चारों और काले काले बादल। तेज बरसती सावन की झड़ी, ठंडी ठंडी मदमस्त हवाएं। मौसम तो बहुत सुहावना था, पर बरसात में भीग कर आए हुए ओम प्रकाश जी को किसी की याद दिला कर रुला रहा था।
उन्होंने अपने कपड़े बदले, गीले कपड़े रस्सी पर डालें और तौलिए से सिर पोंछते हुए अपनी स्वर्गवासी पत्नी सुशीला की तस्वीर के सामने खड़े होकर उससे बातें करने लगे।
“सुशीला तुम इतनी जल्दी मुझे छोड़कर क्यों चली गई, तुम कहती थी की बचपन में किसी बच्चे की मां और बुढ़ापे में किसी के पति या पत्नी को ईश्वर कभी ना छीने। बिल्कुल ठीक कहती थी तुम, जानती हो कितना अकेला हो गया हूं मैं। पहले तो ऑफिस में शाम तक टाइम पास हो जाता था। रिटायरमेंट के बाद तो समय कटता ही नहीं है। सोचा था रिटायरमेंट के बाद हम दोनों साथ साथ खूब घूमेंगे फिरेंगे, जानती हो ना बच्चे तो अपने जीवन में व्यस्त हैं।”बात करते-करते वे अपनी आराम कुर्सी पर आकर बैठ गए और अपने विवाह वाले दिन को याद करते हुए पुरानी यादों में खो गए खो गए।
“याद है तुम्हें सुशीला, वह दिन जब तुम शर्म के मारे गठरी बने हुए पलंग पर दुल्हन के रूप में बैठी थी। कितनी सुंदर लग रही थी तुम और अगले दिन तुम्हारे हाथों से बना हलवा खा कर सब ने कितनी प्रशंसा की थी और कहा था कि बहू में उसके नाम के अनुरूप गुण भी हैं।
धीरे-धीरे समय बीतता रहा। तुमने बहुत सुघढता से घर संभाल लिया था। दो बच्चे हो जाने के बाद भी, मेरे कुछ मजाक करने पर तुम उसी तरह शर्माती थी कि जैसे नई नवेली दुल्हन हो। जब मैं ऑफिस से आकर गाना गाते हुए तुम्हें पूरे घर में ढूंढता था”तू छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां”तब तुम शर्म से दोहरी हुई जाती थी और कहती थी-“क्या आप भी, पूरे बेशर्म हो।”
तुम्हें बरसात और बरसात में भीगना बहुत पसंद था ना। बरसात तो है पर तुम नहीं हो। याद है एक बार तुमने काले काले बादलों को देखकर पहले से ही पकोड़े बनाने की तैयारी कर ली थी। उस दिन तो मिर्च के पकोड़े खाकर इतना आनंद आया था कि आज तक स्वाद मुंह में घुला हुआ है।
जानती हो, अब भी बारिश में पकोड़े खाने का बहुत मन होता है,पर चेतना बहू से कह नहीं पाता। वह बेचारी भी तो ऑफिस से थक पर आती है, खाना बनाती है, बच्चों को पढ़ाती है। कैसे फरमाइश करूं, सोचता रह जाता हूं। सुशीला, मैं तुम्हारे बिना रह नहीं पा रहा हूं, कहां हो तुम, प्लीज वापस आ जाओ ना। फिर हम दोनों साथ-साथ भगवान के घर चलेंगे। सुन रही हो यह गाना जो बच्चों के कमरे में चल रहा है”लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है”तुम्हें यह गाना पसंद है ना।
बस मुझे तुमसे यही कहना है कि तुम्हारी रीढ़ की हड्डी का दर्द इतना ज्यादा बढ़ गया है, यह बात मैं समझ क्यों नहीं पाया? जब भी तुम दर्द के बारे में कहती थी, मैं कहता था दर्द की दवाई खा लो या सिकाई कर लो और तुम भी चुपचाप गोली खा लेती थी। मेरे जरा सा बारिश में भीगने पर तुम मेरा इतना ध्यान रखती थी, मुझे अदरक वाली चाय बना कर देती थी या फिर एक कप गरमा गरम हल्दी वाला दूध। फिर मैं तुम्हारा ध्यान क्यों नहीं रख पाया, मैं तुम्हें समय पर डॉक्टर के पास क्यों नहीं ले गया, क्यों मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे। और जब मैं तुम्हें डॉक्टर के पास ले गया तब तक सब कुछ खत्म हो चुका था ,बहुत देर हो चुकी थी। तुम्हारा रीढ़ की हड्डी का दर्द, हड्डी में कैंसर का रूप ले चुका था और वह तुम्हें मुझसे हमेशा के लिए दूर ले गया। ”
ओम प्रकाश जी अपनी सोच में गुम थे कि तभी दरवाजे पर आहट हुई। कमरे के दरवाजे पर कोई मिर्च के पकोड़े और चाय लेकर खड़ा था।
ओम प्रकाश जी खुशी से लपक कर उठे और बोले-“सुशीला, तुम आ गई, मुझे पता था तुम कहीं नहीं गई हो।”
तभी आवाज आई, पापा जी, मैं हूं चेतना, चाय लाई हूं।
और बहू चाय रख कर चली गई।
#बरसात
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गीता वाधवानी दिल्ली