अपने सफल दाम्पत्य की यह कहानी अनुराधा ने तब सुनाई थी जब उससे मिलने आई गीतिका ने हँसते हुए कहा , ” तुमने भी किस औघड़दानी को चुना है अनु ! कहाँ तुम और कहाँ खिचड़ी फरोश दुकान मालिक ?
अनु हंसते हुए बोली ,
“ओ… उन्हें पाने के लिए पार्वती को वर्षों तप करना पड़ा था मुझे तो वे सरे राह मिल गये ” ।
अनुराधा क्रम से हुई तीन बहनों में सबसे छोटी है। इसी वजह से जहाँ माँ के कोप का भाजन वंही पिता की सबसे दुलारी भी रही हे।
बड़ी दो बहनों के विवाह जल्दी ही सम्पन्न हो गए।
तीसरी अनुराधा के विवाह की बात पत्नी द्वारा छेड़ने पर पिता ‘वासुदेव नारायण’ प्रायः मौन धारण कर लेते हैं।
अनुराधा की परम इच्छा पढ़ कर वकालत करने की है यह जानकर पिता -पुत्री के बीच में मूक समझौता है।
एक दिन तो मां ने कह दिया ,
” पहले ब्याह कर दो फिर चाहे पढ़ती रहे सारी उमर “
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उस दिन मानों मां की जिह्वा पर साक्षात सरस्वती विराजमान थीं ।
इसके कुछ दिनों बाद ही पिता को घातक दिल का दौरा पड़ा जिसमें ना सिर्फ पिता के प्राण गये खुद अनुराधा के सपने भी टूट कर चूर- चूर हो गये ।
आंखो के सामने फैल गया एक घना अंधकार फिर सब कुछ यन्त्र चलित सा घटता गया।
पिता की तेरहवीं के सवा महीने बीतते ही उसका विवाह बूआ द्वारा आनन- फानन में तय किए उनके दूर के रिश्तेदार के बेटे मनोहरजी से करवा दी गई ।
“मां तो पहले से ही मेरे विवाह ऋण से मुक्त हो जाना चाहती थी “।
” मैं विद्रोह करती भी किसके बल पर पिता का स्नेही वरद हस्त तो पहले ही उठ चुका था “।
” विवाह की मंगल बेला में ही मैं पति के अधिक उम्र ,अधूरी पढ़ाई और चलती दुकान से उसके नफा नुकसान की नाप – तौल करने वाले मनोहर जी के बारे में सब जान गई थी “
“यह सब मेरे हृदय में भावी दाम्पत्य जीवन के प्रति नैराश्य के भाव जगाने मे सहायक हुए थे “।
” नया घर, नये लोग और नया जीवन लेकिन मेरे मन में कोई उत्साह नहीं सिर्फ उदासीनता “
इसी ऊहापोह आई प्रथम मिलन की रात्रि।
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” मुझे जोरों से चाय की कमी महसूस हो रही थी” ।
तभी दरवाजे पर आहट महसूस कर चेहरा पीछे घुमा कर देखा मनोहर जी हाथ में चाय से भरे ग्लास लिए खड़े हैं ,
” लीजिए आप चाय तो पीती होगीं तिरछी नजरों से संकोच में डूबी अनु को देख कर कहा ” ।
मेरी आंखो में कृतज्ञता के अस्पष्ट से भाव छलक उठे ।
मैं पलंग के सहारे खड़ी हो ससंकोच उन्हें देख रही थी मेरी सारी रुष्टता और उदासीनता पल भर में गायब हो चुकी थी।
” विदा की वेला में शायद मेरी बड़ी दीदी ने मनोहरजी को मेरी इस आदत की बात बताई होगी”।
सहसा मैं पूछ उठी,
“आप नहीं पियेंगे ? अपना प्याला भी ले आइए “
पत्नी का सरल- सहज अनुरोध मनोहर जी नयी सुखद अनुभूति से भर गये।
वे स्वभाव से नरम और मीठे हैं।
एक वह दिन और फिर आज का हमदोनों में जो सामंजस्य बैठा तो हमनें फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
ज्ञान की गंगा -प्रेम की धारा से मिल जीवन की निर्झरनी में बह चली…
जिन्दगी की गाड़ी।
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समय की पटरी पर अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती गई ।
मनोहर जी के सहयोग से मैंने अपनी छूटी पढ़ाई पूरी की।
हर दिन मेरे जीवन की पाठशाला में नये अध्याय जुटते चले गए।
पिता की मृत्यु से आए मेरे जीवन के खालीपन को मनोहर जी कभी अपने नरम तो कभी गरम स्वभाव से पाटने के भरसक प्रयास करते रहे हैं।
अनुराधा उनके धैर्य पूर्ण व्यवहार के चलते सुखी दाम्पत्य जीवन के कथ्य और सत्य को जानने में सफल होती जा रही
उसने अपने बच्चों को अपने मन मुताबिक गढ़ा है अब तो उसके बालों में चांदी के तार नजर आने लगे हैं ।
और मनोहर जी!!
वे अपनी हास्य भरे प्रफुल्ल स्वभाव से उम्र के फासले को पाटते हुए लगन और प्रेम से पोषित बगिया को निहारते नहीं अघाते हैं ।
स्वरचित / सीमा वर्मा