“लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है….”
“वाह दीदी! आज तो मौसम के साथ-साथ आपका मूड भी मस्त हो रहा है। कित्ता अच्छा गाते हो आप!” निधि का गाना सुन मीरा बोल उठी।
“हाँ, तभी तू बर्तन बजा-बजा के इतना मधुर संगीत दे रही थी!”
“क्यों मज़ाक़ उड़ा रहे हो दीदी! संगीत कहाँ आता है और फिर उसका टाइम किसके पास है? घर-घर फिर कर काम करने में ही सारा दिन निकल जाता है। पर आप को गाते सुनती हूँ न तो मैं भी गुनगुनाने लगती हूँ। आपको सावन का महीना बहुत पसंद है न दीदी?” झाड़ू लगाती हुई मीरा उससे पूछ बैठी।
सावन शब्द में मानो कोई जादू है! ज़िंदगी के न जाने कितने मधुर पड़ाव से गुजर जाता है ये चंचल मन! बचपन में बारिश में नहाना व माँ की डाँट खाना, सड़क पर जमे मटमैले पानी में काग़ज़ की नाव तैराना या छप-छप करते हुए उस पर चलना, झूले पर ऊँची-ऊँची पेंगें मारना… और एक बार तो ऊँचाई से गिर भी गई थी वो… ज़मीन पर …धड़ाम!
सावन में खाने-पीने की तो बात ही कुछ और थी…. मलाईदार घेवर, अनरसे, भिन्न-भिन्न प्रकार के पकौड़े, लकड़ी के आँच पर सिंके गर्मागर्म भुट्टे और भी न जाने क्या-क्या!
“हाँ रे, बचपन में मेरा मनभावन मौसम होता था यह। पर अब तो सब छूट गया है। इस उम्र में बरसात का रिश्ता सिर्फ़ चाय-पकौड़े तक ही सीमित रह गया है!”
“बचपन की तरह ही मस्ती कीजिए न दीदी। यहाँ तो कोई देखनेवाला भी नहीं! देखिए न कितनी अच्छी बारिश हो रही है। आप बगीचे में जी भर के बारिश का आनंद लीजिए। मैं अभी आपके लिए बढ़िया अदरक वाली चाय और आलू-प्याज़ के पकौड़े धनिए की तीखी चटनी के साथ बनाती हूँ!”
“अच्छा! ये तो बता तू क्या करती है सावन की मस्त रिमझिम बारिश का आनंद लेने के लिए?”
” कहाँ दी, अपना वक्त तो बरसात से बचने में ही निकल जाता है।”
“बचने में? वो क्यों?”
“इसी इंतज़ाम में लगे रहते है दीदी कि सोने के लिए सभी को सूखी जगह मिल जाए। पूरे सावन टपकते हुए छत के नीचे बाल्टी-डब्बा लगाने में ही सारा समय निकल जाता है। इतने पैसे कभी होते नहीं कि नयी छत डलवा लें! हम तो दीदी, बस यही मनाते रहते हैं कि ये सावन जल्दी से ख़त्म हो!”
#बरसात
स्वरचित
प्रीति आनंद अस्थाना