रिश्तो का मेकअप – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

बहुत दिनों से संध्या के दिल और दिमाग में एक लड़ाई चल रही थी.. अजय को छोड़ती है तो बच्चों का क्या होगा? कैसे अकेले परवरिश कर पायेगी? कैसे समाज में अपने को सुरक्षित रख पायेगी? कई प्रश्नों के जाल में उलझी संध्या को चैन नहीं मिल रहा। करवटे बदलते रात गुजरी। सुबह फिर काम की आपधापी में वो सब भूल गई… बच्चें स्कूल चले गये… अजय ने फिर हमेशा की तरह उसे सॉरी बोला। ऑफिस चला गया।

बाल साँवरते जैसे ही उसकी निगाह शीशे में पड़ी… संध्या का मन कराह उठा। माथे के गुमड़ को बालों से ढँककर कब तक छुपायेगी। हर रात अजय पीकर आता और संध्या के साथ मारपीट करता। कल तो उसने जोर से धक्का दिया, जिससे संध्या दीवार से टकरा गई थी…सास भी देखती पर अपने बेटे को कुछ नहीं कहती।

वो औरत होकर भी औरत का दर्द महसूस नहीं कर पाती। बच्चें सहमकर कमरे में बन्द हो जाते। अजय हीन भावना से ग्रस्त था। वो उन लोगों में से था जो औरत की तरक्की को बर्दाश्त नहीं कर पाते। 

 अजय संध्या को मार पीट कर, मज़ाक उड़ाकर अपने अहम को संतुष्ट करता। बाहर वालों के सामने संध्या को बेवकूफ कह बेइज्जत करता रहता। संध्या प्रतिवाद करना चाहती पर छोटे बच्चों के सहमे चेहरे उसे प्रतिकार करने से रोक देते। सारे काम ख़त्म कर ऑफिस जाते हुए

एक बार फिर बालों की लट घुमाकर गुमड़ को छुपाया पर अपने जख़्मी शरीर और मन का मेकअप कर-करके संध्या अब थक चुकी थी। ऑफिस में मेघा ने उसे माथे पर लट सजाये देख इतना ही बोली….आज फिर…..तुम उससे ज्यादा बड़े पद पर हो, ज्यादा कमाती हो, फिर क्यों सहती हो..सबकुछ।

जिस इंसान को तुमसे प्यार नहीं, जानवरों की तरह मारता है। क्यों रहती हो उसके साथ? रूँधे स्वर में संध्या बोली… बच्चों को पिता से कैसे दूर करूँ। पर तुम बच्चों के मन में जो खौफ भर रही वो नहीं दिखता तुम्हें। निर्णय तो लेना पड़ेगा संध्या कब तक आत्मसम्मान खोकर जियोगी…

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शादी का मतलब ये नहीं कि पति को मारने-पीटने का अधिकार मिल गया…पति-पत्नी दोनों दाम्पत्य रथ के दो पहिये हैं.. एक भी असंतुलित होता तो गाड़ी आगे नहीं चलती… संध्या जब तक तू प्रतिवाद नहीं करेगी। तुझे तेरी जगह कोई नहीं दिला पायेगा…जो खुद अपनी मदद करता है, उसकी ईश्वर भी मदद करता हैं। इतना कहकर मेघा अपने केबिन में चली गई।

 थकी हारी संध्या घर लौटी तो अलग नजारा था… बेटी के माथे से खून निकल रहा था.. बेटे ने किसी बात पर नाराज हो बहन को जोर से धक्का दे दिया। बेटे को जोर का थप्पड़ लगा, संध्या बेटी को ले अस्पताल भागी.. उसकी पट्टी करा घर आई तो अनायास हाथ अपने गुमड़ पर चला गया। बेटा नाराज बैठा था… संध्या ने उसे बुलाकर बोला….कोई बहन को इस तरह धक्का देता है…

पापा भी तो आपको धक्का देते हैं… आप और तनु लड़की हो ना… मैं तो लड़का हूँ… कुछ भी कर सकता हूँ। मैं भी बड़े होकर पापा जैसे अपनी बीवी को मरूंगा। सात साल के बच्चे से ये सुन संध्या अवाक रह गई।

संध्या के दिल और दिमाग का संघर्ष ख़त्म हो गया.. बस अब और नहीं… नहीं तो बेटा.. एक और अजय बन जाएगा। सामान पैक कर उसने बाहर जाने के लिए दरवाजा खोला सामने अजय खड़ा था। कहाँ चली ये सवारी.. कह व्यंग से मुस्कुराया। शांत स्वर में संध्या ने कहा….जो काम मुझे पहले करना था वो आज करने जा रही हूँ…. मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ। मैंने बहुत कोशिश की शायद तुम सुधर जाओ… पर तुम्हारा अहम.. तुम्हें छोड़ नहीं

रहा। बहुत प्रताड़ित हो चुकी। सिर्फ बच्चों के लिए झेल रही थी, पर अब तो बच्चों तुमसे ही सीखकर….तुम्हारी नकल कर रहे हैं… मुझे इस नरक से निकालना है इनको… ताकि दूसरा अजय ना पैदा हो इनमें और बेटे को औरत की इज्जत करना सिखाना हैं। बच्चों की अच्छी परवरिश बहुत जरूरी है। रिश्तों का मेकअप करते मैं थक गई। कह संध्या घर से निकल गई… एक खुले आसमां में… जहाँ वो बच्चों को अच्छी परवरिश दे सके। प्यार और आत्मसम्मान से जी सके।

दोस्तों आप बताना, क्या संध्या ने सही किया।

लेखिका : संगीता त्रिपाठी

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