जोगाराम एवं देवकी दोनों पलंग पर लेटे एक दूसरे को निहार रहे थे दुख और उम्र के कारण कैसे तो उनके चेहरे कुम्हला गये थे। उम्र के निशान उनके शरीर पर अपनी छाप छोड़ रहे थे। तभी जोगाराम बोला देवकी जब तू व्याह कर आई थी कैसी गोरी चिट्टी, छुईमुई सी थी। कितनी सुन्दर थी,मेरा तो मन ही नहीं भरता था तुझे देखने से, लगता था कि बस तू मेरे सामने बैठी रहे और मैं तुझे देखता रहूं और ऊपर से तू हर समय चेहरे पर घूंघट जो डाले रहती थी। घूंघट में से जितना चेहरा दिखता वही देखकर खुश हो लेता था। मां के सामने बात करने की हिम्मत ही नहीं होती थी कैसा टेम था वो भी।
हां दीपक के बापू तुम भी तो कम न दिखते थे।कैसा कसा बदन, लम्बे,गोरे चिट्टे, मुझे भी अपनी किस्मत पर नाज़ होता था कैसा अच्छा पति मिला है मुझे।
मां हमेशा कहतीं थीं मेरा छोरा कैसा वांका जवान है और वर्दी पहनने के बाद तो कितना जंचता है, मेरी ही नजर न लग जाए मेरे बेटे को। साथ रहने से मन ही नहीं भरता था कि तुम्हारी छुट्टी खत्म हो जाती फिर वही एकाकीपन,मन उदास हो जाता।
हां तो मेरी ही कौनसी जाने की इच्छा होती थी जाता था किन्तु मन तो यहीं तेरे पास छोड़ जाता था। कर्तव्य के प्रण से बंधा हुआ था देश पहले और सब बाद में सो जाना जरूरी था।पर लाचारी थी
फिर तीन साल बाद दीपक का जन्म हुआ मुझे तो जैसे जीता -जागता खिलौना मिल गया। मैं तो उसे पालने -पोषने में व्यस्त हो गई। दिन तो बच्चे के साथ और काम में निकल जाता रात को तुम्हारी बहुत याद आती ऐसा लगता मानो उड़कर तुम्हारे पास पहुंच तुम्हारी बांहों में समा जाऊं।ये दूरी सही नहीं जाती थी। कभी कभी तो मन बहुत वैचेन हो जाता पर लाचारी थी, फिर दिन गिनने लगती कब आओगे।
देवकी तुम क्या सोचती हो मेरे को तुम सबकी याद नहीं आती थी।रात को कैम्प में नींद नहीं आती थी लगता था कि कैसे तुम्हारे पास पहुंच तुम्हें अपने आगोश में ले लूं पर देश सेवा मेरा पहला कर्तव्य था सो सब भुला काम में जुट जाता।
जब मैं एक बार आया था तो दीपक एक साल का था कैसे उसकी बाल सुलभ क्रीडायें मन को मोह लेतीं थीं।ऐसी इच्छा होती थी कि उसे बड़ा होते अपनी आंखों से देखूं। उसके साथ खेलूं, उसे ऊंगली पकड़ चलना सिखाऊं। कंधे पर बैठाकर दुनियांकी सैर कराऊं पर यह सब कहां मुमकिन था केवल एक सपना भर था।
हां दीपक के बापू बड़ा प्यारा बच्चा था हमारा।रुप-रंग, कद-काठी में तुम्हारे ऊपर ही गया था। दादी उसकी नजर उतारतीं कहीं मेरे पोते को किसी की नजर न लग जाए। पढ़ने -लिखने में भी होशियार था।हमने कभी उसे किसी चीज की कमी नहीं होने दी।तेरह चौदह वर्ष का रहा होगा जब उसने तुम्हें सेना की वर्दी में देखा तो उसका मन मचल उठा। कैसे बोला था मां देख बापू कितना जंच रहे हैं वर्दी में, मैं भी सेना में भर्ती होऊंगा। मुझे भी ऐसी ही वर्दी मिलेगी मैं भी बापू की तरह दिखूंगा।बस उसी दिन से उसने जिद पकड़ ली मुझे भी बड़ा हो कर सेना में जाना है।
हां देवकी कितना समझाया था उसे पहले पढ़-लिख किन्तु नहीं माना,मात्र बीस बर्ष की आयु में सेना में भर्ती हो गया।
हां दीपक के बापू मैं तो मन ही मन उसकी शादी के सपने संजो रही थी। बेटे के सिर पर सेहरा सजा देखना चाहती थी। मैंने तो अपनी जान पहचान में तीन चार लड़कियां
भी पंसद कर लीं थीं। सोचा था कि इनमें से जो दीपक को जो पंसद आएगी उसी से उसका व्याह रचा दूंगी किन्तु सब धरा रह गया। किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था। यदि उसकी शादी हो गई होती एकाध बच्चा होता तो हमारा जीवन उसके सहारे कट जाता।
नहीं देवकी ये कैसी उल्टी बात सोच रही हो जो हुआ अच्छा हुआ।जरा सोच उस बेटी के बारे में जो जीवन में खिलने से पहले ही मुरझा जाती। उसकी उम्र कैसे कटती। यदि बच्चा न हुआ होता तो कौन उसका सहारा बनता और यदि बच्चा हो गया होता तो उस बिन बाप के बच्चे के बारे में सोच कैसा उसका जीवन होता।हम कितना साथ देते हमारा जीवन तो ढलते सूरज की तरह ढल रहा है कब जीवन की सांझ आ जाए फिर अकेली वह क्या करती।जो हुआ अच्छा ही हुआ।अब तो बस सब्र ही करना है।
अरे देवकी हमारा बेटा तो देश सेवा
करते -करते शहीद हो गया। कितने मान सम्मान से उसका अन्तिम संस्कार हुआ पूरा गांव ही तो उमड़ पड़ा था। सबको कितना गर्व था उस पर। कैसे उसके नाम के नारे लग रहे थे। दीपक जिन्दाबाद,जब तक सूरज चांद रहेगा दीपक तुम्हारा नाम रहेगा,वह मरा कहां है वह तो शहीद होकर अमर हो गया।
देवकी अपने बहते आंसू पोंछते बोली बस अब तो केवल उसकी यादें हैं जो चलचित्र की भांति आंखों के सामने चलती हैं। कैसे भुलाऊं अपने लाल को। कहां से पत्थर का कालेजा लाऊं, केवल पच्चीस वर्ष का साथ ही निभा कर चला गया।
देवकी शहीद के लिए आंसू नहीं बहाते इससे उसका अपमान होता है। गर्व कर तेरा बेटा देश के काम आया।
दोनों एक दम चुप हो गए।खामोशी पूरे वातावरण में छा गई। दोनों ही भावुक हो गए बोलने को कुछ बचा ही नहीं।
फिर जोगाराम उठते हुए बोला चल उठ देवकी हम ही हैं एक दूसरे का सहारा।
देवकी बोली दीपक के बापू हमारा दीपक तो बुझ गया।
नहीं देवकी ऐसे नहीं बोलते वह तो अमर हो गया। उसने तो अपने देश के लिए प्राण न्यौछावर कर दिये।हमारा जीवन तो ढलती सांझ है कब सांसों की डोर टूट जाए।उठो देवकी आओ हम यों हिम्मत नहीं हारेंगे जब तक सांस है जीना है एक दूसरे के लिए। चलो तुम चाय बनाओ मैं तुम्हारी मदद करता हूं। ऐसे ही एक दूसरे का साथ देते उम्र कट जाएगी किसकी आस देखें।
शिव कुमारी शुक्ला
30-1-25
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
शब्द प्रतियोगिता****ढलती सांझ