रिश्तों के बीच कलह क्यों? – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

 ” मंजू…सुबह-सुबह ये क्या महाभारत लगा रखा है?” किचन से शोर सुनकर कृष्णकांत जी ने अपनी बेटी से पूछा।

   ” कुछ नहीं पापा…मैंने रचना से कहा कि भिंडी की सब्ज़ी सूखी बनाना..पापा जी को रसेदार सब्ज़ी पसंद नहीं है..इसी बात पर मुझसे बहस करने लगी।” मंजू के कहते ही रचना बोली,” इसमें बहस की क्या बात है दीदी…पापा जी तो लास्ट वीक ही भिंडी की रसेदार सब्ज़ी की तारीफ़..।” कृष्णकांत जी आगे नहीं सुने

और ऑफ़िस चले गये।मंजू और रचना में बहस होते देख कृष्णकांत जी की पत्नी मनोरमा जी ड्राइंग रूम के सोफ़े पर अपना सिर पकड़कर बैठ गई और बुदबुदाई,” ये मंजू भी ना..दो बच्चों की माँ हो गई है लेकिन फिर भी जब भी यहाँ आती है,घर में अशांति फैला देती है।”

     माता-पिता की इकलौती संतान मनोरमा की इच्छा थी कि उनका ससुराल भरा-पूरा हो और ऐसा हुआ भी।विवाह के बाद उनके पति कृष्णकांत अपनी पढ़ाई पूरी करने शहर चले गये और सास-ससुर के साथ एक छोटी ननद और लाडले देवर के साथ हँसते-खेलते उनके एक साल कैसे बीत गये..उन्हें पता ही नहीं चला। फिर वो पति के साथ शहर चलीं आईं।

      ग्रेजुएशन पूरी करके कृष्णकांत ने एक-दो जगहों पर अस्थाई तौर पर काम किये लेकिन उन्हें तसल्ली नहीं मिली।आठ महीने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी

और अपने पिता के सहयोग से हार्डवेयर की एक दुकान खोली जो धीरे-धीरे शहर की प्रसिद्ध दुकानों में गिनी जाने लगी।उन्होंने अपना घर बना लिया।ईश्वर की कृपा से उनकी पत्नी की गोद में मंजू, संजय और अंजू तीन बच्चे खेलने लगे और वो उन्हें पालने-पोसने में व्यस्त हो गईं।

     मनोरमा की ननद विवाह करके ससुराल चली गई और देवर दिल्ली के एक बैंक में नौकरी करने लगा।सुनीता नाम की लड़की के साथ विवाह करके वह वहीं सेटेल हो गया।त्योहारों पर वे जब ससुराल जातीं तो देवर-ननद भी आ जाते और सभी के साथ हँसते-बोलते दिन कैसे बीत जाते उन्हें पता ही नहीं चलता था।

उनकी सास उनसे हमेशा एक ही बात कहती थीं कि मनोरमा..तुम इस परिवार की बड़ी हो..इस घर की शांति को बनाये रखना..रिश्तों के बीच कभी क्लेश नहीं होने देना।सास-ससुर के देहांत के बाद भी उनका सभी से मधुर संबंध बना रहा।

       मनोरमा के तीनों बच्चे सयाने हो रहे थे।एक दिन अंजू अपनी सहेली के घर जाने लगी तो आदतन मंजू ने उसे टोक दिया,” तेरी वो सहेली ठीक नहीं…तू उसके घर मत जा।” सुनकर वो भड़क गई,” दी..अब मैं बड़ी हो गई हूँ..अपने अच्छे-बुरे की समझ है मुझमें।”

   ” फिर भी मैं तेरी बड़ी बहन हूँ और तुझे सही राह दिखाना मेरा फ़र्ज़ है।” 

      इसी तरह से मंजू अपने भाई संजय को भी उसकी पढ़ाई तो कभी उसके कपड़े पहनने पर टोक देती तो संजय उसे जवाब दे देता।फिर दोनों में बहस होती और घर में अशांति हो जाती।

         मंजू का ग्रेजुएशन पूरा होते ही कृष्णकांत ने अपने ही एक परिचित के बेटे डाॅक्टर मोहनीश के साथ उसका विवाह करा दिया।विदाई के समय मनोरमा जी ने धीरे-से उसे समझाया कि ससुराल में तेरी एक छोटी ननद है।उसके साथ प्यार-से रहना…अपनी मर्ज़ी थोपकर घर में क्लेश मत करना।

     समय के साथ अंजू की पढ़ाई भी पूरी हो गई तो मनोरमा जी ने दिल्ली के एक साॅफ़्टवेयर इंजीनियर के साथ उसका भी पाणी-ग्रहण संस्कार करके अपनी एक और ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गईं।संजय अपनी पढ़ाई के दौरान ही पिता के दुकान पर कभी-कभी चला जाता था, काॅलेज की पढ़ाई पूरी करके वह पूरी तरह से दुकान को संभालने लगा।

     संजय के लिये कृष्णकांत जी लड़की तलाश कर रहें थें तब मंजू ने उन्हें बताया कि मेरे परिचित की बेटी है रचना..सुन्दर, सुशील और पढ़ी-लिखी।आप संजय के साथ जाकर लड़की और परिवार से मिल लीजिये..पसंद आ जाये तो…।

       अगले ही दिन कृष्णकांत जी सपरिवार लड़की देखने पहुँच गये।संजय और रचना ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया।फिर दोनों परिवारों ने आपस में बातचीत भी कर ली और एक शुभ-मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया।

         रचना ने जल्दी ही अपने व्यवहार से ससुराल में सबका दिल जीत लिया।मंजू-अंजू भी आतीं तो प्रसन्न-मन से उनकी खातिरदारी करती।वे दोनों भी अपने ससुराल में अपनी भाभी की प्रशंसा करते नहीं थकतीं।

     एक दिन बातों ही बातों में मनोरमा जी ने मंजू से कह दिया कि रचना के आने से अब हमें तुम लोगों की कमी कम खलने लगी है।उसके बाद से मंजू महीने दो महीने में जब भी मायके आती तो रचना पर बड़ी ननद होने का हुक्म चलाने का प्रयास करती।कभी उसे कहती कि चाय में चीनी बहुत डाली है

तो कभी किचन के शेल्फ़ पर हाथ लगाकर उससे कहती कि तुम्हें रसोई की सफ़ाई करनी भी नहीं आती।रचना रिश्ते का लिहाज़ करके चुप रह जाती।कभी जवाब देना भी चाहती तो सास उसे चुप रहने का इशारा कर देती।फिर रचना अपनी भड़ास संजय पर निकालती और फिर उन दोनों के जीवन में अशांति हो जाती।

मनोरमा जी ने बेटी को समझाने का प्रयास भी किया कि रचना के काम में टोका-टोकी करके घर की शांति को मत भंग किया कर लेकिन मंजू उनकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती थी।

       मंजू के बच्चों की दो दिन की छुट्टियाँ हुई तो मंजू अपने मायके पहुँच गई।दोपहर के खाने के लिये भिंडी की सूखी सब्ज़ी- रसेदार सब्ज़ी बनाने की बात पर उसकी रचना के साथ बहस होने लगी।संजय और उसके पिता तो अपने कान में रूई डालकर वहाँ से चले गये और मनोरमा जी अपना सिर पकड़कर बैठ गईं।तभी मंजू का बेटा अंश उनके पास आकर बोला,” नानी..प्यास लगी है..।” बेटी आराध्या बोली,” मुझे भूख भी लगी है नानी..।”

       मनोरमा जी ने देखा कि मंजू लगभग चीखते हुए कह रही थी,” मेरी वजह से ही तुम्हें ये ठाठ-बाट मिले हैं।” सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा।वे थके हुए कदमों से उठी और दोनों बच्चों को साथ लेकर बहू से बोली,” रचना..दोनों बच्चों को कुछ खिलाकर पानी पिला दे..मैं ज़रा…मंजू…तू आकर मेरा सिर दबा दे तो…।” कहकर वे अपने कमरे में चलीं गईं।

        मंजू कमरे में गई तो मनोरमा जी तुरंत उठकर बैठ गईं और बेटी के कंधे पर प्यार-से हाथ रखते हुए बोलीं,” अब बता..क्या बात है…तू इतनी परेशान क्यों है?”

 ” परेशान! नहीं तो..ऐसी तो कोई बात नहीं है।” कहते हुए मंजू की आवाज़ लड़खड़ाने लगी।

   तब मनोरमा जी बोली,” पिछले कुछ महीनों से मैं देख रही हूँ कि तू जब भी यहाँ आती है तो बेवजह रचना से उलझ जाती है।गाहे-बेगाहे उसके काम में गलतियाँ निकालकर उसे नीचा दिखाने का प्रयास करती है।मुझे लगा कि तुझे समझ आ जायेगी लेकिन आज…।शायद तुझे यह गलतफ़हमी हो गई है

कि रचना के आने से तेरा महत्त्व कम हो गया है लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है।तू इस घर की बेटी है और तेरा वो स्थान कोई नहीं ले सकता है परन्तु रचना इस घर की बहू है..ये उसका घर है।उसे इतनी आज़ादी तो है कि वह अपनी मर्ज़ी से अपने घर को संवार सके और घरवालों की पसंद का ख्याल रख सके।”

     उधर रचना सास-बहू को एक साथ कमरे में कमरे में जाते देखी तो समझ गई कि मम्मी जी तो हमेशा से ही अपनी बेटी का पक्ष लेतीं आईं हैं..आज तो जी भरकर मेरी शिकायत करेंगी।ज़रा चलकर सुनूँ तो..।उसने आराध्या और अंश को केक खिलाये और दोनों के हाथों में फ़्रूटी का एक-एक बाॅटल थमाकर वह अपनी सास के कमरे की ओर चल दी।

दरवाज़े तक पहुँचते ही उसे मनोरमा जी आवाज़ सुनाई पड़ी,” रचना ने हमें कभी भी शिकायत का मौका नहीं दिया है, फिर भी तुझे खुश करने के लिये और गृह- शांति को बनाये रखने के लिये मैंने न जाने कितनी ही बार उस मासूम का दिल दुखाया है।उसे दुखी देखकर संजय को भी तो कितना बुरा लगता होगा।

देखो बेटी…रिश्तों के बीच कलह करने से तो घर में अशांति फैलेगी और कोई भी सुखी नहीं रह सकेगा…।” इसके आगे रचना सुन न सकी।वह रसोई में चली गई।अपनी सास के लिये उसने कितनी गलत धारणा बना ली थी,यह सोचकर उसका मन ग्लानि से भर उठा और आँखें सजल हो गईं।

     ” लेकिन माँ…वो भिंडी की रसेदार सब्ज़ी…।” मंजू ने अपनी चिंता ज़ाहिर की तो मनोरमा जी हँस पड़ीं, बोलीं,” एक बार तू उसके हाथ की बनी सब्ज़ी खाकर तो देख..तेरे पापा तो उँगलियाँ चाट-चाटकर खाते हैं।” 

      ” ठीक है माँ।” कहकर मंजू किचन में गई और रचना के कंधे पर हाथ रखकर उसे चौंका दिया।

  ” अरे दी आप!” रचना ने झट-से अपने आँसू पोंछ लिये।

  ” हाँ मैं…, क्या पका रही है?

” भिंडी की सूखी सब्ज़ी…।”

 ” क्यों भई…अपने सास-ससुर को ही स्वादिष्ट सब्ज़ी खिलानी है…ननद को नहीं..।आज तो मुझे तुम्हारे हाथ की ‘रसेदार भिंडी ‘ ही खानी है।”

  ” सच दीदी…।” फिर तो रचना बड़े उत्साह से लंच तैयार करने में जुट गई।

        लंच टाइम में संजय अपने पिता के संग घर आये…डाइनिंग टेबल पर खाना परोसा गया।भिंडी की सब्ज़ी खाते ही पिता के साथ मंजू भी कह उठी,” वाह! सब्ज़ी हो तो ऐसी! ” तभी हाथ में मंजू का मोबाइल लेकर आराध्या आई और सेल्फ़ी लेने का पोज बनाती हुई मंजू से बोली,” मम्मी..स्माईल!

” फिर तो सभी ठहाका मारकर हँस पड़े और मनोरमा जी उन्हें देखकर भावविभोर हो गईं।ननद-भाभी के रिश्ते में फिर से मिठास देखकर उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा था।

                                  विभा गुप्ता 

# अशांति                स्वरचित, बैंगलुरु 

            परिवार में नये सदस्य के आगमन से कोई एक सदस्य स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है।उसके व्यवहार से घर में अशांति होने लगती है तब घर का कोई एक बड़ा अपनी समझदारी दिखाता है जैसा कि मनोरमा जी ने दिखाया।

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