सुचित्रा जी के चेहरे पर आज एक अद्भुत उत्साह और खुशी का संगम था। उनकी ऑंखों में चमक थी और मुस्कान ने उनके चेहरे पर चमक बिखेर दी थी। पचहत्तर साल की उम्र के बावजूद, उनके पैर नृत्य करते हुए खुशी से उछल रहे थे, जैसे कि वे अपने सपनों के साथ एक नए युग में कदम रख रही हों।
उनके नृत्य में एक अलग ही जोश और उत्साह था, जो देखने वालों को भी उत्सव को जीने के महौल में ले जा रहा था। उनकी खुशी उनके चेहरे के रंग में एक नई ऊर्जा घोल रही थी। उनकी गतिविधियों में उमंग ही उमंग दिख रहा था, इस समय में, उनकी सारी आशाएं,
सपने और इच्छाएं एक साथ नृत्य की गतियों में उल्लसित होती लग रही थीं, जैसे कि उनके हृदय में संगीत की अनगिनत ध्वनियाँ गूंज रही हों। उनकी इस खुशी का रहस्य था उनके प्यारे इंजीनियर पोते की शादी, जो उनके जीवन के चरम पर उत्सव का आयोजन कर रहा था और उनके पोते के प्यार ने उनकी खुशी को चार चाँद लगा दिए थे, जब उसने सुपर्णा के बारे में सबसे पहले अपनी दादी को ही बताया।
“हें, विजातीय लड़की!” दादी के माथे पर बल पड़ गए थे और ऑंखें फैल गईं थी।
अरे अपने पिता को जानता नहीं क्या तू। जमींदारी चली गई, जमींदार होने का धौंस नहीं गया है। जमींदारी का धौंस तेरे पिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और इसे खोने का दुःख उसे बाहर से नहीं ही अंदर से छू रहा है। भले ही उसने जमींदारी के बारे सुना ही है, फिर भीउसकी तो मूँछों पर ही बन आएगी।” सुचित्रा जी की आवाज में चिंता और उदासी साफ़ दिख रही थी।
“आपको तो कोई आपत्ति नहीं है ना दादी।” नवीन दादी की चिरौरी करता हुआ पूछता है।
नवीन के प्रश्न पर दादी अपने पोते की पेशानी को चूमते हुए भावनात्मक रूप से गदगद स्वर में कहती हैं, “ना रे.. हमें काहे की आपत्ति.. जहाँ मेरे लाडले की खुशी.. वहाँ मेरी खुशी। जब पोता खुश होता है, तो दादी भी खुश होती है।” इस समय दादी और पोते के बीच एक गहरा प्रेम और संबंध की भावना व्यक्त हो रही थी।
“तो फिर दादी नाई को बुलवा कर अपने बेटे की मूँछें साफ़ करवा दीजिए ना।” नवीन हँसता हुआ कहता है।
“ना रहेगा बाँस ना बजेगी बाँसुरी”… पोते के साथ हाई फाई करती हुई सुचित्रा जी हॅंसी के साथ आगे कहती हैं।
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“एक बात पूछूँ दादी।” दादी की गोद में सिर रखते हुए नवीन कहता है।
“हूँ.. पूछ ना”… सुचित्रा जी नवीन के बालों को सहलाती हुई कहती हैं।
“आपने अपने बेटे को अपनी तरह कूल क्यूँ नहीं बनाया।” नवीन चुहल करता हुआ पूछता है।
चुप कर.. तेरा बाप है वो.. ये कूल-वूल क्या होता है।” दादी प्यार से आँख तरेरती हुई कहती है।
“कूल माने जो शांति से बातों को सुने, समझे.. तब निर्णय ले और बिना बात अपने निर्णय को किसी पर थोपे नहीं और वो हैं आप मेरी प्यारी दादी।” नवीन उठकर दादी के दोनों गाल खींचते हुए कहता है।
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“दादी, भैया! माँ पूछ रही हैं.. चाय यही दे जाऊँ या नीचे चलना है।” नवीन की छोटी बहन नीतू जो कि अपनी माँ आशा की तरह ही थोड़ी नकचढ़ी थी, आकर मुँह बनाती हुई माँ का संदेश सुनाती है।
“आ रहे री हमलोग, सबने साथ बैठकर चाय पीनी है। सुरेंद्र आ गया क्या?” दादी नवीन के साथ खड़े होते हुए अपने बेटे के बारे में पूछती हैं।
“पापा दालान(घर के बाहर का अहाता) पर हैं। गाँव के कुछ लोग आए हैं। वहीं सबके लिए चाय मँगवाया गया है। शीला लेकर गई है।” नीतू नीचे जाने के लिए मुड़ती हुई बताती है।
“चल शीला आ गई…ये ठीक है।” दादी कहती हुई सीढ़ियाँ उतरने लगती हैं और नवीन उन्हें सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाता है।
“ना रे.. अभी तेरी दादी इतनी बुढ़ी नहीं हुई है कि सहारे की जरूरत पड़े। अभी तो तेरे बच्चे भी पालने हैं।” नवीन से कहती हुई दादी खुद ही सीढ़ियाँ उतरने लगती हैं।
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आरती झा आद्या
दिल्ली