बहू……., तेरे ससुर जी की खिचड़ी में थोड़ा और घी डाल दे ….. वो ऐसी लुखी खिचड़ी नहीं खा पाते। आशा जी प्यार से समझाते हुए अपनी बहू संध्या से बोलीं। संध्या ने कुढ़ते हुए एक चम्मच घी खिचड़ी में डाल दिया लीजिए.. डाल दिया घी… और भी कुछ डालना हो तो बता देना… वैसे भी आपको क्या जोर आता है घर खर्च बढ़ता है तो बढ़ता रहे…..ऊपर से बीमार हो गए तो मेरा ही काम बढ़ेगा…। आशा जी कुछ बोल तो नहीं पाईं लेकिन अंदर ही अंदर उनका आत्मसम्मान छिन्न भिन्न हो रहा था। ……. उनके पति पांच साल पहले ही अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके थे। अब उम्र के साथ तबियत भी नासाज रहने लगी थी… अब पति और खुद के बुढ़ापे को काटने के लिए उन्हें एक ही रास्ता नजर आता था कि बहू के कड़वे बोल भी शरबत समझ कर पी जाओ…. बेटा आकाश भी अपने माता पिता की तकलीफ को ना समझकर पत्नी का ही पक्ष लेता था….। आशा जी खिचड़ी लेकर कमरे की ओर बढ़ रही थीं कि देखा अरविंद जी दरवाजे पर ही खड़े हैं…… उनके चेहरे को देखकर आशा जी समझ गईं कि उन्होंने सब सुन लिया…..। आशा जी ने ध्यान बंटाते हुए कहा, अजी…. बहुत देर हो गई है…. आइये खाना खा लीजिए…. गर्मी का मौसम है ना इसलिए बहू बोल रही थी कि घी से हाजमा खराब हो जाएगा……।
अरविंद जी अपनी पत्नी की बेबसी समझ सकते थे लेकिन उन्हें अच्छा नहीं लगता था कि वो रोज – रोज बहू के हाथों अपना मान मरवाती रहे… । उन्होंने आशा जी के पास बैठते हुए कहा, तुम्हें याद है भाग्यवान…. जब हमारी शादी हुई थी तो मेरी तनख्वाह सिर्फ एक हजार रुपये थी। … उस वक्त तो हमारे पास अपना घर भी नहीं था… फिर भी हम कितने खुश रहते थे….. तुम्हारे हाथों की बनी सूखी रोटी भी हम दोनों बड़े चाव से खा लेते थे…। आशा जी भी उन दिनों की यादों में खो गई… बहुत तंगी के दिन दोनों ने साथ में काटे थे…फिर भी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी…. बहुत सी मीठी यादें थीं उन दिनों की। साधन भले ही कमी थी लेकिन एक दूसरे का साथ हर कमी को पूरा करने के लिए पर्याप्त था …। सच कहते हैं वैसे तो इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती लेकिन यदि मन संतुष्ट हो तो तन भी संतुष्ट रहता है ….तभी तो आज भी उन दिनों को याद करके चेहरे पर अफसोस नहीं बल्कि संतुष्टि के भाव उभर आते थे……।
अरविंद जी फिर बोले..आकाश के पैदा होने हम कितने खुश हुए थे । उसके नन्हें कदम हमारे जीवन में पड़ने के बाद हमारा जीवन भी बदल गया। पैसे कमाने की लालसा में वो सुकून कहीं खो गया…. फिर तो पकवानों में भी वो सूखी रोटी का स्वाद नहीं आता था…। आशा जी की आंखों में भी वो दिन चलचित्र की भांति घूमने लगे ।….. किस तरह दिन रात अरविंद जी काम में लगे रहते थे ताकि अपने बेटे को एक अच्छा भविष्य दे सकें। ….. सारा जीवन इसी भागदौड़ में निकल गया…. अब अपना घर भी था और बेटा भी पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी में लग गया था। आशा जी नम आँखों से बोलीं, हाँ जी… मुझे सब याद है….. लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी आज हमें वो सम्मान की सूखी रोटी नसीब नहीं हो रही…।,, तुम जी छोटा मत करो भाग्यवान….. हम सम्मान की रोटी जरूर खाएंगे…
ये दो मंजिला मकान मैंने अपने खून- पसीने से बनाया है..। नीचे के आधे मकान में हम रहेंगे और आधा किराये पर दे देंगे….। जो भी पैसे आएंगे उसमें हम सम्मान की सूखी रोटी तो खा ही सकते हैं….। बस तुम वादा करो कि जितना भी होगा तुम पहले की तरह उसमें ही गुजारा कर लोगी….।,, आशा जी ने अरविंद जी के हाथों पर हाथ रखकर कहा, जी जरूर …. मैं पूरी कोशिश करूंगी….। उनके चेहरे पर आज भी पहले वाली संतुष्टि और स्वाभिमान के भाव उभर आए थे..।
#स्वाभिमान
सविता गोयल