में तीन भाई- बहनों में नम्रता सबसे छोटी सबकी चहेती थी।

उसका निम्न मध्यमवर्गीय परिवार बुनियादी जरूरतों को पूरी करने में सक्षम था। विलासिता की वस्तु के लिए घर में कोई स्थान न था। इसके बावजूद नम्रता के पिता पढ़ाई- लिखाई सम्बन्धी खर्च में कोई कटौती न करते थे चाहे वो हरसमय बचत की क्यों न सोचते रहते हो। 

एक रोज उसके भैया ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ अखबार ले आये। नम्रता उसे देख व पढ़ रही थी। तभी उसकी नज़र एक विज्ञापन पर गया। वह प्रादेशिक स्तर पर एक ‘ब्यूटी कॉन्टेस्ट’ का विज्ञापन था। आकर्षक देहदृष्टि और ग्लैमर की दुनिया से प्रभावित नम्रता का मन मचल उठा।

उसकी सहेलियांअक्सर उसकी ‘फिगर’की तारीफ करती रहीथीं। वह भी एक्सरसाइज और खान-पान में नियंत्रण से अपने को मेंटेन रखती थी। भविष्य में स्वयं को ग्लैमर की दुनिया में स्थापितहोनेका सपना रखती थी। वह उस विज्ञापन को बार-बार पढ़ रही थी। और अपने को तौल रही थी।

उसका अंतर्मन उसे उस कांटेस्ट में जाने के लिए उत्साहित कर रहा था। वह मन ही मन सोच रही थी कि वर्षों से उसने जो अपने फिगर मेंटेन करने के लिए परिश्रम की है एवं स्वाद पर अंकुश लगाई है, यही समय है अपने को साबित करने का। लेकिन पिता का घोर नैतिकतावादी विचार का होना इसके आड़े आ रहा था।

उसकी इच्छा इतनी बलवती हो उठी की उसने फॉर्म भर कर भेजने का निर्णय ले लिया। हां ! मां उसकी प्रगतिशील विचारों वाली थी तथा उसे प्यार भी बेतरह करती थीं। अतः नम्रता ने मां को ‘कन्विंस’ कर शहर के प्रसिद्ध स्टूडियो में गई। उस छोटे से शहर के काबिल फोटोग्राफर ने 8-10 स्नैपस बड़े मनोयोग से निकाले। जिसमें लगभर चार घण्टे लगें। इनमें से पांच चुनिन्दा फोटो फॉर्म के साथ उसने भरकर भेज दिया। 


करीब दो हप्ते के अंदर कांटेस्ट के प्रिलिमिनरी टेस्ट में उसके चुने जाने का लेटर आ गया। अंदर ही अंदर खूब खुश हुई। किन्तु एक चिंता सताने लगी कि प्रदेश की राजधानी में इस प्रतियोगिता का आयोजन होना था। वह जाएगी किसके साथ? स्वयं उसमें इतना आत्मविश्वास नहीं था कि वह अकेली जा सके।

और न ही कोई जाने देगा। आत्मविश्वास तो छोड़िए उसमें इतना साहस भी नहीं था कि अपने पिता से जाकर इस बारे में बात भी कर सके। दिमाग के घोड़े दौड़ाए कि कौन है जो इस समय उसकी मदद कर सकता है। अपने भैया को बोली। उन्होंने भी पिता के नाराज़गी का डर दिखा पल्ला झाड़ लिया।

फिर उसने बड़ी बहन जो कलकत्ता में रहती थी, को बोला। उन्होंने भी अपनी असमर्थता दिखाई। तब उसे अपनी एक अजीज सहेली स्मरण आयी। इत्तेफाक से वह आयोजन होने वाले शहर राजधानी में ही थी। पर अफसोस उसने भी ससुराल में नए होने व अपनी कोई ठोस स्थिति न होने की वजह से सहयोग नहीं दे सकी। अब नम्रता चारो ओर से मायूस हो चुकी थी। किन्तु हर रोज एक बार उस ‘सेलेक्शन लेटर’ को पढ़ना न भूलती थी। 

हाल ही में उसके स्नातक फाइनल का रिजल्ट आया। कुछ ही महीनों बाद उसकी सगाई हो गयी। फिर छः महीने बाद विवाह भी सम्पन्न हो गया। वक़्त यहां भी कुछ कम मेहरबान निकला। नम्रता ज़िन्दगी घसीटने लगी। सामंजस्य बिठाने की हर कोशिश नाकामयाब हुई।

दाम्पत्य अनुकूल बनाने के लिए उसने साम, दाम, दंड, भेद सभी नीतियां अपनायी पर नतीज़ा सिफर रहा। वक़्त गुजरता रहा। ज़िन्दगी में दो बच्चों का आगमन हुआ। निराशा एवं अवसाद की स्थिति में भी उसने बच्चों की परवरिश में अपने को झोंक दिया।

साथ ही साथ यह सोचना भी जारी रखा कि उसे अपनी पहचान भी बनानी है। बच्चे कुछ बड़े हुए तो उसने कुछ प्रोफेसशनल कोर्सेस किये। अपने आगे की पढ़ाई जारी की। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगी। पति व घरवालों द्वारा इस काम मे किसी सहयोग की उम्मीद तो रखनी नहीं थी

बल्कि वह देर रात तक ‘ओवरटाइम’ की तरह अपना ज्ञान-कोष व कौशल बुद्धि बढ़ाने में लगी रही। वर्षों के मेहनत पश्चात एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर के पद पर उसकी नियुक्ति हुई। तीक्ष्ण बुद्धि की नम्रता तो थी ही , बहुत जल्द वह विश्व विद्यालय और विद्यार्थियों के बीच वह लोकप्रिय शिक्षक के रूप में जानी जाने लगी।


उसका व्यक्तिगत अब काफी निखर गया है। बाहर व भीतर से आत्मविश्वास से लबरेज नज़र आती है। उसकी कार्यकुशलता का उसके विभाग में सभी कायल हैं। इन सबके बीच यहाँ तक आते- आते उसे लगभग पन्द्रह वर्षों का सफर तय करना पड़ा है। अब वह कोई सेमिनार एवं कॉन्फ्रेंस अटेंड करने के लिए अकेले जाने में झिझकती नहीं। उसके बच्चे भी स्कूल- कॉलेज में अच्छे स्थान पर आते रहे हैं। 

          वर्षों बाद पिछले सप्ताह नम्रता से जब मैं मिली तो पहचानना आसान नहीं था। क्या यह वही नम्रता है जो बेहद शांत और दब्बू सी दिखती थी। अब तो यह अलग ही बोल्ड आधुनिका दिख रही। उससे गले मिलकर देर तक गप्पे लड़ाती रही। आंतरिक प्रसन्नता हुई

उससे मिलकर। मन ही मन सोच रही थी कि क्या मैंने 15-17 वर्ष पूर्व उसे उस सौंदर्य प्रतियोगिता में कोई सहयोग न कर गलत किया या सही ? वक़्त का पहिया चलते हुए किसे कहाँ से कहाँ पहुचा दे, कोई नहीं जानता। आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ और है।

कई बार इंसान को अपने सपनों से समझौता करना पड़ता है। जीवन में अनेक सम्भावनाएं होती हैं। ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो कई रास्ते खोल भी देता है। किसे पता था कि ग्लैमर के क्षेत्र में जाने की इच्छा रखने वाली लड़की आज शिक्षा के क्षेत्र में नाम कमा रही। आपलोग सोच रहे होंगे कि यह सब बताने वाली मैं कौन हूँ। जी हां! आप सही हैं…. मैं नम्रता की वही राजधानी वाली सहेली शिखा हूँ।

 

  –डॉ उर्मिला शर्मा ।

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