आज़ वर्षों बाद बाबूजी की अस्थियां लिए,मैं उस शहर को लौटा था,जहां मेरा बचपन गुजरा था,जहां मुझे माँ की ममता मिली,पिता का प्यार मिला था, रिश्तों की परिभाषाएं समझ आई थी.!
पता चला सप्ताह भर की मूसलाधार बारिश के कारण सड़क कहें या रास्ता ,जगह जगह गड्ढे पड़ गए थे और बरसाती पानी से नाले लबालब भर गए थे.
मैं किसी तरह टगते टगते अपने गंतव्य तक पहुंचा.
शहर से थोड़ी दूर अपने घर पहुंचा था..
मैंने गहरी सी सांस ली, फिर चारों तरफ नजर दौड़ाई. ठीक सामने अपने टूटे फ़ूटे घर की ओर देखा तो बदन में एक अजीब सी सिहरन कौंध गई. मन व्यथित हो उठा था..
कभी यह टूटा फूटा घर एक मंदिर हुआ करता था,भरा पूरा चहकता सा,जो आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका था..
जहां कभी हरपल किलकारियां, चहचहाहटें ,गुंजा करती थी, लेकिन आज़ खामोशियों ने उनकी जगह ले ली थी..
जाने किसकी नज़र लगी कि सबकुछ तबाह हो गया…
लगातार बारिश के कारण आस पास उगे पेड़ पौधों पर कुदरती गहरा हरा रंग चढ़ चुका था.वहीं खंडहर हो चुके घर से अजीब सी विषैली गंध आ रही थी जो मन को बेचैन कर रही थी. ऐसी गंध मानों सबकुछ जल कर खाक हो गया हो..
सच ही तो था..सबकुछ तो खत्म हो चुका था,कुछ भी तो नहीं बचा था..
आज मैं जहां खड़ा था वह रिश्तों का मलवा ही तो था..जाने कितने रिश्ते इस मलवे में जलकर खाक हो दबे पड़े थे..
खंडहर के मलबे से झांकती टूटी दीवार से सटी बची खुची मटमैली ईंट से मुझे सहानुभूति हो रही थी,. ये ईंटें खालिस ईंट ही नहीं थी बल्कि मुकदृष्टा और राजदार थी एक दर्द भरी कहानी की.
मैंने आगे बढ़कर भाव बस टूटी दीवार से लगी ईंटों को स्पर्श किया जिन्हें छुने भर से मेरी आंखों के आगे वह कहानी बादल के टुकड़े की तरह फैलती चली गई.
सारा दृश्य में आंखों के सामने दृष्टिगत हो उठा..
बरामदे में कभी व्हील चेयर तो कभी आराम कुर्सी पर बैठे बाबूजी का चेहरा आंखों के सामने आ गया..सुबह सुबह जिनके हाथों में अखबार और चाय हुआ करती थी..
जिनकी चाय की आदत से माँ अक्सर परेशान रहा करती थी क्योंकि बाबूजी दिन भर में चाय कई बार पीते थे और माँ को बार बार चाय बनानी पड़ती थी..
सीढ़ियों से गिर जाने पर टांगों की चोट जब से बाबूजी को व्हील चेयर पर ले लाई थी, बाबूजी पूरी तरह से माँ पर निर्भर हो गए थे..मैं भी दिन रात उनकी सेवा में लगा रहता..
हालांकि मैं उनका अपना बेटा नहीं था,पर कभी भी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं उनका सगा बेटा नहीं,जहां तक सगे माता पिता से ज्यादा प्यार मिला मुझे इनसे..
मेरे लाख पूछने पर भी माँ ने मुझे कभी सच नहीं बताया कि वो मुझे कहाँ से लाई थी,जब भी पूछता कहती मंदिर के सीढ़ियों पर पड़ा रो रहा था ,माँ ने बहुत देर इधर उधर देखा जब कोई खोजने या पूछने नहीं आया तो घर ले आई,पहले तो पिता जी गुस्सा हुए थे फिर दिन बीतने के साथ उनका गुस्सा भी शांत हो गया..
धीरे धीरे समय बीतता गया और मैं उनके दो बेटे-और एक बेटी के साथ बड़ा होता गया..
लेकिन एक बात थी, जानें क्यूं उनके दोनों बेटे जो मुझसे उम्र में बड़े थे हर समय मुझसे ख़फ़ा रहते,हर समय मुझे मारते पीटते रहते,कारण मैं कभी समझ नहीं पाया,पर मैं चुपचाप सब सहता रहता…
शायद उन्हें मां का मुझे मंदिर से उठा घर ले आना कभी पसंद नहीं रहा ,माँ ने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की परंतु उनकी हर कोशिश व्यर्थ जाती..
हाँ बहन थी जो थोड़ा थोड़ा समझती थी,कभी किसी तरह की कोई रंजिश नहीं दिखाई,हां दोनों भाई के डर से कम बात करती मुझसे..
समय के साथ पहले बहन फिर दोनों भाईयों की शादी हो गई,बहन ससुराल चली गई और घर में दो बहूएं आ गईं,फिर भी बाबू जी को और घर के कामों का बहुत सा हिस्सा माँ स्वयं ही सम्भाल लेती थीं जिसमें मैं माँ की मदद कर दिया करता,दोनों भाभियाँ बस हल्की-फुल्की काम करती और अपने अपने कमरे में चली जातीं..माँ कुछ कहती तो बिफर उठतीं.
मैं सब देख सुन तड़प उठता, इसलिए कोशिश करता ज्यादा से ज्यादा माँ का हाथ बटाऊँ, बाबूजी की सेवा करूँ ताकि माँ को आराम मिले..
परंतु जब भाई घर आतें तो भाभियां जाने क्या कहती सुनाती कि दोनों मुझपर गुस्सा करतें,मैं सफाई में कुछ कहता तो मुझे मारते पीटते..
माँ बाबूजी यह सब देख दुखी हो रोने लगते बाद मैं उन्हें यह कह कर शांत करता कि दोनों भाई मुझसे बड़े हैं कोई बात नहीं जो मुझे मारते पीटते हैं..
कहते हैं आप लाख कोशिश करें कुछ बातें कभी नहीं बदलतीं,मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था,मेरे सबकुछ सहते रहने पर भी मेरे प्रति मेरे भाईयों का रवैया नही बदला..
बीतते वक़्त के साथ दोनों भाभियों के द्वारा कान भरने से भाईयों के मन में मेरे प्रति कड़वाहट और बढ़ती चली गई और इतनी बढ़ गई कि बात मेरे घर निकाले तक पहुंच गई..माँ बाबूजी के लाख मना करने के बावजूद उन दोनों ने मुझे धक्के मारकर घर से निकाल दिया..
मैंने बाबूजी का हवाला दिया. माँ के उम्र का हवाला दिया,लाख कहा भैया इनकी सेवा करता रहूंगा मुझे घर से मत निकालो लेकिन उन दोनों ने मेरी एक न सुनी.!
दोनों भाभियां भी भाईयों को उकसाती रहीं..
मैं घर छोड़ पास के शहर आकर नौकरी करने लगा,समय समय पर एक मित्र से माँ बाबूजी का हाल चाल लेता रहता..कभी कभी समय निकाल ..माँ बाबूजी से..चोरी छीपे मिल भी आता
मित्र से ही पता चला दोनों बहूएं माँ बाबूजी को बहुत कष्ट देती हैं, बाबूजी तो लाचार थे ही माँ भी बीमार रहने लगी थी..
दोनों बहूओं का अत्याचार बढ़ता जा रहा था, दोनों भैया भी मुकदर्शक बन सबकुछ देखते रहते हैं कुछ भी कहा नहीं जाता उनसे.
बहन भी कभी बीमार माँ और बाबूजी को मुड़कर ताकने नहीं आती..
इस बीच मैंने कई बार कोशिश की,चोरी छीपे घर आकर माँ बाबूजी से कितनी बार कहा कि वो दोनों मेरे साथ चले लेकिन हर बार दोनों मना कर देतें मैं हर बार खाली मन वापस लौट आता..
फिर एक दिन एक दुखद समाचार मिला, एक एक्सिडेंट में बहन बहनोई की मृत्यु हो गई..
माँ यह दु:ख सहन न कर सकी और दम तोड़ा दिया..
मेरा मन दुखित हो उठा मैं घर लौटा माँ बहन की क्रिया कर्म के बाद बाबूजी को किसी तरह मनाकर अपने साथ ले आया
आते वक़्त दोनों भाभियों को कहते सुना
चलो मुसीबत से जान छूटी,
एक दुनिया छोड़ गई एक घर से जा रहें..
दोनो भाई सुनकर भी कुछ नहीं कहा न ही मुझे बाबूजी को ले जाने से रोका
मेरा मन मसोसकर रह गया..
उनकी तरफ देख..मैं सोचने लगा जिस माँ ने अकेले लाचार बाबूजी और पूरा घर संभाला हुआ था,दोनों बेटों व बेटी को संभाल रखा था अपने दो बेटों एवं बहुओं को बोझ लगने लगे थी,भाई- भाभियाँ मिल कर माँ बाबू जी को नहीं सम्भाल सके थे.. यहां तक उनकी बेटी ने भी उन्हे नहीं पूछा था..
मैं बाबूजी को अपने घर ले आया…
इस बीच समय का चक्र अपनी गति से बढ़ता रहा दोनों भाई एवं भाभियां बड़े शहर जाकर बस गए थे, सूना घर सबकी राह जोहता रहा..मैं बाबूजी से कहता भी तो लौटने से मना कर देते…
मैं इधर बाबूजी की सेवा करता रहा..
लेकिन माँ के बाद तो बाबू जी ने मुस्कराना ही छोड़ दिया माँ थी तो उनका बहुत ख़याल रखती थी। माँ के बाद उन्हें कभी संभलना नहीं आया,अपने -आप में खोए रहते थे,बिखर गए थे वो…साथ ही बिखर गए थे सब रिश्ते..
मेरी लाख सेवा और कोशिशों के बावजूद उनके चेहरे पर हंसी नहीं देखी मैंने.
फिर एक दिन मां के गम़ में वो भी चल बसे..मैंने दोनों भाईयों को खबर की पर दोनों ने ही आने से मना कर दिया,
मुखाग्नि भी मुझे ही देनी पड़ी..
आज उनकी अस्थियां लेकर बाबूजी के घर आया था जो खंडहर हो चुका था, जहां रिश्तों की समाधि मलवा बनी पड़ी थी और उन्हीं समाधियों के बीच बाबूजी की समाधि बननी थी…ठीक माँ की समाधि के बगल में..
जहां माँ ने दम तोड़ा था,माँ बेटे,पिता पुत्र,भाई बहन,सास बहू सभी रिश्तों ने दम तोड़ा था..जहां सभी रिश्ते बिखर से गए थे…. स्वार्थ की आग में भस्म हो चुके थे…
तभी पीछे से मेरे मित्र ने मुझे मेरे कांधे पर हांथ रखकर चौंका दिया,ऐसा लगा मानों उसने मुझे भावनाओं के समंदर में डूबने से पहले ही संभाल लिया था..जिसे शायद खबर जान पड़ी थी कि मैं आया हूँ,मैंने भरी आंखों से मुड़कर देखा,उसकी आंखें भी नम थी… बाबूजी की अस्थियां देखकर… टूटते बिखरते रिश्तों का साक्ष्य देखकर…
विनोद सिन्हा “सुदामा”
एक एक शब्द सीने में भाले की तरह उतर गया है इस मौलिक, मासूम और मार्मिक कहानी का।बहुत बहुत धन्यवाद लेखक महोदय जी आपका इतनी सुंदर रचना के लिए।
Absolutely, par isko badha mat Vinod bhai