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पिछले अंक ( 11 का अन्तिम पैराग्राफ •••••••
सभी जानते थे कि यह व्यक्ति झूठ बोल रहा है लेकिन चूंकि वह भी बहुत घायल था और इस घायल अवस्था में डॉक्टर अधिक कुछ पूॅछने की इजाजत नहीं दे रहे थे। उसके शरीर से बहुत खून बह चुका था, वह बार बार बेहोश हो जाता था। इसलिये यह निर्णय लिया गया कि उसके स्वस्थ होने के बाद आगे की पूंछताछ की जायेंगी।
अब आगे •••••••
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मीडिया, समाचार पत्र, टेलीविजन पर यह ” आपरेशन सरफरोश ” छा गया। पुलिस ने सुरक्षा की दृष्टि से मीडिया को केवल मृतक और घायल पुलिस कर्मियों की फोटो ही प्रसारित करने की आज्ञा दी। अपराधियों के मरने और घायल होने की कोई सूचना मीडिया को नहीं दी गई। मीडिया को यही जानकारी दी गई कि सभी अपराधी पकड़े गये हैं और पुलिस उनसे पूॅछताछ कर रही है, शीघ्र ही पूरा गिरोह पकड़ लिया जायेगा।
पुलिस अधिकारियों का विचार था कि शायद अपने साथियों के बारे में सही जानकारी न होने पर अपराधी कुछ ऐसी ग़लती कर दें जिससे उन्हें पूरे गिरोह को पकड़ने में मदद मिल सके।
विपक्षी पार्टियों द्वारा पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठाये गये कि शायद पुलिस जान बूझकर अपराधियों के बारे में सही जानकारी नहीं दे रही है। पुलिस के द्वारा दिये गये उत्तरों से राजनैतिक पार्टियॉ और मीडिया कोई भी सन्तुष्ट नहीं थे लेकिन सबने अपने होंठ पूरी तरह से सिल लिये थे।
यहॉ तक ढाबा संचालक से भी सच्चाई जानने का बहुत प्रयत्न किया गया लेकिन उन सबने एक ही बात कही कि उन सबको पहले ही पकड़ कर पुलिस जीप में बैठाकर भेज दिया गया था। इसलिये वे लोग नहीं जानते कि क्या हुआ। गोली चलने, चीखने और भागने की आवाजें ही उन्होंने सुनी हैं।
पुलिस, मीडिया और राजनैतिक पार्टियों के इतना शोर मचाने के बाद भी जनता के मध्य समाधि और शशांक हीरो बन गये जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बिना सफलता प्राप्त की। यहॉ तक कि इस गिरोह से पीड़ित व्यापार मंडल ने समाधि और शशांक को सम्मानित करने का भी कार्यक्रम बना लिया।
मीडिया के माध्यम से सब कुछ जानकर शशांक, समाधि और एकलव्य के परिवार वाले आ गये। उन सभी की ऑखों में ऑसू तो थे लेकिन उन्हें अपने बच्चों पर गर्व भी था।
सबको आश्चर्य था कि इतना सब होने के बाद एक बार भी न तो एकलव्य का फोन आया और न ही उसने गिरीश, अनन्त, रत्ना या मौली का फोन उठाया। सब उसे फोन कर करके थक गये। समाधि ने हमेशा के लिये अपने सीने में एक राज दफन कर लिया।
उसने अपने और एकलव्य के घर वालों को तसल्ली दी कि ठीक होने के बाद वह सबके साथ दिल्ली चलेगी और ओम का पता लगायेगी।
भागे हुये बदमाश का कुछ भी पता नहीं चल पाया। कुछ दिन बाद किसी मछुआरे को गंगा में वह मोटरसाइकिल मिल गई जिसे लेकर एकलव्य भागा था। उसी दिन रेलवे लाइन पर मिली लावारिस लाश के टुकड़ों और मोटरसाइकिल से पुलिस कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ पाई। बहुत प्रयत्न करने पर भी बदमाशों के गिरोह के बारे में कुछ भी पता नहीं चला। पुलिस फाइल में यह राज हमेशा के लिये दफन हो गया क्योंकि अस्पताल से थाने ले जाते समय भागने की कोशिश करते समय मुठभेड़ में वह घायल बदमाश भी मारा गया।
अब पुलिस ने सारे मारे गये बदमाशों के बारे में मीडिया को सब कुछ बता दिया। पुलिस पर फिर सवाल उठाये गये कि पुलिस अब भी बहुत कुछ छुपा रही है। पुलिस की ईमानदारी पर भी संदेह किया गया लेकिन धीरे धीरे सब ठीक हो गया। सबसे आश्चर्यजनक बात यह हुई कि लखनऊ और उसके आसपास सरफरोश गिरोह की गतिविधियॉ समाप्त हो गईं। समाधि और शशांक के बचाव में जनता और व्यापार मंडल आ गया कि यदि इन ऑफीसरों पर किसी भी प्रकार की अनुचित कार्यवाही हुई तो वे सब भी इसका प्रतिउत्तर देंगे।
अभी समाधि पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी लेकिन उसके अस्पताल से घर आते ही सब लोग एक साथ दिल्ली गये। एडवोकेट राहुल और एकलव्य एक ही फ्लैट में रहने लगे थे। दिल्ली जाकर उन्हें पता चला कि एडवोकेट राहुल अक्सर एक या दो महीने या पन्द्रह दिनों के लिये कहीं चले जाया करते थे। असिस्टेंट बनने के बाद वे एकलव्य को भी साथ ले जाने लगे। उन लोगों के घर कभी कोई नहीं आता था और न वे दोनों किसी से मतलब रखते थे।सबको ताज्जुब हो रहा था कि इन लोगों ने इस बारे में अपने घर वालों को क्यों नहीं बताया? बहुत दिन तक राहुल का फोन न आने के कारण उसके घरवाले भी आये थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ये दोनों अचानक कहॉ गायब हो गये।
हारकर दोनों परिवारों ने पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी। पुलिस को उनके फ्लैट में भी ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे संदिग्ध कहा जा सके।
समय बीत रहा था लेकिन न राहुल वापस आये और न ही एकलव्य । पुलिस में रिपोर्ट लिखाने पर भी कोई फायदा नहीं था। दोनों परिवारों के अभिभावक सोंच भी नहीं सकते थे कि उनके बच्चे ऐसे अपराधी कार्यों में संलिप्त हैं। घर वालों की खुशी के लिये समाधि सब कर तो रही थी लेकिन वह तो जानती ही थी कि एकलव्य और राहुल कभी वापस नहीं आयेंगे। हर बार एक ही आश्वासन मिलता कि थोड़े दिन इन्तजार कीजिये, आ जायेंगें।
राहुल के परिवार में बूढे माता पिता को छोड़कर कोई न था। आखिर दोनों परिवार निराश होकर किसी चमत्कार की प्रतीक्षा करने लगे।
पूर्ण स्वस्थ होने के बाद शशांक और समाधि के साथ आपरेशन सरफरोश की पूरी टीम अपने उन सभी साथियों के घर गये जो आपरेशन के दौरान शहीद हो गये थे। सब से बुरी हालत हवलदार अमरेन्द्र के घर की थी। अमरेन्द्र अपने घर का अकेला कमाने वाला सदस्य था। उसकी पत्नी की बेटे को जन्म देने के बाद मृत्यु हो गयी थी। किसी तरह दादी उसे पाल रही थीं लेकिन अमरेन्द्र की मृत्यु की खबर सुनकर उनका बांया अंग पक्षाघात का शिकार हो गया। अमरेन्द्र के बूढे पिता न तो पत्नी को सम्हाल पा रहे थे और न ही बच्चे को। समाधि से उस घर की हालत देखी नहीं जा रही थी।
उसने और शशांक ने अपनी जेब के सारे पैसे निकाल कर बूढ़े पिता के हाथ में रख दिये। हालांकि वह ले नहीं रहे थे लेकिन समाधि ने उनके दोनों हाथ पकड़ कर सिर से लगा लिया – ” अमरेन्द्र देते तो क्या आप न लेते? मैं कोशिश करूंगी, बहुत जल्दी आपको अमरेन्द्र की पेंशन मिलने लगेगी और कोई भी परेशानी हो तो बताइयेगा, हम सबसे जो भी हो सकेगा, जरूर करेंगे।”
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समाधि (भाग-13) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर