समधी का आसन – मुकुन्द लाल

    विनायक अपने पुत्र सोनू के साथ अपनी भगनी की शादी में अपने जीजाजी के घर पहुंँचा था। अपनी पत्नी के अस्वस्थ रहने के कारण वह उसे नहीं ला सका था इस शादी के सामारोह में, किन्तु अपने इकलौते पुत्र की जिद्द के आगे उसे झुकना पड़ा, अंत में उसे अपनी यात्रा में शामिल कर लिया था।

  वहांँ पहुंँचने पर उसके जीजा युवराज ने हाल-सामाचार पूछने और नास्ता-पानी की औपचारिकता निभाई। उसके बाद उसके जीजा दूसरे कामों में व्यस्त हो गए। विनायक भी बिना किसी के कहे, अपना फर्ज समझकर शादी के कार्यों में सहयोग करने लगा। उसका पुत्र भी वहीं बैठकर घर में चल रही गतिविधियों को देख रहा था।

  घर रिश्तेदारों और आमंत्रित लोगों से भरा हुआ था। 

  सभी स्त्री-पुरूष नये-नये डिजाइन की महंगी पोशाक धारण किये हुए थे। उनकी पोशाक से विनायक के कपड़ों की कोई तुलना ही नहीं थी। इसके कपड़े पुराने डिजाइन के और सस्ते थे। अपनी औरअपने पुत्र की वेशभूषा मामूली रहने के कारण वह अच्छा महसूस नहीं कर रहा था।

  देखते-देखते कैसे शाम हो गई उसे पता नहीं चला। रंग-बिरंगी सीरीज बल्वो की आकर्षक व कलात्मक सजावट में युवराज का आलिशान विल्डिंग जगमगा उठा। प्रकाश का ऐसा प्रबन्ध था कि रात में भी दिन की तरह चारों ओर उजाला ही उजाला था।

  रिश्तेदारों और आमंत्रित लोग समूह बनाकर हंँसी-ठिठोली कर रहे थे। कुछ लोग आनंद में मगन होकर इधर-उधर चहलकदमी कर रहे थे।

  बारात भी धूम-धाम से गाजे-बाजे के साथ निकली। फिल्मी गानों पर बजने वाले बाजों की धुन पर नवयुवकों का दल नृत्य प्रस्तुत कर इस बारात को यादगार बना दिया।

  विनायक ने युवराज से कहा, “बारात दरवाजा लग ही गई है, अब बरातियों और सरातियों के खाने का कार्यक्रम शुरू कर दीजिए ताकि शादी की रस्म शुभ मुहूर्त में शुरू की जा सके।”

  “क्या आप खिलाने की रट लगाना शुरू कर दिए, क्या हम बाराती-सराती को भूखा रखेंगे?… अजीब हाल है, आपको भूख लगी हुई है तो जाइए सबसे पहले आप ही खा लीजिए और अपने बेटे को भी खिला दीजिए… “

 ” मेरे कहने का आप गलत अर्थ… “

 ” चुप रहिए! “तैश में युवराज ने कहा, फिर बड़बड़ाता हुआ दूसरे कार्यों को निबटाने में लग गया।

  अपने जीजा द्वारा कही गई अप्रत्याशित कड़वी बातें उसके सीने में नश्तर की तरह चुभने लगी किन्तु वह मन मसोस कर रह गया यह समझकर कि शादी का घर है, उसकी बातों का जवाब देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।

  विनायक सोनू को साथ लेकर भेंट-मुलाकात करने की नीयत से घर के अन्दर की ओर बढ़ा लेकिन उसकी बहन सुभद्रा को सिर खुजाने की भी फुर्सत नहीं थी।


  बरातियों और सरातियों के भोजन करने के बाद शादी के कार्यक्रम की तैयारियाँ शुरू हो गई। पंडित जी शादी में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों को व्यवस्थित करने लगे। 

  शादी के मंडप में दूल्हा अपने पिताजी और अन्य रिश्तेदारों के साथ पहुंँच गया। युवराज आवश्यक सामानों के प्रबंध करने में व्यस्त था। विनायक उसके कामों में सहयोग देने की मंशा से उसकी ओर आगे बढ़ा तो उसके जीजा ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कटाक्ष किया,

“आप और आपके पुत्र ने भोजन कर लिया न!”

  “हांँ!… थोड़ा आपके काम में सहयोग कर देता हूँ।”

  “ना! ना!… भोजन करने के बाद आराम करना चाहिए विनायक जी!… आराम कीजिए जाकर, मुझे सहयोग करने के लिए दर्जनों लोग मौजूद हैं” उसने बेरूखी से कहा।

  शादी की रस्म की सारी तैयारियाँ पूरी हो गई। महिलाएं मंगल गीत गाने लगी। दूल्हा और उसके पिताजी ने पारम्परिक रीति-रिवाज के अनुसार अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया पंडित जी के निर्देश मिलते ही।

  उसी समय पंडित जी ने कहा,” यजमान!… लड़की के पिताजी अभी तक नहीं पहुंँचे हैं”

  उस घर के एक बुजुर्ग ने कहा, “हमारे यहाँ बहुत पुराने समय से लड़की की शादी में समधी के आसन पर लड़की के पिता को बैठने की परम्परा नहीं है, उस आसन पर लड़की के मामा ही अक्सर बैठते हैं या कोई नजदीकी अभिभावक तुल्य रिश्तेदार भी बैठ सकते हैं।

  विनायक के चेहरे पर हर्ष की लकीरें उभर आई। उसने अपने मन में सोचा कि वह तो लड़की का मामा है ही। उसकी देह में स्फूर्ति बिजली की तरह दौड़ने लगी। उसने तुरंत अपने साथ खासकर शादी के मौके पर पहनने के लिए एक सिलकन कुर्ता लाया था।

पहले उसने धोती पहन ली। इस काम में कम उम्र का सोनू भी अपने हिसाब से तैयार होने में  अपने बापू को मदद करने लगा। वह अपने बेग से सिलकन कुर्ता निकालने ही जा रहा था कि उधर से युवराज अपने मामा के साथ जो बेशकीमती कपड़े धारण किए हुए थे, मंडप की ओर बढ़ रहे थे।

  इसी बीच किसी ने दबी जुबान से युवराज के के कान में कह दिया कि समधी के आसन पर बैठने के लिए विनायक तैयारी कर रहा है। 

  जब युवराज की नजर विनायक पर पड़ी तो उसे बहुत गुस्सा आया किन्तु अपने को संयत करते हुए कहा, “आपको किसने कहा तैयार होने के लिए, समधी के आसन पर बैठने के लिए… आपका दिमाग काम नहीं करता है तो दूसरों से राय ले लीजिए… अपनी बहन से ही पूछ लेते…”

  “आपके घर के लोगों ने ही कहा कि समधी के आसन पर मामा ही बैठेंगे…”

  “चुप रहिये!… मामा सिर्फ आप ही हैं, हमारी रिश्तेदारी में भी मामा हैं। “

 युवराज के मामा ने कहा,” भाई!… इस छोटी सी बात के लिए वाद-विवाद करना उचित नहीं है, ऐसी शुभ घड़ी में शोभा नहीं देता है।… विनायक जी को ही बैठने दीजिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है…”

 ” मुझे फर्क पड़ता है मामाजी!… हर आदमी की अपनी मर्यादा और गरिमा होती है… आदमी देखकर ही किसी महत्वपूर्ण आसन पर किसी को विराजमान होने के लिए आमंत्रित किया जाता है। “


  सारे रिश्तेदार और अन्य आमंत्रित लोग मौन होकर इनके बीच चल रहे विवाद को देख रहे थे।

 ” मुझे पता नहीं था युवराज बाबू कि मेरे प्रति आपके दिल में इतनी नफरत का जहर भरा हुआ है, अगर ऐसा ही था तो आपको मुझे आमंत्रित नहीं करना चाहिए था।… मैं अपनी भगनी की शादी में समधी के आसन पर कैसे बैठ सकता हूँ, मैं गरीब आदमी जो ठहरा… ठीक है आपके घर की शादी है, जैसा आप चाहें, वैसा करें… शादी आपको मुबारक हो। “

  बगल में गुमशुम बैठे उदास-उदास  से सोनू

 अपने पिता के दिल में लग रहे अपमान के विषबुझे तीर की चुभन वह भी महसूस कर रहा था। 

  विनायक के सिर से पानी गुजर चुका था। 

  उसने सोनू से कहा,” उठो सोनू! “कहते हुए उसने उसका हाथ पकड़ लिया था फिर उसने कहा,” जहांँ आदमी की बेइज्जती हो, अपमान हो, वहाँ एक पल भी ठहरना गुनाह है।” 

  उसके इस कदम से युवराज शान्त पड़ गया। वह तो कुछ नहीं बोला किन्तु अन्य लोगों ने रुकने के लिए आग्रह किया। 

  सुभद्रा को इस घटना की जानकारी जब मिली तो वह दौड़ी आई वहांँ पर यह कहती हुई, “यह क्या हो गया भाई!… इस शादी की शुभ बेला में। “

 ” जीजा जी से ही पूछो, क्या हुआ?…” 

“आजकल इनका दिमाग सठिया गया है, हमेशा इनके मुंँह से कटु बातें ही निकलती है, बिना सोचे समझे जो मन में आता है, बोल देते हैं।” 

  कुछ पल तक खामोशी छायी रही। 

जिसको भंग करते हुए सुभद्रा ने कहा,” रुक जाओ भाई!… “

 ” नहीं दीदी!… यहांँ पर पानी पीना भी मेरे लिए मुश्किल है।… नमस्कार! ” कहते हुए बेग लेकर वह अपने पुत्र के साथ आवेश में धनुष से छूटे हुए तीर की तरह घर से बाहर निकल गया। 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                 मुकुन्द लाल 

                  हजारीबाग (झारखंड

 

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