सांसे थमने वाली हैं। अटक अटक कर आ रही है, गले से घर्र घर्र की आवाज निकल रही है। आंखों के कोर से आंसू धीमे धीमे बह रहे हैं। चैतन्य तो हूँ मगर इतनी भी नही की जो से आवाज देकर किसी को बुला सकूँ। और सुनेगा भी कौन? यहां है ही कौन? सालो से अकेली हूँ मैं तो। नाईट लेम्प की हल्की नीली रौशनी में कोई छाया दिखाई दे रही है, यमराज तो नही कहीं।
एक पल में जीवन का हर मंजर कौंध गया आंखों के सामने। साहब ने कितने अरमानों से बेटे को पढ़ाया विदेश भेज कर बोलते थे बड़ा ऑफिसर बनेगा मेरी तरह। बचपन से होस्टल में रखा सबसे आगे रहने की शिक्षा दी। कलकत्ता में एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े पैकेज वाली जॉब भी मिल गयी। फिर एक दिन उफ ने अपनी पसन्द से अपने जैसे बड़े घर मे शादी भी कर दी उसकी।बस यही से सब बदलता गया। बहू ने पहले महीने ही जता दिया कि वह यहां न रहने वाली। साहब ने भी सहमति दे दी। तो नई बहू का सुख लिए बिना मैं बेमन से बिदाई कर दी। वो दिन और आज का दिन उसने माँ तो नही माना सास भी नही मान सकी। बस बेटे से मतलब उसे। फिर एक दिन साहब जी चले गए सब छोड़कर। रह गयी उनकी पेंशन, ये बड़ी सी कोठी और मैं, अकेली। उस समय बेटा बहू आये सब कर्मकांड किया लेकिन बहू ने इतना जता दिया कि मैं उनके साथ रहने की सोचूँ भी न। सो मैं रह गयी अकेली। बेटा कितना भी अच्छा हो एक समय के बाद उनकी प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। रिश्तो की कतार में क्रमांक भी बदल जाते हैं। उनका परिवार बन जाता है जहां माँ बाप उसके सदस्य नही रहते वो गेस्ट हो जाते हैं। इसमे गलती किसी की नही होती। ये तो जमाने का चलन है।
सोलह साल हो गए। यूँ अकेले रहते। अब तो ये अकेलापन भला लगता है। उम्र अपना काम कर रही है। कभी कभी सोचती हूँ जिनके बच्चे साथ रहते हैं वो कितने खुश रहते होंगे। जीवन जीना कितना आनन्ददायक होता होगा उनके लिए। बच्चे तो पशु पक्षियों के भी छोड़ जाते हैं। फिर मोह इंसानों को ही क्यों होता है। हम भी तो आये थे अपने माँ बाप को छोड़कर।
सुखिया भी छुट्टी पर है। तीन दिन के लिए गांव गयी है। कल सुबह जब मैं नही उठूंगी तो किसे पता चलेगा। आजकल तो कॉलोनी में भी किसी को किसी से मतलब नही रहता। मिले तो राम राम नही तो किसे फिक्र। बेटे को खबर भी नही हो पाएगी। मोबाइल की बैटरी सुबह से खत्म है। बिस्तर से उठने की शक्ति होती काश। उसे बता पाती की जा रही हूँ मैं।
पलकें मुंदने लगी हैं। धड़कन तेज हो रही है। ये लार क्यों बहने लगी होठो से।जब तक बेटा आएगा तब तक शरीर तो सड़ जाएगा। आएगा या नही। दो साल तो हो गए आये हुए उसे। एक बार देख लेती काश उसे।
अच्छा किया जो समय रहते सब कागज पत्तर बनवा दिए थे, उसे तकलीफ नही होगी।
आखिर सब उसी का ही तो है।
प्रभु, कुछ गलत हुआ हो मुझसे तो क्षमा करना। कुछ तो कर्म ऐसे रहे होंगे जो जीवन के उत्तरार्ध में अकेलापन मिला मुझे। ले जाओ प्रभु साथ अपने।
#धोखा
संजय अग्रवाल
रायपुर