संदेह का घेरा –    मुकुन्द लाल

  जयंत ने बेवजह अच्छी खासी बनी हुई मूर्तियों को डंडे के वार से तोड़ दिया। उसकी पत्नी पुष्पा पहले हैरत से देखती रह गई, फिर वह सहन नहीं कर पाई, वह उबल पड़ी, ” पागल हो गये हो? दिमाग खराब हो गया है, क्यों तुमने मूर्ति तोड़ दिया?”

  “हांँ!… मैं तोड़ दूँगा!… मेरा कोई दिल तोङेगा, बेवफाई करेगा तो उसको खाक में मिला दूंँगा, अपने घर-संसार में आग लगा दूंँगा” कहते-कहते उसकी आंँखें छलछला आई लेकिन उसने आंँसूओं को आंँखों के कोरों से बाहर नहीं निकलने दिया।

 ” बिना मतलब के क्यों बक-बक कर रहे हो? अपना भी दिमाग खराब कर रहे हो, मेरा भी। मिट्टी की एक मूर्ति तैयार करने में कितना मेहनत लगता है और समय भी। कितनी सुन्दर मूर्ति बन गई थी, दुबारा बना पाओगे वैसी ही…”

  ” तुमने बनाई थी?… मैंने बनाई थी, मैंने तोड़ दिया… मेरी मर्जी। “

  उसकी दहकती आंँखों से क्रोध की चिनगारियां निकल रही थी। गुस्से में कांपते हुए जयंत को देखकर पुष्पा वहांँ से हट गयी।

  जयंत उस इलाके का प्रसिद्ध मूर्तिकार था। उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों की चतुर्दिक प्रशंसा होती थी। उसका अधिकांश समय मूर्तियों को बनाने और बेचने के व्यवसाय में ही व्यतीत होता था। 

  उसे मूर्ति-कला से बेहद लगाव था। पहले मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण करना उसका शौक था, बाद में यही कला उसका व्यवसाय बन गया, रोजी-रोटी का जरिया बन गया।

  दुनिया के सारे सुख-दुख से विरक्त होकर वह इतने मनोयोग और आस्था के साथ अपना काम ठीक उसी प्रकार करता था, जैसे सच्चे भक्त ईश्वर की अराधना में डूब जाते हैं, अपने को समर्पित कर देते हैं, कुछ इसी अंदाज में वह मूर्तियाँ बनाता था। यही कारण था कि निर्मित मूर्तियाँ सजीव मालूम पड़ती थी। दर्शक अपलक उसकी सुन्दरता को निहारते रह जाते थे। कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता था कि मूर्तियाँ अब बोल पड़ेगी।

  कई बार उसके उत्कृष्ट कृतियों को पुरस्कृत कर उसे सम्मानित भी किया गया था।

  वह गणेश पूजा, सरस्वती पूजा, दशहरा, दीवाली… आदि त्योहारों के लिए भी घर पर देवी-देवताओं की  प्रतिमाएं बनाता था और किसी के बुलावे पर भी दूर-दूर जाकर इस काम को संपन्न करता था। दशहरा और दीवाली में तो इतना व्यस्त रहता था कि उसे खाने तक की फुर्सत नहीं मिलती थी। ऐसी ही परिस्थितियों में एक युवक शीतल उससे आकर मिला था मूर्ति-कला सीखने की नीयत से। वह सिखाने के लिए राजी हो गया था, तब से वह उसी के साथ उसके घर में रहता था। 

  नई रोशनी में पली बढ़ी पुष्पा को यही व्यस्तता उसकी बोरियत का कारण था। वह अपनी पत्नी को समय नहीं दे पाता था किन्तु उसको वह बहुत प्यार करता था। उसका प्यार अंतर्निहित था। वह फिल्मी हीरो की तरह प्यार में सराबोर संवाद उसके सामने भले ही नहीं बोलता था किन्तु तहे दिल से वह पुष्पा से मोहब्बत करता था। हालांकि वह ताने भी मारती थी, उलाहना भी देती थी कि शादी हुए कई वर्ष बीत गये, इतने वर्षों में स्थानीय ऐतिहासिक और दर्शनीय स्थलों राजगृह, पटना गया… आदि का भ्रमण नहीं करा सके तो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता,बंगलोर जैसे खूबसूरत शहरों को देखने का आनंद मेरे नसीब में कहांँ से संभव होगा। 


  एक बार उसकी पत्नी ने चिढ़कर कहा भी था कि मूर्ति बनाते-बनाते वह खुद एक सुन्दर मूर्ति बन गया है, जिसके अंदर दिल धड़कता भी है या नहीं, उमंग-उत्साह उसमें संचारित होता भी है या नहीं। 

  तब उसके पति ने खिसियाकर कहा था, 

“वकील ऐसा बहस मत करो।… मैं अपनी जिम्मेदारी समझता हूँ, अगर काम नहीं करूँगा तो रोजी-रोटी कैसे चलेगी… फिर घर भी आधा-अधूरा बना हुआ है।” 

  ” बहाना बनाना कोई आपसे सीखे, सभी लोग घर बनाते हैं, धंधा करते हैं, पर्यटन करने वाले लोग भी निठल्ले, बेकार और निकम्मे नहीं होते हैं। “

 ” अभी गणेशजी की प्रतिमाएं बना रहा हूँ, फिर तुरंत मांँ दुर्गा की प्रतिमाओं को बनाने में लगना पड़ेगा, उसके बाद लक्ष्मीजी की, यह सिलसिला कार्तिक माह तक चलेगा। तुम्हीं बताओ मैं क्या करूंँ!… तुम जब कह रही हो तो उसके बाद सोचूंँगा” कहते हुए उसने प्यार से उसकी कलाई पकड़कर अपनी ओर खींचना चाहा। 

 ” छोङिये मुझे!… यह जवाब तो सुनते-सुनते मैं ऊब गई हूँ ” कहती हुई नाराज होकर वहांँ पर से चली गई। 

  इस तरह के वाद-विवाद अक्सर इस मुद्दे पर होते ही रहते थे। 

  उस दिन वह मांँ दुर्गा की प्रतिमा बनाकर बाहर से कई सप्ताहों के बाद घर लौटा था। घर में दाखिल होते ही उसने देखा कि चारों तरफ सन्नाटा है। उसके कदम अनायास ही छत पर जाने के लिए बनी हुई सीढ़ी की ओर बढ़ गये। 

  जब वह छत पर पहुंँचा तो उसने देखा कि उसकी पत्नी और शीतल आपस में हंँसी-मजाक कर रहे हैं, इस दौरान वह पुष्पा की कलाई पकड़ लेता है, पुष्पा भी भावविहव्ल होकर हंँस रही थी। जयंत ने दोनों को देख लिया था किन्तु वे दोनों जयंत को नहीं देख सके क्योंकि उनका चेहरा, उसके विपरीत दिशा में था। 

  उसके कदम ठिठक गए। वह खामोश रहकर बिना आहट किये हुए आहिस्ता – आहिस्ता  वह सीढ़ी से नीचे उतर गया। 

  उसके जेहन में संदेह(शक) का कीड़ा रेंगने लगा। उसके दिमागी पटल पर संदेह की उर्मियांँ बनने बिगड़ने लगी। 

  वह कुछ पल के लिए बेंच पर बैठा, लेकिन बैठा नहीं रह सका, बेचैन होकर इधर-उधर चहलकदमी करने लगा, फिर वह कमरे के अंदर बिस्तर पर लेट गया। वह सोचने लगा कि उसकी पत्नी गलत रास्ता अख्तियार नहीं कर सकती है किन्तु दूसरे ही क्षण उसके दिमाग में विचार आया, हो सकता है मेरी अनुपस्थिति में वह शीतल के साथ रंगरेलियांँ मनाती हो। ऐसे विचारों के आते ही वह अशांत हो गया। 


  जिस शीतल को मूर्ति-कला के बारे में शिष्यवत उसकी बारीकियों को समझाता था, उस दिन उसकी कल्पना मात्र से उसका हृदय क्रोधाग्नि से झुलसने लगा। 

  वह बर्दाश्त नहीं कर पाया। बिस्तर से उठकर चीख उठा, ” पुष्पा!… कहांँ हो?” 

  उसकी कड़कती आवाज सुनकर वे दोनों तेजी से नीचे चले आये। 

  उसने शीतल को आंँखें लाल पीला करके देखा। वह उसको गुस्से में देखकर वहांँ से खिसक गया। 

  ” कब आये आप?” मधुर स्वर में पुष्पा ने पूछा। 

  ” तुमको मेरी परवाह थोड़े ही है!… मुझे आये हुए आध घंटे से अधिक हो गये। तुम्हारा तो कहीं अता-पता भी नहीं था” उसने क्रोध में कहा। 

  उसने पानी भरा ग्लास उसके सामने रखा, फिर चाय-नास्ता की तैयारी में जुट गई। 

  इस घटना के बाद जयंत के आचरण में बहुत बड़ा बदलाव आ गया। वह पुष्पा को शक भरी नजरों से देखने लगा। जिस शीतल को मूर्ति-कला में निपुण बनाना चाहता था, उसको देखते ही उसकी आंँखें गुस्से से लाल हो जाती थी। शांत रहने वाला जयंत बात-बात पर पुष्पा से झगड़ा करने लगा। मूर्तियों के प्रति लापरवाह हो गया। अपना गुस्सा निर्माणाधीन मूर्तियों को तोड़ कर उतारने लगा। कभी वह शीतल के प्रति उग्र रूप अपना लेता। किसी कार्यवश पुष्पा और शीतल पास-पास रहते तो उनकी गतिविधियों पर कड़ाई से नजर रखता था। उनके हर कार्यकलाप को शंका की नजर से देखता था। जरा भी आशंका होने पर उसका दिमाग संदेह के घेरे में कैद हो जाता था। वह बेचैन हो उठता था। उसका असंतोष कभी-कभी इतना उग्र हो जाता था कि वह शीतल के खून कर देने का स्वप्न भी देख लेता। उसकी सोच और शंका का दायरा आकाश से पाताल तक की दूरी तय कर कर लेता लेकिन अंत में एक ही बात उसकी उग्रता को दबा देती कि पुष्पा शायद उसके साथ विश्वासघात नहीं कर सकती है। 


  इसी उठा-पटक की परिस्थितियों में उसने निर्णय लिया कि सङे हुए पान को कतरकर अलग कर देने में ही भलाई है। वह शीतल को किसी बहाने जवाब दे देगा, उसे हमेशा के लिए अपने घर से हटा देगा। न रहेगा बांँस न बाजेगी बाँसुरी। 

  जयंत ने इस प्रस्ताव को पुष्पा के सामने उस समय रखा जब शीतल किसी काम से घर से बाहर गया हुआ था। लेकिन पुष्पा ने इसका जोरदार ढंग से विरोध किया। 

  उसके विरोध करते ही उसके दिमाग में शक के कीड़े फिर से रेंगने लगे। वह अशांत हो उठा। शनै-शनै वह फिर संदेह की गिरफ्त में फंँस गया। 

कई महीनों के उसके व्यवहार और चालढाल से पुष्पा को सारी बातों का आभास हो गया था। उसने जयंत को विनम्रतापूर्वक कहा, ” आपको भ्रम हो गया है। आपने मेरे बारे में ऊल-जलूल बातें कैसे सोच ली। आपके नहीं रहने पर इधर-उधर की सरस व रोचक बात-चीत करके, थोड़ा हंँसकर, बोल-बतियाकर मन हल्का कर लेती थी बोरियत दूर करने के लिए। आपकी गलती नहीं है। टी. वी. कई महीनों से खराब है, जिसको आपको बनवाने की फुर्सत तक नहीं है।… छीः!… आपका दिमाग इतने निचले स्तर तक सोच सकता है, मैंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। शीतल मेरा भाई जैसा है। “

  शीतल बाजार से लौटते वक्त दोनों को बातें करते देखकर कमरे के बाहर ही ठहरकर उनकी बातचीत सुन ली थी। 

 यकायक प्रकट होकर शीतल ने कहा,” हांँ!… 

जयंत बाबू हम दोनों के बीच दिल का रिश्ता है 

लेकिन प्रेमी-प्रेमिका का नहीं भाई-बहन का है। 

देर मत करो बहन कल जो बाजार से अपने सहोदर भाइयों के यहाँ भेजने के लिए जो राखियाँ मंगवाई है आपने, उसमें से एक राखी मेरी कलाई में बांधो… मुंँह मत देखो, जो कह रहा हूंँ वह करो। “

  पुष्पा ने राखी लाकर शीतल की कलाई में बांध दी। 

  शीतल ने जयंत से कहा,” सभी सिक्के खोटे नहीं होते हैं। “

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

#दिल_का_रिश्ता

                 मुकुन्द लाल 

                  हजारीबाग (झारखंड) 

                    22-07-2022

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