सन्नाटा – प्रतिमा श्रीवास्तव :  Moral Stories in Hindi

चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था ऐसा लग रहा था की सांसों की आवाज भी कान को भेद रहीं हैं।मजाल है की किसी के मुंह से एक भी शब्द फूटे। आखिर क्या हुआ था सुरेश जी के साथ।जिस

अवस्था में उनकी लाश मिली थी। कहां थे परिवार के लोग और कोई साथ क्यों नहीं था उनके। अंतिम छड़ों में उनका कुछ तो मन कह रहा होगा किसी से कुछ तो कहने का।ऊफ…. ऐसा दिन कभी किसी को ना देखना पड़े।
जितने लोग उतनी बातें।

बात रामनगर कालोनी के सुगंधा अपार्टमेंट की  है। जहां पर सुरेश जी अपने परिवार के साथ बड़ी हंसी – खुशी से रहते थे। आसपास के लोग उनके संस्कार और व्यवहार की हमेशा तारीफ करते रहते थे और उदाहरण भी दिया करते थे की परिवार हो तो ऐसा।

समय के साथ जीवन में बहुत परिवर्तन आता है।अब वो बूढ़े हो चुके थे और घर की बागडोर दूसरी पीढ़ी यानी बेटे – बहू के हांथ में आ गई थी। पति-पत्नी का जब तक साथ होता है जिंदगी बहुत आसान होती है। दुःख सुख सभी साथ साथ कट जाते हैं। दोनों में से एक का साथ तो कभी ना कभी छूटता ही है और वहीं से शुरू होती है अकेलेपन की लड़ाई खुद के साथ। स्त्रियां किसी ना किसी तरह से घर के

कामों में या नाती – पोते की देखभाल में कैसे ना कैसे वक्त काट ही लेती हैं लेकिन पुरुष जो हमेशा से किसी ना किसी औरत पर निर्भर रहता है वो बर्दाश्त नहीं कर पाता है अकेलेपन को।
बच्चों की भी अपनी जिंदगी है, वो भी अपने तरीके से जीवन जीना चाहते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन परिवार के हर सदस्य की भी जिम्मेदारी बनती है ना की सिर्फ अपना – अपना नहीं सोचना चाहिए।

सुमन (बहू) के मायके में कोई प्रोग्राम था, जहां जाना जरूरी था।वो गई तो थी चार दिन के लिए पर बच्चों की छुट्टी थी तो और दिन रुकने का फैसला लिया था। राकेश (बेटा) वो सुरेश जी के साथ ही था। सुबह – सुबह सारे काम करके ऑफिस निकल जाता और देर रात तक आता था।

राकेश ऑफिस जा रहा था तभी सुरेश जी ने उससे कहा था कि,” बेटा जल्दी आ जाना आज तबीयत ठीक नहीं लग रही है।”

” पापा चलिए डॉ को दिखा लाता हूं”

अरे!” नहीं बेटा इतनी भी नहीं खराब है ‌मेरे पास दवाइयां हैं खाकर आराम करूंगा।बहू और बच्चे कब तक आएंगे,खाली घर में बहुत घबराहट होती है” सुरेश जी ने कहा।

“पापा रविवार तक आ जाएंगे।सुमन और बच्चे कहां जा पाते कहीं, आपको पता तो है।घर की जिम्मेदारी की वजह से हम दोनों को समझौते तो करने ही पड़ते हैं ” राकेश की बातों ने सुरेश जी को आहत किया था।

रमा तुम मुझे अकेले छोड़ कर क्यों चली गई? इसी उम्र में तो सबसे ज्यादा जरूरत थी तुम्हारी। किससे कहूं अपने दिल का हाल? बेटा नौकरी में व्यस्त है और बहू भी कामों में।
कभी कभी तो दिनभर में किसी की शक्ल भी नहीं दिखाई देती।ये कमरा जो तुम्हारी उपस्थिति में हमेशा चहल-पहल से भरा रहता था अब इसमें सिर्फ खालीपन और मैं हूं। कभी-कभी लगता है की

तुमने जिंदगी के हर मोड़ पर तो बाजी मारी ही थी यहां भी मुझसे पीछा छुड़ा कर चली गई।
आज तबीयत ठीक नहीं लग रही है। रमेश तो खाना रख कर गया है पर उठा ही नहीं जा रहा है कि कुछ खा लूं।ना जाने क्यों अहसास हो रहा की मैं अब जल्दी ही तुम्हारे पास आने वाला हूं।

रात के नौ बज रहे थे और सड़क की भीड़ – भाड़ की वजह से रमेश को घर पहुंचने में वक्त लग जाता था क्योंकि ऑफिस बहुत दूर था।

रमेश घर में घुसा तो पूरा घर अंधेरे में था। पापा कहां गए?
दो चाभी होती थी घर की एक रमेश के पास एक सुरेश जी के पास।

रमेश को लगा कि पापा अक्सर बागीचे में अपने दोस्तों की मंडली में बैठ जाते हैं तो वक्त का पता ही नहीं चलता है। कोई बात नहीं मैं सब जगह की बत्ती जला कर,हांथ मुंह धोकर दिआ – बत्ती कर देता हूं फिर कुछ बनाता हूं।

सुरेश जी के कमरे में खाने – पीने की आवश्यक सामग्री हमेशा रहती थी और शुरू से परिवार का चलन था दस बजे खाना खाने का रात में।

ये सब करते – करते थोड़ी देर हो गई। पापा कहां रह गए, इतनी देर तो कभी नहीं करते और मेरे वापस आने से पहले हमेशा ही आ जाते हैं। वैसे पापा सुबह कह रहे थे की उनकी तबीयत ठीक नहीं है और मैं भी आज इतना ज्यादा व्यस्त था मीटिंग में एक के बाद एक लगातार मीटिंग ही थी तो हाल खबर भी नहीं पूछ पाया। सोचते – सोचते कमरे में गया और बत्ती जलाने के लिए स्वीच बोर्ड की तरफ हांथ बढ़ाया तो रमेश का पैर किसी चीज से टकराया।

ओह! ” ये क्या हो गया? ” रमेश जोर से चिल्लाया।
सुरेश जी जमीन पर गिरे हुए थे। रमेश ने जल्दी से उठाने की कोशिश की तो हांथ – पैर ठंडा हो गया था।उनकी सांसें बंद हो चुकी थी।

रमेश ने पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया तो सभी भाग कर आए और जल्दी से बिस्तर पर लिटाया गया।पडोस में एक डॉक्टर थे उन्होंने देखा तो मृत्यु घोषित कर दिया।

बेटा  कैसे और कब हुआ ये सब…. तुम कहां थे और बहू कहां है? पड़ोसी कमलेश जी ने एक बार में बहुत सारे सवाल पूछना शुरू कर दिया था।

चाचा जी “मैं तो थोड़ी देर पहले ऑफिस से आया हूं।पता नहीं पापा की मौत कब का हुई है। मेरी ही गलती है मुझे आज नहीं जाना चाहिए था लेकिन पापा ने ही कहा की वो ठीक हैं तो मैं चला गया।”

बेटा” कम से कम हम लोगों को बताया तो होता? हम में से कोई ना कोई उनके पास रहते।इस उम्र में ना जाने क्या कब हो जाए किसी का इंतजार थोड़े ही करती है बीमारी या मृत्यु” बिमलेश जी पड़ोसी ही नहीं छोटे भाई जैसे थे सुरेश जी के। इसी लिए इतनी नाराजगी और फ़िक्र जता रहे थे।

सुमन ” तुम जल्दी निकालो… पापा नहीं रहे हमारे बीच।”
ओह! ” कब कैसे हुआ ये सब? सुमन के हांथ कांप रहे थे फोन पकड़ने में।

इतने में सभी इकट्ठे हो गए थे और एक ही सवाल सबके मन में था की पता नहीं कितना तड़पे होंगे सुरेश जी। अंतिम समय में दो बूंद गंगा जल तुलसी भी नसीब नहीं हुई।
चलो कष्टों का अंत हुआ उनके।इस दुनिया की मोह माया त्याग कर चले गए बेचारे। बड़े अच्छे इंसान थे, हमेशा दूसरों की मदद के लिए आगे खड़े रहते थे और अंतिम समय में कोई नहीं था उनके पास उनका दुख – दर्द बांटने के लिए।

दूसरे दिन सुमन और बच्चे बाकी सभी परिवार के सदस्य आ गए थे। अंतिम संस्कार तो हो गया था पर हर किसी के मन में घोर सन्नाटा पसरा हुआ था किसी  किसी के पास हजारों सवाल थे तो कुछ लोग कुछ भी बोलना नहीं चाहते थे।

बुढ़ापे में अकेलेपन से बड़ा कोई दर्द नहीं है लेकिन क्या किया जाए अब इतना सीमित परिवार होने लगा है कि किसी को किसी के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता जा रहा है।
दोष किसको देना चाहिए वक्त को या हालात को?ये आप पर निर्भर करता है लेकिन प्रश्न वहीं का वहीं है की हमारी जिम्मेदारी तो बनती है की हम हमारे परिवार या अपने आसपास में रह रहे बुजुर्ग के साथ

थोड़ा सा वक्त जरूर बिताएं और अगर नहीं बिता सकते तो उनसे एक बार मिलकर हाल खबर पूछ लें। उनके लिए इतना भी बहुत होता है कि उनकी अहमियत है परिवार और समाज में आज भी है।

आने वाला समय शायद बहुत ही भयानक ना हो जाए जहां अकेलेपन की जद्दोजहद में जिंदगी बेमानी ना लगने लगे।
सुरेश जी तो मुक्ति पा चुके थे इस दुनिया से और जो पीछे रह गए थे उनके मन में ग्लानि भरी हुई थी क्योंकि कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी जिम्मेदार थे उनकी मौत के लिए नहीं क्योंकि जीवन और मृत्यु का समय निर्धारित रहता है ईश्वर की तरफ से। बस जाने वाला इंसान अंतिम पलों में अपने सामने अपने परिवार को देखकर जाना चाहता है।

समय के ऊपर सबकुछ छोड़कर और ईश्वर पर विश्वास करते हुए हम यही दुआ मांगते हैं की परिवार हमेशा साथ रहना चाहिए एक दूसरे के दुख और सुख में। वरना पछताने के सिवा कुछ भी नहीं रहेगा हमारे हांथ में।

                                प्रतिमा श्रीवास्तव
                                नोएडा यूपी

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