सहेली – भगवती सक्सेना गौड़

आज रीना चालीस वर्ष बाद अपने बचपन के शहर झांसी में कुछ सहेलियों के साथ घूमने आई, बहुत अच्छा लग रहा था । हर मोहल्ले , चौराहे को देखकर उसका नाम याद आ रहा था, बहुत कुछ बदल गया था, फिर भी पहचानने में मुश्किल नही हो रही थी।

दिल मे दबी ढकी एक इच्छा हमेशा से थी कि बचपन की घनिष्ठ सहेली से मिलना है, जिसके साथ साथ क्लास में बैठे, रोज एक दूसरे के घर आते जाते रहे, फिर रीना दिल्ली आ गयी, कुछ दिन पत्र आते रहे, बाद में सब अपनी जिंदगी में खो गए। फेसबुक में ढूंढती रही, नही मिली।  फिर अब कुछ लोगो ने झांसी का प्रोग्राम बनाया, रीना मना नही कर पाई ……….।

जल्दी से जल्दी वो अपनी सहेली आस्था से मिलना चाहती थी, उसका एड्रेस भी नही था, बस उसके भाई का फ़ोन नंबर था, मिलाया, किसी और ने उठाया । रीना ने पता पूछा और सीधे घर के सामने पहुच गयी । घर के बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे, उसमे उसे आस्था के बचपन का रूप दिख गया, पास जाकर पूछ बैठी, “तुम्हारा नाम क्या है, तुम्हारी मम्मी का नाम जरूर आस्था होगा।” बच्ची एक अनजान को नाम नही बताना चाहती थी पर अपनी मम्मी का नाम सुनकर चौक गयी। उसको पकड़कर घर के अंदर ले गयी, आस्था के भाई ने रीना को पहचाना, बैठाया। आस्था ने कहा,” मैं बहुत दूर से सिर्फ आस्था अपनी सहेली से मिलने आई हूं, प्लीज जल्दी बुलाये।”



भाई रुआंसे होकर बोले , “अरे तुम जहां से आई हो, उससे हज़ारो लाखो गुना दूर मेरी बहन चली गयी, उसकी ब्रेन ट्यूमर से 2005 में ही जान चली गयी।”

लगा चक्कर आ जायेगा, वहां बैठने की या खड़े रहने की हिम्मत ही नही बची, और रीना उसकी बेटी को भरपूर निगाहों से देखकर आंखों में आंसू लेकर अपने शहर वापस आ गयी।

स्वरचित, मौलिक

भगवती सक्सेना गौड़

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