“इस उम्र में आ कर आपको क्या सूझी है, आपको पैसों की कमी है तो हमसे ले लीजिये, पर इस तरह हमारी इज्जत का मजाक न उड़वाएं, आपको हमेशा आगे बढ़ कर सहारा दिया है, फिर भी आपने एक बार न सोचा, आपके निर्णय से हमें कैसा लगेगा “बेटे की अदालत में माँ कठघरे में खड़ी थी।
सर झुकाये, बेटे -बहू की बात सुन कर,सर उठा बोली “बेटा, मै कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ, और मुझे सहारा नहीं, साथ चाहिए, अभी मेरी बूढ़ी हड्डियां इतनी कमजोर नहीं है कि मुझे किसी का सहारा चाहिए, मुझे बात करने, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और कर्मठ बने रहने का साथ और प्रोत्साहन चाहिए, तुम दोनों तो सुबह के गये शाम को आते हो,तुम्हारे बच्चे बड़े हो गये, अब उन्हें मेरा सहारा नहीं चाहिए, उनकी अपनी दुनिया बन गई,घर में हर काम के लिये नौकर है,मै अपना समय कैसे व्यतीत करूँ, मेरे पास बैठने या दो बोल बोलने के लिये किसके पास समय है “…??
खाने की टेबल पर सन्नाटा छा गया, सदा की शांत माँ, आज अपने आक्रोश को दबा नहीं पा रही थी। कुछ साल पहले श्याम जी, ऊषा जी का साथ छोड़ गये थे । इकलौते बेटे मयंक उन्हें अपने साथ ले आया, बहू निशा भी नौकरी करती थी, तब बच्चे छोटे थे, बेटे -बहू को माँ का सहारा और ऊषा जी को बच्चों का सहारा मिल गया। जिंदगी सामान्य गति से बढ़ रही थी, पिछले एक साल से ऊषा जी का मन उचट गया, कारण -बेटे -बहू की ऑफिस में बढ़ती व्यस्तता, बड़े होते पोते -पोती की अपनी दुनिया में अब दादी की कहानियों की जगह नहीं रह गई।
सामने वाले घर में पडोसी कुटीर उद्योग चलाती थी, जहाँ पापड़, अचार, जैम, आदि बना कर बेचे जाते थे।वहाँ से आती आवाज अक्सर उनको खींच ले जाती थी,काम के प्रति उनके लगाव को देख कर एक दिन पड़ोसन ने उनसे कहा “आप हम लोगों को ज्वाइन कर लीजिये, आपका समय भी कट जायेगा और कुछ आय भी हो जायेगी…, हमें भी आपके अनुभवों से अपने को सुधारने का मौका मिलेगा “।
बस आज उन्होंने यही बात घर में उठा दी, जिस पर बेटा -बहू भड़क गये। बेटे -बहू को लग रहा था लोग क्या कहेँगे, जरूर बेटा -बहू ठीक से देखभाल नहीं करते इसीलिये माँ, नौकरी करने जा रही।जबकि वे पैसों के लिये नहीं अपनी ख्वाहिशों और समय के सदुपयोग के लिये जाना चाह रही थी।
रात सब खाना खा कर अपने कमरे में चले गये। ऊषा जी कमरे में आई तो उदास थी, कल तक उनका हाथ पकड़ कर चलने वाला बेटा, आज इतनी तेज आवाज में बात कर रहा था, श्याम जी होते तो उन्हें बेटे से पूछने की जरूरत ही न होती।
. आखिर वे करें क्या, भजन -कीर्तन में उनका मन नहीं लगता था, बचपन से ही पिता का कहना था कर्म से बड़ी कोई पूजा नहीं, ऐसा नहीं था कि वे नास्तिक थी, पूजा -पाठ करती थी, पर हाई प्रोफाइल वाले घरों की पूजा -पाठ के दिखावे और कृत्रिमता से उन्हें ऊब होती थी।
श्याम जी की तस्वीर के सामने कुर्सी पर बैठी ऊषा जी की ऑंखें भर आई, उनकी व्यथा समझने वाला कोई नहीं, बेटा उन्हें पैतृक निवास से यहाँ ले आया, उनके अकेलेपन को देख कर, पर यहाँ वो मानसिक रूप से अकेलापन महसूस कर रही थी, वहाँ तो कम से कम उनकी हमउम्र कुछ दोस्त और रिश्तेदार तो थे।
तभी उन्हें अपने कंधे पर हाथों का स्पर्श महसूस हुआ, माँ थी, बेटे का स्पर्श बखूबी पहचानती थी,”सॉरी माँ, मैंने कभी आपके अकेलेपन को महसूस नहीं किया, इसलिये मै नाराज हो उठा, पर आप मुझे माफ कर दो,… और कल से अपने काम पर जाने की तैयारी कर लो, मुझे अपनी हँसती -मुस्कुराती माँ चाहिए.., लोगों का क्या कुछ तो कहेँगे, हमें उनकी परवाह नहीं, परवाह आपकी है…” ग्रीन ट्री की ट्रे ले आती बहू निशा बोली।
और इस उम्र में एक नये आगाज़ के लिये ऊषा जी तैयार हो गई थी, जिसमें उनके बेटे -बहू ने पूरा साथ दिया…।
दोस्तों, एक उम्र हो जाने के बाद सबको लगता है अब इस उम्र में भगवत -भजन करना चाहिए, करिये पर उसीमें समय नष्ट न करें, अगर आप स्वस्थ है, आपको कोई दिक्कत नहीं है तो कुछ काम जरूर करें, जरुरी नहीं कि आप पैसों के लिये करें, आप अपने वजूद, अपने स्वाभिमान, अपने को ऊर्जित करने के लिये समय का सदुपयोग करें… “कर्म सबसे बड़ी पूजा होती है “। अगर आपके घर में कोई बड़ा कुछ करना चाहे तो उसे पूरा सहयोग करें, वो अपने अनुभव से आपको निराश नहीं करेंगे .. क्योंकि कोई भी बोझ बन कर जीना नहीं चाहता..।
—-संगीता त्रिपाठी
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