मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी का इंतजार करना स्वाभाविक है।
आज रीमा का साक्षात्कार था। निकलते समय माँ ने दही- गुड़ खिलाकर विदा किया था। बेटी को डाॅक्टर बनाने का निर्णय सुलोचना ने तभी ले लिया था जब डाॅक्टर और इलाज के अभाव में रीमा के पापा का देहान्त हो गया था। जमींदार घराना, पैसे-रुपये की कोई कमी नहीं फिर भी रीमा की माँ सुलोचना देवी अपने पति को बचा न सकी।
मन-ही-मन सुलोचना देवी ने सोच लिया था कि अब गाँव में डाॅक्टर जरूर होगा। डाॅक्टर की बहाली तो होती थी, लेकिन कोई भी डाॅक्टर गाँव में रहना नहीं चाहता था। आता था और चला जाता था। अब शायद सुलोचना देवी की इच्छा पूरी हो जाए।
रीमा आठ साल की थी और बेटा रोहित पाँच साल का।
अब सुलोचना देवी का एकमात्र लक्ष्य बच्चों का भविष्य सवाँरना था। कुछ दिन बाद दोनों बच्चों को लेकर वह शहर में आ गयी और माँ-बाप दोनों बनकर बच्चों की परवरिश करने लगी।
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स्कूली शिक्षा समाप्त होते-होते दोनों बच्चों का रुझान किस क्षेत्र में है इसका अंदाजा सुलोचना देवी को हो गया। बेटे का झुकाव कला की तरफ था तो बेटी का विज्ञान की तरफ। ——-
अपनी शिक्षा की बेहतरी के लिए रोहित विदेश चला गया।———
सुलोचना देवी वहीं बैठी अपने सपनों के बारे में सोचती रही। वह अभी तक अपनी बेटी को अपनी चाहत नहीं बतायी थी।
उसे डर था कि कहीं बेटी भी गाँव के अस्पताल में नौकरी करने से इंकार न कर दे।
तभी दरवाजेकी घंटी बजी और दरवाजे पर रीमा खड़ी थी। रीमा का उतरा चेहरा देख सुलोचना देवी ने पूछा।
“क्या हुआ बेटा?”
माँ, मेरी पोस्टिंग गाँव में हो रही है। मुझे नहीं करना वहाँ नौकरी। मैं यहीं प्राइवेट अस्पताल में ही ज्वाइन कर लूँगी।”
सुनकर सुलोचना देवी वहीं मूर्तिवत खड़ी रही।
” माँ,क्या हुआ? वहीं खड़ी हो? मेरा तो मूड खराब ही हो गया, अब अपना मन क्यों खराबकर रही हो। विश्वास रखो,मुझे अच्छी नौकरी मिल जायेगी शहर में।”
सुलोचना क्या बताती, कि भगवान ने तो मेरी सून ली थी, लेकिन—-, तुम जिसे छोड़कर आ रही हो वहीं तो मेरा सपना था। खैर चेहरा पर स्वाभाविक भाव लाने की कोशिश करती हुई, बेटी के साथ थोड़ा बहुत कुछ खाकर अपने कमरे में चली गयी। आँसू गाल पर लुढ़क आए, ये सोचकर कि शायद अब गाँव में नौकरी करना डाॅक्टरों का अंतिम विकल्प होगा।
थोड़ी देर में रीमा तो निकल गयी अपनी मित्र मंडली में एक निश्चित मंजिल तलाश करने।———
———-देर रात आयी और खाना खाकर सो गयी सुलोचना देर रात तक जागती रही और अपने गाँव को याद करती रही।
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” आप मेरे पापा हो?”
“हाँ”
यहाँ नदी किनारे क्यों बैठे हो?”
देख रहा हूँ, कितने लोग रोज मर रहे हैं।”
“हाँ, तो इसमें नया क्या है?”
“नया? यही है कि कोई इलाज करने वाला नहीं है, वह दर्द से तड़प-तड़प कर मर रहा है।”
“ओह!”
और थोड़ी देर में वहीं वह व्यक्ति दर्द से तड़पने लगा और देखते ही देखते दम तोड़ दिया।
” नहीं !!!! मैं इलाज करूँगी आपका।”
और रीमा की चीख निकल गयी।
“क्या हुआ रीमा?कोई बुरा सपना देख लिया। हाँ माँ,पर अब मैं ठीक हूँ।”
अब रीमा को नींद नहीं आई। घड़ी पर नजर गयी तो सुबह के चार बाजे थे।वह सुबह होने का इंतजार करने लगी।
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“माँ, मुझे जल्दी से नाश्ता दे दो। आठ बजे तक मुझे कैम्पस पहुँचना है।”
” कैम्पस?”
“हाँ, सोचती हूँ ज्वान कर ही लूँ।”
“क्या?”
न रीमा ने सपने की बात माँ को बतायी और न माँ ही अपनी चाहत रीमा को।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।