” उठो!.. जल्दी उठो!..” चारपाई पर सोई हुई जसोदा को उसके पति हरिहर ने उसे झिंझोड़ते हुए जगाया।
” क्या हुआ?.. पागल हो गये हो क्या? .. सुबह-सुबह..”
“ठेला गायब हो गया है, तुमको नींद सूझ रही है..”
“ऐं!.. ठेला नहीं है?.. कल शाम में तो घर के बाहर यहीं पर किनारे रखा हुआ था ” जसोदा ने आश्चर्य के साथ कहा।
” तुमलोग घर में बैठकर बच्चों के साथ टी. वी. देखती रहती हो।.. बाहर में आग लगे, पानी पड़े या पत्थर पड़े कोई परवाह नहीं है “तीखी आवाज में हरिहर ने कहा।
” हम पर क्यों इतना गुस्सा कर रहे हो?.. हम हीं चोरी कर लिये हैं.. अजीब मर्द हो.. हम भी तो सुबह से रात तक चूल्हा-चौका के काम में खटते रहते हैं.. थोड़ा टी. वी. देख रहें तो उलाहना दे रहे हो!.. लड़ने का मन है क्या सुबह-सुबह। “
पल-भर बाद शोर सुनते ही उसका पुत्र नवीन और पुत्री सारिका भी आंँखें मलते हुए वहांँ पर पहुंँच गए।
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” जिस ठेला के सहारे इस परिवार का खर्चा चलता है, खाना, कपड़ा, पढ़ाई-लिखाई, उस पर किसी का ध्यान नहीं है “क्षुब्ध होकर हरिहर ने कहा।
” ठेला को क्या तिजोरी में बन्द करके रखेगा आदमी?.. सब दिन से ठेला घर के बाहर ही रखा जा रहा था।.. ठेला की चोरी पहली बार सुन रही हूँ.. ताज्जुब है। “
हरिहर ने नवीन और सारिका से भी इसके बारे में पूछा किंतु उन लोगों के पास इस संबंध में कोई जानकारी नहीं थी।
” हम दिन भर ठेला चला कर उसके साथ-साथ चलते हैं, गली में और चौक-चौराहों पर आवाज लगाकर सामान बेचते हैं, इतना थक जाते हैं कि रात में खाना खाकर जो खाट पर गिरते हैं कि सुबह ही नींद खुलती है” हरिहर ने अपने काम के बारे में सफाई दी।
” तो हम लोग क्या करें बोल!.. मांँ, बेटा, बेटी लाठी लेकर पहरा दें ठेला के लिए ” हाथ नाचती हुई जसोदा ने कहा।
हरिहर के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आई थी। अनिश्चितता और अवसाद में डूबा हुआ वह होठों में बुदबुदा रहा था , ” मौसम के अनुसार सामान बदल-बदल कर बेचते थे, कभी मिठाई, कभी फल, कभी पर्व त्यौहार का सामान.. दो-चार दिन बाद होली भी है.. आज ठेला ही गायब हो गया। “
दो-चार पड़ोसी भी जमा हो गए थे।
अचानक नवीन ने कहा, ” पापा!.. देखो उधर से कोई ठेला लेकर इधर ही आ रहा है।”
हरिहर, जसोदा और पड़ोसियों ने उत्सुकता से उधर देखा।
हरिहर ठेला की ओर उसी प्रकार दौड़ पड़ा, जैसे किसी बाप को उसका खोया हुआ पुत्र मिल गया हो।
” सोमेश्वर जी!.. आप और ठेला?..”
” मार्निंग-वाक में निकला था, मैंने देखा कि एक ठेला खेत में पड़ा हुआ है, उसके पास जाने पर देखा कि उस पर ‘सदाबहार’ अंकित है।इस ठेला से तो पूरा शहर परिचित है, समझते देर नहीं लगी कि शरारती लोगों के परेशान करने की यह चाल है।”
” मेरी जान निकली जा रही थी और शरारती लोगों को मजा मिल रहा था। “
फिर क्षण-भर बाद ही उसने सोमेश्वर जी से कहा,
” बहुत-बहुत धन्यवाद!.. “
” धन्यवाद किस लिए, किसी भी कारण से आदमी संकट में हो तो सहयोग करना हमलोगों का फर्ज है। “
स्वरचित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)