संघर्ष – बेला पुनिवाला

एक औरत का पूरा जीवन संघर्ष ही तो है, अपने जीवन में कई उतर-चढाव वो चुप रह के सह जाती है, ऐसा ही कुछ मेरी कहानी की लक्ष्मी और उसकी माँ के साथ हुआ था। 

      लक्ष्मी अपने माँ-बाप की बड़ी लड़की थी, लक्ष्मी के जन्म से घर में सब खुश तो थे, मगर मन ही मन सब आस लगाए हुए थे, कि लड़का हो, लेकिन लड़की हुई। सब ने फिर से मन बना लिया कि ” चलो, कोई बात नहीं इस बार नहीं तो, दूसरी बार तो लड़का ही होगा। ” उसकी माँ ने उसका नाम लक्ष्मी रखा था। देखते ही देखते लक्ष्मी ३ साल की हो गई तब, बड़ी मन्नौतों के बाद लक्ष्मी की माँ को एक लड़का हुआ, सब की ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा, लक्ष्मी को भी लगा, कि मेरा भाई आया है, अब हम दोनों साथ में खेलेंगे, लेकिन लक्ष्मी के हिस्से के प्यार, दुलार सब बाँटने लगा,

वो छोटी थी, मगर वो सब देखती थी, समझती थी, बार-बार उसे अपने भाई के करीब जाने से भी रोक दिया जाता, कहते हुए कि भाई अभी छोटा है, बड़ा होगा तब उसके साथ खेलना, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ और एक दिन अचानक लक्ष्मी के पापा एक्सीडेंट में मर गए, अब घर की सारी ज़िम्मेदारी लक्ष्मी की माँ पर आ गई। इस दरमियान लक्ष्मी के दादाजी भी अचानक एक दिन गुज़र गए। अब घर में लक्ष्मी की माँ, उसका भाई और उसकी दादी ही थे। दादी अक्सर बीमार ही रहती थी। सिलाई मशीन घर में ही था तो, लक्ष्मी की माँ घर का काम निपटा के सिलाई का काम करती,

नए-नए डिज़ाइनर कपड़े बनाना धीरे-धीरे उसे अच्छे से आ गया। लक्ष्मी की माँ वह सब कर लेती, उस में से अच्छे खासे पैसे भी मिल जाते। साथ में लक्ष्मी और उसके भाई की टूशन फ़ीस वो नहीं भर सकती थी, इसलिए बच्चों को खुद ही पढ़ाया करती, ऊपर से सासुमा की सेवा अलग। लक्ष्मी स्कूल से घर आकर अपने भाई को सँभालती और माँ का छोटे-मोटे काम में हाथ भी बँटाती। अपनी बीमार दादी को भी वह दवाई, चाय, पानी, नास्ता दे देती। लक्ष्मी की समझदारी देखकर उसकी माँ की आँखों में अक्सर आंँसू आ जाते। छोटी सी उम्र में बेचारी कितना कुछ समझती है। धीरे-धीरे लक्ष्मी बड़ी होने लगी, लक्ष्मी पहले से ही दिखने में सुंदर और संस्कारी लड़की थी, इसलिए उसके लिए शादी के रिश्तें आने लगे, अच्छा सा लड़का देखकर लक्ष्मी की माँ ने उसकी शादी तय कर दी। 




     लक्ष्मी ने तब अपनी माँ से कहा, कि ” आप को ऐसी हालत में अकेले कैसे छोड़कर जाऊँ ? मैं आप के साथ ही रहूंँगी, मुझे नहीं करनी किसी से शादी।”

     तब लक्ष्मी की माँ ने उसे समझाया, कि ” तू मेरी फ़िक्र मत कर, तेरी अपनी भी तो ज़िंदगी है, कब तक तू युहींँ मेरा साथ देती रहेगी, एक ना एक दिन तो तुझे जाना ही होगा और अब तो तेरा भाई भी एक-दो साल में अपनी पढाई के बाद कमाने लगेगा, फ़िर सब ठीक हो जाएगा। मैं तुझे कहती थी ना, कि एक दिन तेरे लिए राजकुमार आएगा और तुझे महलों में ले जाएगा। तो समझलो वो राजकुमार आ ही गया। देखते ही देखते लक्ष्मी की बारात आ ही गई और जाते-जाते लक्ष्मी ने डोली में से एकबार मुड के अपने घर को देखा और थोड़ा रोते हुए, आँखों में ढ़ेर सारे सपने लेकर अपने पति के साथ ससुराल चली गई।        

       मगर लक्ष्मी के सपने बस कुछ ही दिन के लिए सच हुए, ससुराल जाने के बाद कुछ दिन सब ने नई बहु के साथ बहुत अच्छा रखा, उसके पति ललित ने भी। मगर कुछ दिनों बाद लक्ष्मी पे काम का बोझ बढ़ने लगा। उसके पति ललित की जॉब चली गई, ललित बैंक में जॉब करता था, बैंक में कुछ घोटाला हुआ था, जिसका इलज़ाम ललित पे लगा था और दो ही दिन में उसे नौकरी से निकाल दिया गया, अब नौकरी जाने की वजह ऐसी थी, की उसे और कहीं बैंक में नौकरी नहीं मिल रही थी। लक्ष्मी इतना पढ़ी-लिखी नहीं थी, की उसे अच्छी नौकरी मिल सके। लक्ष्मी के घर में उसके सास-ससुर, उसकी छोटी ननंद और छोटा देवर भी था, जो अभी पढ़ रहे थे और उनकी पढाई की ज़िम्मेदारी भी ललित पे ही थी, ललित के पापा जो कभी सरकारी नौकरी करते थे, जो अब रिटायर हो चुके थे, उनके पेंशन से घर चल जाता था, मगर बाकि का खर्चा निकालना मुश्किल था। ललित के कहने पे लक्ष्मी ने सिलाई काम करना शुरू कर दिया, जो उसने अपने मायके में अपनी माँ से थोड़ा बहुत सिख लिया था। सब को लक्ष्मी के हाथ के सिले हुए कपड़े बहुत अच्छे लगने लगे, अब उसके पास वक़्त ही नहीं रहता, घर का काम करो, फिर सिलाई काम। इन्हीं बीच जैसे-तैसे करके ललित की नौकरी भी लग गई, तो थोड़ा अच्छा लगा, लक्ष्मी ने सिलाई का काम जारी रखा, उसका वक़्त भी उस में कट जाता। दिन बीतते गए देखते ही देखते लक्ष्मी को भी एक लड़का और एक लड़की हो गए, लेकिन अपने तजुर्बे के हिसाब से उसने लड़का और लड़की में कोई फर्क नहीं रखा। लक्ष्मी की ननंद और देवर की भी शादी आई, तो उसके भी सारे शादी में पहनने के नए कपड़े सब कुछ लक्ष्मी ने ही सील कर दिए, बस काम में वह अपना पूरा दर्द भूल जाती, कुछ वक़्त के बाद लक्ष्मी की सास को कैंसर हुआ, उसकी देखबहाल में उसका थोड़ा काम छूट गया, मगर तीन महीने में ही सासुमा चल बसे, काम का बोझ लक्ष्मी पे और बढ़ गया, क्योंकि उसकी सास घर का काफी काम सँभाल लेती थी, उसकी देवरानी नौकरी करती थी तो, सुबह वह टिफ़िन लेकर चली जाती, शाम को देर से आती, तब तक घर का सारा काम हो जाता, फिर भी लक्ष्मी ने कभी फरियाद नहीं की। उस से जितना हो सके कर दिया करती। 




     इतना कम था, कि एक दिन उसके पति ललित को पैरालिसिस हो गया, उसके देवर ने तो अस्पताल का पैसा देने से साफ इंकार कर दिया, कि ” मेरे पास इतना पैसा नहीं है।” लक्ष्मी ने अपनी सिलाई के पैसाे में से निकालकर अस्पताल का खर्चा उठाया, क्योंकि ललित का सारा पैसा दो भाई-बहन की पढाई और शादी के खर्चे के बाद कुछ खास बचा नहीं था। अब ऐसे में लक्ष्मी ने अपने पति की सेवा की, घर का काम किया और साथ में अपना सिलाई का काम भी शुरू किया।           

         कुछ वक़्त के बाद ललित भी ऐसे ही एक दिन सुबह अचानक चल बसा। लेकिन लक्ष्मी ने तब भी हिम्मत नहीं हारी। ललित की बीमारी के बाद ही उसके देवर-देवरानी अपना हिस्सा लेकर अलग हो गए थे, लक्ष्मी ने अपने दोनों बच्चों की परवरिश अच्छे से की थी इसलिए बेटी की शादी के बाद उसका बेटा उसे अच्छे से रखता था और लक्ष्मी ने अच्छी सी लड़की देख़कर अपने बेटे की भी शादी कर दी। बहु भी पढ़ी लिखी थी, इसलिए वह भी नौकरी करती थी इसलिए बहु और बेटे दोनों टिफ़िन लेकर सुबह से नौकरी पे चले जाते, पीछे से लक्ष्मी आज भी पूरा घर सँभाल लेती, उसकी बहु उसे सिलाई का काम करने से मना करती, मगर वह फिर भी अपना सिलाई का काम भी करती है, कहते हुए कि ” उसे अब सिलाई का काम करना अच्छा लगता है और उसका वक़्त भी कट जाता है। ” 

    अब लक्ष्मी को काम की आदत सी हो गई थी, बेटा और बहु अच्छे थे और लक्ष्मी का अच्छे से ख्याल रखते थे। इसलिए अब उसे अपनी संघर्ष भरी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। लक्ष्मी से जितना हो सके उतना वह आज भी अपने बेटे और बहु के लिए करती, उसकी बहु और उसकी बेटी के कपड़े भी वही सील दिया करती। उसकी बहु को भी उसके सिलाई किए हुए कपड़े अच्छे लगते। 

   सपनों का राजकुमार ऐसा सिर्फ सपनो में होता है, असल ज़िंदगी में औरत की ज़िंदगी में संघर्ष ही है और कुछ भी नहीं।  

     तो दोस्तों, ये सिर्फ एक लक्ष्मी और उसकी माँ की कहानी नहीं, मगर हर घर में शायद एक लक्ष्मी ऐसी होती है, जिसने अपने परिवार के लिए, अपना पूरा जीवन संघर्ष में ही बिताया हो। हांँ, वह एक औरत है, इसलिए उसे आदत सी हो जाती है, ऐसे संघर्ष के साथ जीने की।

स्व-रचित 

#संघर्ष 

बेला पुनिवाला

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