शहनाई की मीठी धुनों से पूरा आँगन गूंज रहा था। घर का कोना-कोना चटख रंगों से सजा था, जैसे हर दीवार ने उत्सव का घाघरा पहन लिया हो। आकाश में झूलती झालरों और पत्तों से सजे द्वार पर आमंत्रण की हवा थिरक रही थी। यह केवल विवाह का अवसर नहीं था, यह दो परिवारों के भविष्य की नींव रखने का क्षण था।
मंडप सजा था, और मंगल गीतों की ध्वनि वातावरण को अलौकिक बना रही थी। घर के जिम्मेदार लोग इधर-उधर हाथ-पाँव मार रहे थे, जैसे किसी रणभूमि में अपने-अपने मोर्चे संभाल रहे हों। कोई खाने की व्यवस्था में उलझा था, कोई बारात के स्वागत में, तो कोई पंडित जी को ढूंढ़ता फिर रहा था।
बच्चे, जिन्हें ना रस्मों की चिंता थी और ना रीति-नीति की समझ, पूरे घर में उछल-कूद कर रहे थे। वे अपने आप में एक चलती-फिरती बारात थे—हर क्षण नए उत्साह से भरे हुए।
इस सारे कोलाहल में श्वेता के पिता रामशरण किसी खोए हुए राजकुमार की भांति मंडप के चारों ओर चक्कर काट रहे थे। उनका माथा पसीने से भीगा था, और आंखों में चिंता की जमी हुई परछाईं थी। बार-बार कुछ बड़बड़ाते हुए वे यही कहते प्रतीत होते, “कोई है ही नहीं जो ज़िम्मेदारी से काम करे। सब अपने में मस्त हैं।”
इसी बीच शंखनाद हुआ और सुमित की बारात दरवाजे पर आ पहुँची। सुमित—दूल्हे के रूप में सजा-सँवरा—रासलीला के श्रीकृष्ण सा प्रतीत हो रहा था। नीले कुर्ते पर सुनहरी जरी की झालरें, माथे पर मोरपंखी पगड़ी, और चेहरे पर एक आत्म-तृप्त मुस्कान—वह सौंदर्य की साक्षात मूर्ति लग रहा था।
मंडप भवन में पंडित जी रोली, चावल, अक्षत, चंदन और फूलों से ‘शुभ-लाभ’, ‘स्वस्तिक’, ‘ग्रह नक्षत्र’ के चिह्न बना रहे थे। पूरे भवन में धूप और हवन की सुगंध मिली-जुली सी गूंज रही थी, मानो देवता स्वयं वर-वधू को आशीर्वाद देने पधारे हों। दरवाजे पर दूल्हा और बारात का धूमधाम से स्वागत के बाद सबको आदर से बैठाया गया।
अब दूल्हा सुमित वहीं बैठा हुआ मण्डप और पण्डित की ओर देख रहा था, उसके भीतर कुछ और ही उथल-पुथल थी। उसके पास बैठी उसकी छोटी बहन ज्योति, जो स्वयं नन्ही उमर में बड़ी समझदार थी, कभी मंडप की सजावट देखती, कभी भाई की आँखों में झाँकती। उसके अधरों पर एक भोली मुस्कान थी, पर आँखों में सवाल तैरते थे—”कब भाभी आएँगी, कब मैं उन्हें पहली बार देखूंगी?”
उधर श्वेता का छोटा भाई हर्षित, जो इस समस्त तैयारी से अधिक स्वयं को बड़ा साबित करने की होड़ में था, सुमित के पास आया और विनम्रता से प्रणाम किया। सुमित ने मुस्कराते हुए उससे कहा, “हर्षित, ज़रा अपने पिताजी को बुलाना।”
(सुमित ज्यादा पढ़ा लिखा तो नहीं था परन्तु उसके पिता दीनानाथ एक व्यापारी थे। सुमित भी उनके व्यापार में हाथ बंटाता था।)
कुछ ही क्षणों में रामशरण वहाँ उपस्थित हो गए। सुमित ने उन्हें पास बुलाया और दबे स्वर में कान में पूछा,
“मौसा जी, क्या पाँच लाख रुपये नकद का इंतज़ाम हो गया?”
रामशरण का चेहरा फक्क हो गया। उन्होंने काँपते स्वर में कहा,
“बेटा, विवाह की रस्में पूरी हो जाने दो, मैं जल्द ही व्यवस्था कर दूँगा।”
लेकिन सुमित टस से मस नहीं हुआ। उसका लहजा अब तीखा हो चला था:
“देख लीजिए, जब तक रकम नहीं मिलेगी, मैं फेरे नहीं लूँगा। बात साफ है।”
यह सुनते ही जैसे रामशरण के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। इतने में सुमित के पिता दीनानाथ वहाँ आ पहुँचे। परिस्थिति को भाँपते हुए रामशरण ने उनके चरण पकड़ लिए और गिड़गिड़ाने लगे,
“भाईसाहब, थोड़ा वक्त दीजिए। मैं अपना वचन निभाऊँगा।”
दीनानाथ ने एक गहरी साँस ली, और रामशरण को एकांत में ले जाकर कहा:
“रामशरण जी, अब बात प्रतिष्ठा की है। मेरा बेटा ज़िद पर अड़ा है और यह ज़िद अब हमारी भी लाचारी बन गई है। मैं जानता हूँ, आप एक ईमानदार पिता हैं। लेकिन मेरी भी एक बेटी है—ज्योति। मैं समझ सकता हूँ कि एक पिता पर क्या बीतती है।”
कहते हुए उन्होंने अपने थैले से पाँच लाख रुपये निकालकर रामशरण के हाथ में रख दिए और बोले:
“इन्हें ले जाइए और चुपचाप सुमित को दे दीजिए। किसी से कुछ न कहें, वरना बात का बतंगड़ बन जाएगा।”
रामशरण की आत्मा काँप उठी। उनका अंतर्मन चीख पड़ा—”क्या यही दिन देखने बाकी रह गया था?” पर विवशता और बेटी के भविष्य के बीच झूलती उनकी अंतरात्मा हार मान गई। उन्होंने रुपये थामे और सुमित के पास जाकर सौंप दिए। सुमित के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान उभर आई, मानो उसने कोई युद्ध जीत लिया हो। उसने रूपये लेकर दीनानाथ को दे दिए।
विवाह की रस्में निभाई गईं, श्वेता ससुराल आई। उसने सुमित की मनोदशा भाँप ली थी। सुमित ज्यादा पढ़ा-लिखा था, सो नौकरी की तलाश में निराश। श्वेता ने उसका हाथ थामते हुए कहा,
“चिंता मत कीजिए। हम मिलकर व्यापार करेंगे, घर चलाएँगे और खुश रहेंगे।”
समय की रथ-यात्रा चलती रही। उधर हर्षित ने UPSC परीक्षा में सफलता पाई और प्रशासनिक अधिकारी बना। घर में उत्सव का माहौल लौट आया। सुमित का पूरा परिवार हर्षित को बधाई देने उसके घर आए। उसी अवसर पर हर्षित और ज्योति के विवाह का निर्णय हुआ। दिन तारीख भी निश्चित कर दिया गया। सुमित इस निर्णय से कहीं भीतर डर गया था। “जैसे को तैसा”— यह सोच उसके मन में कांटों की तरह चुभ रही थी। उसे पूरा विश्वास था कि हर्षित मंडप में उसे उसकी पुरानी ज़िद का स्वाद चखाएगा।
इसलिए उसने पहले से ही लोन लेकर दस लाख रुपये की व्यवस्था कर ली।
निश्चित तिथि को हर्षित की बारात ज्योति के दरवाज़े पर पहुँची। बारात का जोरदार स्वागत किया गया। चारों तरफ खुशी ही खुशियां थी। मंडप सजा था मंगल गीत गाए जा रहे थे पर सुमित का दिल मानो मुट्ठी में बंधा हो। उसे विश्वास था कि हर्षित अपमानित अवश्य करेगा।
मंडप में सब रस्में होती रहीं। न कहीं कोई माँग, न कोई शर्त। सुमित को आश्चर्य हुआ। फेरे पूरे हो गए। तब वह स्वयं हर्षित के पास गया और कहा:
“भाईसाहब, अगर कुछ माँगना हो तो बेहिचक कहिए, व्यवस्था कर रखी है।”
हर्षित मुस्कुराया, उसने सुमित के पिता दीनानाथ का हाथ थामा और बोला:
“एक पिता ने अपनी बेटी मुझे सौंप दी, मुझे इससे बड़ा कुछ और नहीं चाहिए। मैं सौदागर नहीं हूँ, जो रिश्तों को सौदों में तौले। सात फेरे व्यापार के लाभ के लिए नहीं जन्मों के बंधन के लिए होते हैं। मुझे पैसों की नहीं, आशीर्वाद की आवश्यकता है।”
“रिश्ता धन से नहीं, दिल से निभाया जाता है।”
यह सुनकर सुमित के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसकी आँखों में पश्चात्ताप के आँसू थे। वह उठ खड़ा हुआ, हर्षित का हाथ थामकर बोला:
“आपने मुझे इंसानियत का असली अर्थ समझा दिया। आपको विवाह की हार्दिक शुभकामनाएँ
#शुभ विवाह ।”
(लेखक) – पूरन लाल चौधरी।
सिरौली बरेली।