” सुन मानसी…मुझे मार्केट में कुछ काम है, इसलिए मैं जल्दी जा रही हूँ…तू किसी और से लिफ़्ट ले लेना।” कहकर दिव्या ने लैपटाॅप बंद करके अपने बैग में रखा और कंधे पर डालकर ऑफ़िस से बाहर निकल गई।
उसने अपनी स्कूटी ‘सिटी माॅल ‘ के पार्किंग में रखी और घर के लिये कुछ ज़रूरी सामान खरीदकर घर चली गई।वह लिफ़्ट से निकल ही रही थी कि उसने चार-पाँच महिलाओं को अपने घर से निकलते देखा।वह समझ गई कि उसकी सास ने इनसे कुछ शिकायत होगी।
बस…घर में घुसते ही उसने अपना बैग सोफ़े पर पटका और अपनी सास पर बरस पड़ी,” वाह मम्मी जी….काॅलोनी की महिलाओं के सामने अपना दुखड़ा सुनाकर मेरी शिकायत करना और उनसे सहानुभूति बटोरने का अच्छा तरीका निकाला है आपने।”
” नहीं दिव्या..ऐसी तो कोई बात हुई ही नहीं है।वो लोग तो बस…।” अर्चना जी अपनी बहू से बोलीं।
” हाँ-हाँ..मैं सब समझती हूँ।अच्छा है..अब आप जा रहीं हैं वरना तो ये सिलसिला चलता ही रहता।” पैर पटकती हुई दिव्या अपने कमरे में चली गई।
अर्चना जी का विवाह सहारनपुर के श्रीनाथ जी के साथ हुआ था जो एक सरकारी मुलाज़िम थे।उन्होंने बीएड किया हुआ था।अतः सहारनपुर के एक प्राइवेट स्कूल में वो बच्चों को इतिहास विषय पढ़ाने लगीं।उनके सास-ससुर गाँव में रहते जो बेटे-बहू के पास आते-जाते रहते थें।
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विवाह के तीन साल बाद जब बेटी निशा का जन्म हुआ तब उन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया और बेटी को संभालने लगी।दो साल बाद निशांत का जन्म हुआ, फिर तो वो पूरी तरह से अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गईं।निशा ने जब दसवीं की परीक्षा दे दी…तब तक निशांत भी समझदार हो गया था
तब फिर से उन्होंने स्कूल ज़्वाइन कर लिया और इस तरह से प्रतिदिन घर के चारों प्राणी सुबह अपने-अपने काम पर निकल जाते थें और रात को डिनर पर ही मिलते थे।छुट्टी के दिन चारों एक साथ बिताते थें।
निशा की आवाज़ बहुत अच्छी थी और उसके बात करने का अंदाज़ भी निराला था।उसने दिल्ली के एक संस्थान से ‘डिप्लोमा इन रेडियो प्रोडक्शन एंड रेडियो जाॅकी ‘ का कोर्स किया और रेडियो के एक चैनल पर काम करने लगी।निशांत वेल्लोर से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर बैंगलुरु के एक आईटी कंपनी में नौकरी करने लगा।
अब अर्चना जी निशा के लिये सुयोग्य वर तलाश करने लगी।चार दिन की छुट्टी लेकर निशा जब घर आई तो उन्होंने विवाह की बात छेड़ी तब वह बोली,” मम्मी…प्रकाश मेरे ही चैनल में प्रोग्रामिंग डिपार्टमेंट के इंचार्ज हैं।उनके पैरेंट्स गुड़गाँव में रहते हैं।
हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और शादी..।” कहते हुए उसने अपनी आँखें नीची कर ली।बेटी की इच्छा जानकर श्रीनाथ जी बोले,” तो फिर समस्या क्या है बेटी? क्या प्रकाश के माता-पिता असहमत हैं?”
” नहीं पापा, उनका तो आशीर्वाद है लेकिन मम्मी…प्रकाश हमारे कास्ट(जाति) का नहीं है।”
तब श्रीकांत हा-हा करके हँसने लगे, बोले,” बेटी..तुम्हारी मम्मी अपने विद्यार्थियों को एकता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाती है और स्वयं इसका पालन भी करती है।अब बोलो..प्रकाश से हमें कब मिला रही हो?”
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पिता की बात सुनकर निशा ने तुरंत प्रकाश को फ़ोन किया और अगले ही दिन अपने माता-पिता को लेकर दिल्ली आ गई।दोनों परिवार एक-दूसरे से मिले और एक शुभ मुहूर्त में निशा का विवाह प्रकाश के साथ हो गया।
दो साल बाद अर्चना जी ने बेटे निशांत का विवाह उसकी पसंद की लड़की दिव्या से कर दिया जो उसके साथ ही काम करती थी।
दिव्या देखने में जितनी सुन्दर थी उतनी ही अच्छी तरह से वह रिश्ते निभाना भी जानती थी।काम की व्यस्तता के कारण उसका ससुराल जाना तो कम ही होता था लेकिन जब उसके सास-ससुर आते थें तब उनकी सेवा-खातिरदारी में वह कोई कमी नहीं करती थी।
विवाह के डेढ़ बरस बाद जब वह प्रेग्नेंट हुई तो तब डाॅक्टर ने उसे शुरु के एक-दो महीने फुल रेस्ट करने को कहा था।तब अर्चना जी ने स्कूल छोड़ दिया और बहू के पास आकर उसकी देखभाल करने लगी थी।नौवें महीने से डिलीवरी तक वो बहू के पास ही थी।
घर में आया होने के बावज़ूद भी पोती को नहलाने-धुलाने और मालिश करने का काम वह स्वयं करती थी।दिव्या तो कमज़ोर थी..उसकी नींद में खलल न हो, इसलिए रात में बच्ची के गीले नैपकिन खुद ही बदल देती थी।दिव्या को समय पर फल-दूध वो अपने हाथों से ही देती थीं।
कभी-कभी तो दिव्या पति से कहती थी,” निशांत…मम्मी जी ने मेरी इतनी देखभाल की है…उनका कर्ज़ तो मैं कभी नहीं चुका पाऊँगी।” जवाब में निशांत मुस्कुरा देता था।
पाँच महीने बाद जब अर्चना जी वापस जाने लगी तब दिव्या अपनी सास के गले लगकर ऐसे रोई जैसे कोई बेटी अपनी माँ से बिछड़ रही हो।सहारनपुर आने के बाद भी उनका मन पोती के पास ही लगा रहता था।
श्रीकांत जी सेवानिवृत होकर पत्नी संग अपने पैतृक आवास में आकर आराम की ज़िंदगी बसर करने लगे। एक दिन वे सुबह की सैर करके घर लौटे ही थे कि अचानक उनके सीने में दर्द उठा और वो कराह उठे।अर्चना जी तो घबरा गईं।
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तुरंत बेटे-बेटी को खबर किया।डाॅक्टर ने कहा कि दिल का दौरा पड़ा था।अभी ठीक है लेकिन परहेज़ आवश्यक है।तब निशांत बोला कि हमारे साथ चलकर रहिये।निशा ने भी कहा कि पापा.. निशांत की बात मान लीजिये.. वहाँ डाॅक्टर की भी सुविधा है
परन्तु श्रीकांत जी नहीं माने।कहने लगे कि मुझे यहाँ सुकून है।तब निशांत बोला,” ठीक है पापा लेकिन आप दवायें समय पर लेते रहियेगा और मम्मी… कोई भी परेशानी हो तो आप तुरंत हमें फ़ोन कीजियेगा।” कहकर वह चला गया था।दिव्या समय-समय पर फ़ोन करके अपने ससुर की तबीयत के बारे में पूछती रहती थी।
तीन-चार महीनों के बाद श्रीकांत जी की तबीयत फिर से बिगड़ने लगी।पत्नी से बोले,” मैं अब तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊँगा।तुम रिश्तों को बिखरने नहीं देना..परिवार..।” उनकी बात अधूरी रह गई।
पति का साथ छूट गया…अर्चना जी अकेली हो गई…जीवन उन्हें बोझ-सा लगने लगा था तब दिव्या फ़ोन करके बोली,” मम्मी जी…अब हम आपकी एक नहीं सुनेंगे…कल निशांत जा रहें हैं आपको लेने और आपको उनके साथ आना है।”
अर्चना जी लेकिन…परंतु…कहती रह गईं लेकिन दिव्या ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।अगले ही दिन बेटा आ गया और वो घर बंद करके बेटे के साथ चलीं आईं।बहू ने उनका खुले दिल से स्वागत किया।साफ़-सफ़ाई के लिये एक बाई थी
और खाना बनाने के लिये कुक।फिर भी वो किचन में अवश्य जाती थीं।पोती पीहू भी प्ले स्कूल जाने लगी थी।उसे ले जाने और वापस लाने की ज़िम्मेदारी उन्होंने स्वयं ले ली।शनिवार-रविवार मंदिर में कीर्तन होता था, वहाँ भी वो चली जाती और इस तरह से उन्होंने अपने आपको व्यस्त कर लिया था।
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देखते-देखते छह महीने बीत गये।एक दिन दिव्या अपनी सहकर्मी मानसी के साथ लंच कर रही थी।बात करते-करते वह अपनी सास की प्रशंसा करने लगी और बोली कि मैं बहुत लकी हूँ जो मुझे इतनी अच्छी सास मिली है।तब मानसी बोली,” कहीं तुम्हारी सास अच्छा बनने की नाटक तो नहीं कर रही हैं।”
” अरे नहीं-नहीं..।” हँसते हुए दिव्या बोली।
उस दिन से जब समय मिलता, मानसी दिव्या के कान में अर्चना जी के खिलाफ़ ज़हर घोलने लगती।दिव्या उसे इग्नोर करती लेकिन कब तक..।जब झूठ बार-बार दोहराई जाये तो वह सच बन जाती है।दिव्या के मन में भी यह बात बैठ गई कि मानसी सच ही कह रही है।मेरी सास के इरादे ठीक नहीं है।वो मेरा घर तोड़ने आई हैं वगैरह-वगैरह।
अब दिव्या बात-बात पर अपनी सास पर झल्लाने लगी।बेवजह उनकी गलतियाँ निकालती…पीहू को भी उनके पास जाने नहीं देती…।अर्चना जी कुछ कहना भी चाहतीं तो वो नहीं सुनती।पत्नी के बदले व्यवहार से निशांत चकित था।सोचा, ऑफ़िस की टेंशन से शायद…।
एक दिन अर्चना जी सुना कि दिव्या फ़ोन पर किसी से कह रही थी,” ये यहाँ से जाये तो मेरी बला टले..।” ये बात उनके लिये असहनीय था।उन्होंने बेटे से कहा,” निशांत….बहुत दिन हो गये हैं…कुछ दिनों के लिए गाँव हो आती हूँ।
” निशांत अपनी माँ की मनःस्थिति को समझ रहा था।उसने ‘ठीक है’ कह दिया।मंदिर गईं तो उन्होंने अपनी कीर्तन वाली सखियों को भी कह दिया कि मैं कुछ दिनों के लिये अपने पैतृक घर जा रही हूँ।वही लोग उनसे मिलने आईं थीं जिन्हें देखकर दिव्या उन पर भड़क गई थी।बड़ी मुश्किल-से उन्होंने अपने आँसू रोके और अपना सामान पैक करने लगी।
अगले दिन पीहू को प्ले-स्कूल छोड़कर दिव्या ऑफ़िस जा रही थी कि रास्ते में उसे पड़ोस की मिसेज़ अग्रवाल मिल गई।उसे बधाई देते हुए बोली,” दिव्या…यू आर वेरी लकी।तुम्हें बहुत अच्छी सास मिली है।”
” क्या मतलब…!” दिव्या ने आश्चर्य-से पूछा।
मिसेज़ अग्रवाल कहने लगी,” कल तुम्हारी सास से मिलने कुछ लेडिज़ गईं थीं, उनमें मेरी मम्मी भी थी।उन्होंने ही आकर बताया कि अर्चना जी यानि तुम्हारी सास कह रहीं थीं कि मेरी बहू तो मेरी बेटी से भी बढ़कर है।मेरे बेटे से ज़्यादा वो मेरा ख्याल रखती है।
प्यार दीजियेगा तो बहू-बेटी में कोई फ़र्क नहीं है।उनकी बातें सुनकर सब तुम्हारी बहुत प्रशंसा कर रहीं थीं..चलती हूँ।” कहकर मिसेज़ अग्रवाल चली गई और दिव्या सोचने लगी कि ये मुझसे क्या हो गया।
किसी तरह वह ऑफ़िस गई लेकिन काम में उसका दिल नहीं लगा।सास के साथ किये गये दुर्व्यवहारों पर उसे आत्मग्लानि हो रही थी।वो कैसे भूल गई कि पीहू के समय उन्होंने कितनी सेवा की थी…थक जाती थी लेकिन कभी उफ्फ़ नहीं किया…
माँ से बढ़कर उन्होंने उसे प्यार दिया और उसने किसी की बातों में आकर क्षण भर में उनकी ममता और स्नेह को भुला दिया।वो तो अपने नकारात्मक व्यवहार से पति-पत्नी, सास-बहू और दादी-पोती के रिश्ते को तोड़ रही थी
लेकिन आज उसकी सास ने उसके टूटते रिश्तों को बचा लिया।हे भगवान! मुझे क्षमा करना।उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।अपने बाॅस को ‘urgent work’ का मैसेज़ देकर वह लैपटॉप बैग में रखने लगी तभी इठलाती हुई मानसी आ गई,” जानती हो दिव्या..।” तब तक वह बाहर निकल चुकी थी।
घर आकर सीधे वह सास के कमरे में गई और रोती हुई बोली,” आपने मुझे डाँटा क्यों नहीं…मैं कितना कुछ आपको बोलती रही…आपने मुझे रोका क्यों नहीं…निशा दी को समझा सकती हैं तो मुझे क्यों नहीं समझाया…मुझे माफ़ कर दीजिये मम्मी जी…किसी के बहकावे में आकर…।” वह सास कै पैरों पर गिर पड़ी।
अर्चना जी ने दिव्या के आँसू पोंछते हुए उसे गले से लगा लिया और बोली,” बेटी…रिश्ते तो हम बना लेते हैं लेकिन उन्हें अपनी सूझ-बूझ, विश्वास और धैर्य से संभालना भी पड़ता है।” उन्होंने दिव्या को पानी पिलाया और बोली,” मैं जानती हूँ तुम्हें…
तुम्हारा दिल साफ़ है…कभी-कभी मन भटक जाता है।जानती हो, मेरी सास बहुत अच्छी थीं लेकिन ननद का स्वभाव ज़रा तीखा था।मुझ पर ताना कसे बिना उनको खाना नहीं पचता था।लेकिन मैंने कभी भी न तो तुम्हारे पापा से और न ही माताजी से उनकी शिकायत की।
मैं नहीं चाहती थी कि भाई-बहन और माँ-बेटी के रिश्तों में दरार पड़ जाये…।” वो बोलती रहीं और दिव्या उनकी गोद में अपना सिर रखकर सोचने लगी,” मम्मी जी ने पहले भी चुप रहकर रिश्तों को टूटने नहीं दिया और आज भी मेरे परिवार के टूटते रिश्तों को संभाल लिया है।
” तभी उसके फ़ोन पर मैसेज़ आया कि पीहू को आकर ले जाईये…।
” बात करते-करते वक्त का पता ही नहीं चला..मैं पीहू को लेकर आती हूँ मम्मी..फिर चाय बनाती हूँ।” कहकर दिव्या स्कूटी की चाभी लेकर निकल गई।
डिनर करते समय निशांत बोला,” मम्मी..सामान पैक हो गया है…कल आपको…।”
” मम्मी कहीं नहीं जा रहीं हैं निशांत..।” दिव्या तपाक-से बोली।
” हाँ पापा…और अब मैं दादी के पास ही सोऊँगी…है ना दादी…।” कहकर पीहू दादी की गोद में चढ़ गई।निशांत ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया।उसके लिये यही बहुत था कि टूटते रिश्ते फिर से जुड़ गये थे।
अगले दिन दिव्या अपनी सास के हाथ से लंच बाॅक्स लेती हुई बोली,” मम्मी…मैं पीहू को छोड़ते हुए निकल जाऊँगी और आप उसे लेती आइयेगा।किसी तरह की दिक्कत हो तो तुरंत मुझे फ़ोन कर दीजियेगा।”
लंच टाइम में जैसे ही मानसी दिव्या के पास आने लगी तो दिव्या ने अपना रास्ता बदल लिया।
विभा गुप्ता
स्वरचित
# टूटते रिश्ते
आपसी प्यार और विश्वास से ही रिश्ते मजबूत होते हैं।मानसी जैसे लोगों के बहकावे में आकर कभी रिश्ते टूटने लगते हैं तो घर के बड़े चाहे वो माँ हो या अर्चना जी जैसी सास…टूटते रिश्तों को बचा लेती हैं।
I wish people like Mansi die soon.
Absolutely