संवेदना – अर्चना सक्सेना : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : जब से माँ ने फोन पर रो रोकर बताया कि पापा का बुखार बिगड़ गया था और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है संध्या मायके जाने के लिये बेचैन हो उठी थी। पापा की तबियत पिछले चार पाँच दिन से खराब चल रही थी और संध्या सुबह शाम फोन पर उनका हालचाल लेती थी।

इधर उसकी ससुराल में दीवाली पर हर साल धनतेरस वाले दिन दीवाली पार्टी का आयोजन होता था और इस बरस तो सुमित और संध्या की विवाह पश्चात ये पहली दीवाली थी तो पार्टी में धूमधाम भी अधिक होने वाली थी।

संध्या को आननफानन में यों बैग सँभालते देख सुमित ने हैरानी से पूछा-

“कहीं जा रही हो?”

“हाँ आपको बताया था न कि पापा का बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। आज तो उन्हें अस्पताल में एडमिट करना पड़ा है। माँ बहुत परेशान हो रही हैं, अभी कार से निकलूँगी तो तीन घंटे में पहुँच जाऊँगी। आप चलेंगे मेरे साथ?” 

“अरे पर हमारी पहली दीवाली है इस बार और कल घर में पार्टी भी है। दीवाली बाद चलते हैं न..”

“पर उन्हें हमारी जरूरत अभी है सुमित। अगर सब ठीक रहा तो दीवाली वाले दिन वापस भी आ सकते हैं शायद। पार्टी बाद में कर लेंगे।”

“तुम्हारा भाई है तो वहाँ… वह मैनेज कर लेगा। हमारे यहाँ पार्टी हर साल धनतेरस वाले दिन ही होती है इसलिए कल है… और मम्मी कह रही थीं कि बहू की पहली दीवाली है तो धूमधाम तो होगी…”

“आप पहले से जानते थे कि पापा बहुत बीमार हैं, आपको तो खुद मुझसे उन्हें देखने जाने के लिये कहना चाहिए था। चलो आपको नहीं जाना न सही पर मुझे क्यों रोक रहे हो? आपने ये दीवाली पार्टी कल रखी ही क्यों? वो भी मुझसे पूछे बिना?”

इस बार संध्या का स्वर तेज हो गया तो मम्मी जी भी दौड़ी दौड़ी वहाँ आ गयीं। 

अब सुमित भी क्रोध से फट पड़ने को तैयार था

“तो अब हम लोगों को अपने घर पर पार्टी करने के लिये भी तुम्हारी परमीशन लेनी पड़ेगी? कुछ नया नहीं कर रहे हम, हमारे घर में हर साल धनतेरस पर दीवाली पार्टी धूमधाम से मनायी जाती है और आगे भी ऐसा ही चलेगा। तुम चाहो तो इसे घर की परम्परा ही समझ लो। मेरी ही पत्नी अपनी पहली दीवाली पार्टी में नहीं होगी तो कैसा लगेगा मेहमानों को?”

“मत भूलिये कि ‘मैं सिर्फ आपकी पत्नी ही नहीं किसी की बेटी भी हूँ।’ आपको पार्टी करनी है तो

शौक से करिये न आप लोग पार्टी! निभाइये अपनी परम्परा! मैं तो पहले भी कभी नहीं होती थी आपकी पार्टी में। एक बार और सही, मुझे जो जरूरी लग रहा है मैं वही करूँगी।”

इसबार मम्मी जी बोल पड़ीं-

“ये कैसी बातें कर रही हो तुम बहू? तुम्हारी तो पहली दीवाली है हमारे घर में, और घर की लक्ष्मी ही नहीं रहेगी पार्टी में तो लोग कितनी बातें बनायेंगे? देखो अभी तुम कहीं नहीं जा रही हो, दीवाली बाद आराम से कुछ दिन रहने चली जाना, फिर भाईदूज भी तो मायके में मना पाओगी। वैसे भी पापा की चिंता करने की जरूरत नहीं है, तुम्हारे पापा अब अस्पताल में हैं, तुम जाकर कर भी क्या लोगी? जो इलाज करेगा वो तो डॉक्टर करेगा, तुम यहाँ का त्योहार खराब करके चली भी जाओगी तो वहाँ कोई चमत्कार तो हो नहीं जायेगा।”

मम्मीजी ने फरमान सा  सुना दिया। 

“मम्मीजी मुझे लक्ष्मी बनने का कोई शौक नहीं है, साधारण इंसान ही बने रहकर अभी बेटी का फर्ज निभा लेने दीजिए। मुझे जबरदस्ती रोककर एक बेटी की संवेदनाओं को कुचलिये मत। मुझे पत्थरदिल बनने पर मजबूर मत कीजिए।”

“इस बात का क्या मतलब है बहू? हम तुम्हें पत्थरदिल बना रहे हैं? मुँह मत खुलवाओ मेरा… अरे ससुराल के लिये तो तुम आजकल की लड़कियाँ पहले से ही पत्थरदिल हो। तुम्हारा दिल तो बस मायके के लिये ही धड़कता है। सारी संवेदना वहीं के लिये है तुम्हारे भीतर। शादी को साल भर होने को आया पर तुम्हारे दिल में हमलोग तो जगह बना ही नहीं पाये। अरे जगह बनेगी भी कैसे पूरे दिल में तो बस मायका ही मायका बसा है। कल लोगों को क्या जवाब देंगे हम, हमारी इज्जत की भी कोई परवाह है तुम्हें?”

सासुमां ने आँखें तरेरीं।

“मम्मी जी हमारे समाज में लोगों को हमेशा बहुओं से ही शिकायत रहती है कि वह ससुराल को अपना घर नहीं समझ पातीं और हमेशा मायके वालों को अहमियत देती हैं। अरे ऐसा नहीं होता… आप भी तो अपना समझने की वजह दीजिये पहले! जरा सोचिये कौन सी बेटी अपने पिता की इतनी बीमारी के बावजूद चेहरे पर मुस्कान बिखेरकर घर आये मेहमानों का स्वागत कर पायेगी? मैं अगर रुक भी गयी तो भी आप लोगों को मुझसे ये शिकायत रहेगी कि मेरा मुँह पूरे टाइम मेहमानों के आगे लटका ही रहा। मैं दिल से चाहती हूँ कि आप सब हमेशा स्वस्थ रहें पर भगवान न करे अगर मेरे पिता की जगह इस समय पापाजी बीमार होते तो भी क्या आप लोग अपनी ये पार्टी की चली आ रही परम्परा निभाते?”

संध्या के ऐसा कहते ही सुमित आगबबूला होकर गरजा-

“त्योहार के मौके पर कुछ भी अनापशनाप बोल रही हो तुम संध्या,  पापा के बारे में ऐसा सोचने की हिम्मत भी कैसे हुई तुम्हारी?”

“तेरे पापा को और मुझे अपना मानती ही कब है ये! मैं तो पुराने जमाने की सास जैसी हूँ भी नहीं, बिना बात कभी कुछ नहीं कहती इसे, लेकिन आजकल की बहुओं को हम कितना भी लाड़प्यार कर लें पराये घर की लड़कियों के दिल से परायापन जाता ही नहीं, ये तो हमेशा पराया ही समझती हैं ससुराल वालों को।”

अब मम्मीजी का सुबकना भी शुरू हो गया था।

“क्या हो रहा है यहाँ पर?”

अचानक ससुर जी की रौबीली आवाज गूँजी।

वह चुपचाप कब बाहर से वहाँ आकर खड़े हो गये थे किसी को पता नहीं चल सका था।

“अरे और क्या होना है, संध्या ने हमारी बात न मानने की कसम खा रखी है, कल धनतेरस की पूजा के बाद हमेशा की तरह मेहमानों को बुलाया था घर पर, लेकिन इसे तो अभी अपने मायके जाने की पड़ी है, कहती है पापा बीमार हैं। जैसे यही जाकर ठीक कर लेगी उन्हें।”

सासुमाँ ने संध्या की शिकायत लगाई तो ससुर जी बोले-

“तो गलत क्या कहती है संध्या? मित्तल साहब कई रोज से बीमार तो हैं ही, और अगर अब अस्पताल में एडमिट भी हैं तो इसे फिक्र तो होगी ही, यह बेटी है उनकी, जाना तो चाहेगी ही पिता को देखने। और वह भी तो इसे देखना चाह रहे होंगे, हो सकता है वह इसे देखकर जल्दी ठीक भी हो जायें।”

“अरे तो हमने भी कहाँ रोका है इसे? भाईदूज पर तो हम वैसे भी जाने दे ही रहे थे संध्या को जबकि अपनी पल्लवी भी आ रही है मायके। आप ही बताइये जब खुद की बेटी आ रही हो तो बहू को कौन भेजता है मायके? लेकिन मैं तो खुद इसकी खुशी का ध्यान रखती हूँ,  इसे ज्यादा कुछ कहती ही नहीं हूँ पर इसका मतलब ये तो नहीं कि हमेशा ये अपनी ही मर्जी चलायेगी। दीवाली पूजा तो घर की लक्ष्मी को घर में ही करनी चाहिए न, इसकी तो वैसे भी पहली दीवाली है।”

“कुछ न कहने का दावा करके भी कितना कुछ तो कह देती हो तुम मालती, और ये सुमित तो अपना दिमाग लगाता ही नहीं कभी। जो माँ ने कह दिया बस वही इसके लिए सही। मित्तल साहब हमारी बहू के पिता हैं और वो पहले से बीमार थे तो पार्टी अभी टाली भी जा सकती थी।सबको इन्वाइट करने से पहले मुझसे भी मशवरा नहीं किया तुम लोगों ने।”

“अरे पर इसमें मशवरा क्या करना था, आपको पता तो है ये तो हमलोग हर साल इसीदिन करते आये हैं……और मित्तल साहब तो इस शहर में भी नहीं रहते हैं फिर…..।”

“शहर में रहते होते तो ज्यादा आसान होता क्योंकि तब संध्या अबतक जाकर मिल आयी होती उनसे। उसे तसल्ली भी हो जाती। पर बेटियाँ जब दूर होती हैं तो उनका दिल और भी धड़कता रहता है मायके के लिये। अपनी पल्लवी भी तो ऐसी ही है। और सौ बात की एक बात… हमारे घर हर साल जो होता आया है जरूरी नहीं कि आगे भी हमेशा वही होता आये, समय के साथ तो कितनी ही परम्पराओं तक में बदलाव हो जाते हैं यहाँ तो सिर्फ एक पार्टी की बात थी।

संध्या बिल्कुल ठीक कहती है हम सभी बहू को घर की लक्ष्मी कहते जरूर हैं लेकिन अपने घर की लक्ष्मी की भावनाओं का सम्मान तक नहीं करते। उसकी छोटी से छोटी इच्छा पूरी करते समय भी अहसान जताना नहीं भूलते, अब देखो पल्लवी आ रही है तो संध्या को मायके भेजते समय तुमने अहसान जताया न जबकि भाई दूज पर अपने भाई को टीका करना उसका हक है। अगर मित्तल साहब बीमार नहीं होते तो तुम संध्या से उसके भाई को यहीं बुलाने को कहतीं क्योंकि तुम्हारी बेटी आ रही है।”

इतना कहकर उन्होंने संध्या की ओर देखा। वह आँखों में कृतज्ञता और सम्मान लिये उन्हें ही देख रही थी।

“जाओ संध्या बेटी अपना सामान पैक कर लो, और ये सुमित भी तुम्हारे साथ ही जायेगा, तुम्हारे पापा तुम दोनों को देखकर कितना खुश होंगे और देखना दीवाली से पहले ही ठीक होकर घर आ जायेंगे। हँसी खुशी दीवाली और भाई दूज मनाकर आओ फिर बढ़िया सी पार्टी दीवाली के बाद रखेंगे इस बार।”

“जी पापा! और अगर पापा सचमुच ठीक होकर दीवाली से पहले घर आ गये तो मैं और सुमित भी दीवाली वाले दिन आकर आप लोगों के साथ ही पर्व  मनायेंगे।”

“फिर तुम्हारा भाई दूज का त्योहार?”

“उसदिन भइया को बुला लूँगी फिर। “

मुस्कुरा कर कहती हुई संध्या अपने कमरे में चली गई। मालती जी पति के आगे कुछ कह न सकी थीं पर उनका मुँह बन गया था। अब उनके पति ने उनसे पूछा

“नाराज हो?”

“मेरे घर की दीवाली खराब करके मुझसे ही पूछ रहे हैं कि मैं नाराज हूँ? वैसे आपको क्या फर्क पड़ता है, आप तो कुछ मानते नहीं, चिंता तो मुझे हो रही है कि इसबार लक्ष्मी जी हमसे रूठ न जायें जो उनके सत्कार में कमी रह गयी। बहू तो बहू आपने तो बेटे को भी त्योहार पर घर से जाने को कह दिया।”

“देखो मालती, यदि हमारे घर की लक्ष्मी प्रसन्न और संतुष्ट हो तो लक्ष्मी माता हमसे कभी रूठ ही नहीं सकतीं। सच ये है कि हममें से अधिकतर लोग दिखावे के लिये ही बहू को गृहलक्ष्मी कहते हैं जबकि वे अपनी ही गृहलक्ष्मी की भावनाओं का सम्मान तक नहीं करना जानते। बात बात पर ताने मारना, तंज कसना, क्या यह सब हम कभी लक्ष्मी माता के साथ कर सकते हैं? नहीं न? तो अपनी गृहलक्ष्मी के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? विवाह दो परिवारों को जोड़ने का काम करता है। जरा बहू के परिवार के लिये भी थोड़ा संवेदनशील बनकर तो देखो, फिर कभी बहू से ये शिकायत नहीं होगी कि परायी लड़की हमेशा परायी ही रहेगी। सच्चाई यह है कि हम स्वयं भी उसे कभी अपने परिवार का अभिन्न अंग नहीं समझ पाते हैं और उसे उसके परिवार से भी दूर कर देना चाहते हैं, और तो और फिर शिकायत भी उसी से करते हैं।”

“शायद आप ठीक कह रहे हैं, पता नहीं मैं आपकी तरह क्यों नहीं सोच पाती! पर अब से मैं भी स्वयं को बदलने का प्रयास करूँगी।इस दीवाली मैंने सीखा है कि जीवन में अपनों के लिये संवेदनायें अधिक और शिकायतें जितनी कम होंगी जीवन उतना ही सुंदर होगा।”

इसी के साथ वो दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा दिये। त्योहार का आगमन अधिक खूबसूरत हो गया था।

         अर्चना सक्सेना

          गाजियाबाद

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