सफर – अनुज सारस्वत

आज काफी दिनों बाद रेल में यात्रा करने का अवसर मिला कोरोना के कारण।

स्लीपर का टिकट करा लिया था।मेरी ऊपर की सीट थी शरारती तो हम बचपन से थे तो जूते सहित चढ़ गये मन में शरारत सूजी रख दिये जूते पंखे के ऊपर।ऐसा बचपन में बहुत करते थे तब साधारण कोच ही हमारी जिंदगी था।पढ़ाई के लिये गाँव से शहर बस यही हमारा घर था।हम पुराने समय में लौट जाना चाहते थे।फिर भगवान ने हमारी सुनी और पीछे वाली सीट पर दो औरतों के लड़ाई होने की आवाज आई।अगर आप भारतीय रेल में सफर करते हैं और शांतिपूर्ण सफर हो जाये भले आप किसी भी कोच में हो।तो यह एक अचीवमेंट होता है।

हमने झांक कर देखा तो दिन में मिडिल वाली सीट खोलने को लेकर झगड़ा था।जबकि नियमानुसार शाम को 6 बजे के बाद आप मिडिल खोल सकते हैं शयन के लिए। बस रण चंडिया भिड़ गयी थी और ऐसे ऐसे शोभा युक्त वचन एक दूसरे को कह रहीं थी की मर्दानी गाली भी घूंघट ओढ़कर कोने में दुबक जाये। खैर टीटी भाई देवदूत बनकर आये और दोनों ज्वालामुखियों को अलग किया तथा अलग सीट दे दी नियम समझाकर।

हमें मजा आने लगा अब सफर में ।अपने बैग से मुरमुरे निकाले और गाय भैंस की तरह जुगाली करने लगे फिर बोतल से घूंट मारकर अंदर करते।


फिर एक स्टेशन से एक परिवार दाखिल हुआ जिसमें मियां बीवी एक छोटा बच्चा तकरीबन 2 साल का और एक वृद्ध लगभग 75 बर्षीय जिनकी कमर झुकी हुई थी और 50 किलो से ऊपर के नही थे। बहुत कमजोर हड्डियाँ खांल में घुसी।

शायद बच्चे का मुंडन कराकर बापस आ रहे थे।सब कुछ शांति से चल रहा था।बच्चे की हल्की सी आवाज पर वो दादा तुरंत रिएक्ट करते।तभी बच्चा रोने लगा वो वृद्ध बिचलित हो गये और बोले

“अरे बाबू रो मत दादू है न दादू “

माँ बाप भी बच्चे को चुप कराने में बिफल रहे।फिर उसके झुकी कमर वाले दादू बच्चे की तरफ पीठ करके खड़े हो गये और बच्चे को अपनी झुकी कमर पर लाद लिया जिससे कमर और झुक गयी।और चल पड़े उसे पूरी डिब्बे की सैर कराने।बच्चा चुप होगया था और लगातार सैर कराने का कहने लगा।अपने पापा की कमर पर नही आ रहा था।मुझे यह देखकर मन थोड़ा मन व्यथित हुआ मैनें नीचे उतरकर बच्चे के बापू से कहा।

“दादा जी को आराम करा लो”

फिर उसके बापू ने बताया ये दादा की जान पोते में बस्ती है हम लोग नहीं बोलते इनके बीच।

मेरी माताजी दो बर्ष पहले ही स्वर्गवासी हो गयी थीं उस समय मेरी पत्नी गर्भवती थी। पिताजी की पूरी तरह टूट चुके थे।आदमी को जीवन में दो जगह सहारा चाहिए होता एक बचपन एक बुढ़ापा तबियत बहुत खराब रहने लगी पिताजी की डाक्टर्स भी कुछ बोलने से बच रहे थे।इसी बीच यह बेटा हुआ मेरा।फिर पिताजी की सेहत में सुधार आना शुरू हुआ।आप यकीन नही मानोगे इसकी माँ ने इसे इतना नही पाला जितना पिताजी ने पाला।माँ के पास केवल दूध के लिये आता और सारा दिन दादा जी की गोदी में।


अब आप समझ गये होगें।

मैं कुछ कह नही पाया तीन पीढियों का अद्भुत संगम।

इतने में उसके दादू पूरे डिब्बे का चक्कर लगवाकर आगये और पोता ऐसे खुश था जैसे उसे तीनों लोकों का राज्य मिल गया हो।

फिर उस वृद्ध के बेटे ने अपने पिता को सीट पर लिटाया और उनके पैर दबाने लगा अपने पापा की देखा देखी वो बंदर सा छुटकू भी कूदकर पापा के साइड आ गया और अपने दादू के पैरों को अपनी छोटे छोटे हाथों से दबाने लगा।इधर दादू भी मुस्कराकर गये और एक दो आंसू उनके चश्में की कमानी को लांघते हुआ बाहर निकल पड़े।

-अनुज सारस्वत की कलम से

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