सच्ची श्रद्धा” – डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

पंडित जी बड़े मनोयोग से पुण्य तिथी का श्राद्ध कर्म करवाने में लगे हुए थे। तर्पण की सारी व्यवस्था ठाकुर साहब के तीनों बेटों ने धूमधाम से कर रखी थी। कोई कमी नहीं रहे इसका उन्होंने खास ख्याल रखा था। पांच प्रकार के पांच पेटी फल,  सूखे मेवे, पांच तरह की मिठाई, और तरह तरह के स्वादिष्ट भोजन बनवाये गये थे।  बेटों का कहना था कि पिताजी जिस जिस व्यंजन को पसंद करते थे वही सारी की सारी हलवाई से बनवाई गई थी। दान होने वाले कपड़े भी ब्रांडेड थे। बर्तनों का पूरा सेट ही दान के लिए मंगाया गया था। वे बार बार हाथ जोड़कर पंडित जी से आग्रह करते रहे थे  पंडित जी, कोई कमी  हो तो कृपया बताईये। तैयारी देखकर पंडित जी खुशी से दोहरे हुए जा रहे थे। मन्त्रों के बीच बीच में बेटों का गुणगान भी करते जा रहे थे। मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिए जा रहे थे। एक पंडित जी ने बगल में बैठे दूसरे से कहा, ”  भाई ऐसे यजमान तो बिरले ही मिलते हैं।” 

  ठाकुर साहब का पूरा घर बहू बेटा और पोते-पोतियों से भरा हुआ था ।

पंडित जी नजर उठाकर जिस पर रखते, मूंह खोलने से पहले ही सब एक साथ दौड़ पड़ते। इस भक्ति को देखकर वहां आये सभी मेहमान गद -गद् थे। काश!  ऐसा ही परिवार  हम सबका भी होता ! बेटे साक्षात राम हैं और बहुएं सीता की तरह आज्ञाकारिनी। सब की सब सास के आस पास  छाया बनी खड़ी थीं।

                              तर्पण खत्म होते ही सभी बहुएं अपने अपने बच्चों को दिवंगत दादा के तस्वीर के सामने माथा टेकवाने लगी। बेटे बढ़ -चढ़ कर  पिता के तस्वीर पर अपना हैसियत  पैसे के रूप में चढ़ाने लगे।  वाह! इसको कहते हैं सच्ची श्रद्धांजलि।

पंडितों को खिलाने की तैयारी शुरू हो गई। लगभग इक्कीस की संख्या में ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया गया था।

ठकुराइन वही पर चुपचाप बैठी हुई थी। पंडित जी  से  रहा  नहीं गया  उन्होंने ने कहा, _”माताजी आप बहुत उदास लग रहीं हैं, आप तो बहुत भाग्यशाली हैं ,जो इतने कर्मशील और श्रद्धावान बेटे -बहू मिले हैं। “



                        ठकुराइन ने कोई जवाब नहीं दिया। पंडित जी ने फिर से दुहराया, ” माताजी आपके बच्चों की श्रद्धा देख कर मन प्रसन्न हो गया।”

“तृप्त कर दिया इन्होंने पिता की आत्मा को।”

इस बार माताजी की आँखें भर आई। अपने आंचल के कोर से आंसूओं को पोछते हुए बोली, “पंडित जी आपने आत्मा को देखा है क्या?

“यह सब दिखावा है। “

“ऐसे क्यों बोल रही हैं माताजी ,यही श्रद्धा-दान तो मृत आत्मा तक जाती है ।”

“मृतआत्मा तक जाती है कि नहीं ना तो आप ने देखा है ना हमने!”

“असली तृप्ति तो जीवित रहने पर ही होती है।”

जब ठाकुर साहब जिंदा थे तो किसी बेटे के पास समय नहीं था कि दो पल उनके साथ खुशी से गुजारते ।, जिन्होंने इनके लिए अपना सबकुछ लूटा दिया उस पिता के लिए दो शब्द नहीं थे इनके पास बोलने के लिए। रास्ता निहारते पत्थरा गई थी उनकी आँखें पोते पोतियों को एक नजर देखने के लिए। बेचारे तरसते रहे कि बहुएं कभी उनकी पसंद पूछकर

उनको श्रद्धा से कुछ  बनाकर खिलायेंगी।

“अब पकवान छत्तीस रहे या छप्पन कौन सा “वो” देखने आ रहे हैं।”

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर बिहार

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!