यूँ तो अरसा बीते बिछड़े हुए,फिर क्यों आज दर्द दिल पर याद बनकर दस्तक दे रहा है। मैं तो अकेले ही तन्हाई की सूनी पगडंडी पर चल पड़ी थी। मँजिल व सुकून की तलाश में ।खुद से अपनी मुलाकात करने ।एक पहचान बनाने क्योंकि संजू के साथ रहकर मैंने अपने आप को ही खो दिया था ।
यूँ तो बात कुछ भी नहीं और समझो तो बहुत कुछ। मेरी भावनाओं को सन्जू ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की ।शादी से पहले देखे गए सपनों को पहली ही रात आभास हो गया था कि उनका अंजाम क्या है, जब घबराते हाथों से काँच का गिलास टूटने पर संजू ने कहा ….
“इतना महँगा सेट बर्बाद कर दिया। अपनी माँ के यहाँ से लाई थी क्या “?…मैं आँखों में हैरानी के भाव लिए उस जेंटलमैन को देख रही थी जो सभ्य समाज का सभ्य हिस्सा था ।दिल ने तो तभी उस जेंटलमैन को ईमानदारी से नकार दिया। तब मां बहुत याद आयी ।
पर माँ थी कहाँ?न यहाँ । न वहाँ ।संजू भी यहाँ अकेला ही था और मैं वहाँ ।चाचा चाची पर मैं और कितने दिनों तक बोझ बने रहती ।उन्होंने पढ़ा लिखा कर इस लायक बना दिया था कि जरूरत पड़ने पर मैं अपना पेट भर सकूँ ।
जिन बच्चों की माँ नहीं होती वे कम उम्र में बड़प्पन का परिचय देते देते समझ ही नहीं पाती कि कब उनकी समझदारी खामोशी में तब्दील हो जाती है ।मेरी मासूम आँखों में मेरे अरमान कैद होकर रह गए । उस रात आँसुओं के प्रवाह में बह गए सब मान मेरे,
टकटकी बाँधे दूर खड़े देखा किए अरमान मेरे। संजू के लिए मैं चाबी वाली गुड़िया बन कर रह गई थी ।जिससे वह जब चाहे अपना मन बहलाते रहता और फिर उसे दरकिनार कर देता। हाँ गुड़िया ही तो थी क्योंकि शायद दिल धड़कना भूल रहा था ।
फिर भी बात बात पर उसका यह उलाहना ….”तुम अपने माँ के घर से लेकर आई थी क्या “?मेरा कलेजा छलनी कर देता ।पर किससे कहती ।बस खुद से ही खुद की बात कहती और खुद ही खुद को तसल्ली दे देती । अपनी किस्मत में यही लिखा समझ
नए सिरे से जुट जाती। पर उस रोज तो हद हो गई। पड़ोस में बबीता आंटी के यहाँ कुछ मेहमान आए थे। आंटी की रिक्वेस्ट पर मैंने उन्हें दोपहर में अपने यहाँ आराम करने के लिए एक रूम दे दिया क्योंकि हमारा तीन बेडरूम का फ्लैट था ।
मैं बेडरूम में आराम करने चली गई। मुझे क्या पता था अगले पल जो होने वाला है वह मेरी जिंदगी का रुख ही बदल देगा ।थकी‐ हारी होने की वजह से झपकी लगी ही थी कि जोर से चिल्लाने की आवाज आई । आकर देखा तो मेरे होश उड़ गए ।
संजू मेहमानों पर गुस्से से आग बबूला हो रहा था ।मैंने कुछ कहना चाहा तो वह पलटा और सबके सामने उसका हाथ मुझ पर उठ गया ।यह तमाचा गाल से ज्यादा दिल पर लगा था ।गाल में पाँचों ऊँगलियों की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी ।
पर दिल पर जो छपी थी वह किसी को क्या दिखती। सारे लोग चले गए ।मैं सकते की हालत में वहीं खड़ी की खड़ी रह गई ।जबान मानो गूंगी हो गई ।आँखें सूनी।और तभी मेरे दिल ने एक निर्णय ले लिया ।हसरतों के रोशनदान को मैंने कस कर बँद कर दिया
ताकि प्यार की रोशनी और उम्मीद की किरण भीतर प्रवेश ना कर सके ।फिर कोई शब्दों का बाण बिंध नहीं पाएगा ।अकेलेपन के अंधेरे में दिल के दरवाजे व कान भी साउंडप्रूफ होने चाहिए ।इतने ज्यादा कि खुद की भी आवाज कहीं दूर से आती हुई प्रतीत हो ।
खुद की ही चीख बेगानी सी लगे ।मैंने अपना सामान पैक किया व चल पड़ी अनजाने सफर की ओर ।रिश्तो के शव पर आँसुओं की एक माला चढ़ाकर औपचारिक श्रद्धांजलि दे दी मैंने ।अब यह सुकून तो था कम से कम कि मुझे यह तो सुनना नहीं होगा कि …..”माँ के यहाँ से लाई थी क्या?”
विजया डालमिया