अरे विजय मां कह रही थी कि तुम बाबूजी की तेरहवीं की रस्म एक मंदिर में कर रहे हो। दिनेश ने अपने छोटे भाई विजय से कहा हां भैया मां सही कह रही है । आप तो जानते ही हैं बाबूजी को लीवर का कैंसर था जिसमें उनकी हर महीने कीमोथेरेपी होती थी। बाबूजी के इलाज में बहुत पैसे लग गए थे, छोटी कंपनी होने की वजह से मेरी कंपनी में इंश्योरेंस की सुविधा भी नहीं है
इसलिए इलाज के लिए कंपनी से भी कोई पैसा नहीं मिल पाया था। बाबूजी बेचारे हमेशा कहा करते थे अपना इंश्योरेंस कराने के लिए लेकिन मेरी बुद्धि ने काम नहीं किया, खैर मुझे शिकायत नहीं रहेगी कि मैं अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया। पैसे का क्या है उनका आशीर्वाद रहा तो फिर कमा लूंगा? वह तो ठीक है लेकिन लोग क्या कहेंगे, सारे रिश्तेदार आएंगे
और मेरी जान पहचान के लोग तो काफी बड़े-बड़े घरों के हैं सब लोग यही कह देंगे इतना बड़ा व्यापार है बड़े बेटे काका, लेकिन फिर भी अपने पिता की तेरहवीं में पैसे खर्च नहीं हुए दोनों भाइयों से, आखिर उनका आखिरी काम है तो हमें दिल खोलकर पैसे खर्च करने ही चाहिए । मैं आज ही एक बैंकट हॉल बुक कर देता हूं। बेशक मंदिर बहुत बड़ा है लेकिन आजकल कौन तेरहवीं की रस्म भी मंदिर में करता है।
छोटे से छोटे लोग भी छोटा सा बैंकट हॉल बुक करा ही लेते हैं वह तेरे अकेले के पिता नहीं थे मेरा भी कुछ फर्ज है उनके लिए।लेकिन भैया मैंने सारा इंतजाम कर लिया है मैं आपसे कोई पैसा नहीं लूंगा। हम सभी लोगों को आदर के साथ बुलाएंगे, जरूरी तो नहीं खाने में बहुत सारा सामान ही बनवाया जाए जो बाबूजी को पसंद था वह सब कुछ मैंने भी हलवाई से बनाने के लिए कह दिया।
पंडितों के भोज के लिए और दक्षिणा के लिए भी जैसे-जैसे पंडित जी ने बताया था सब कुछ वैसा ही किया है। मां से भी सब कुछ पूछ लिया है माँ की भी यही इच्छा है।मुझे दिखावे में कोई यकीन नहीं है। लोगों का तो काम ही होता है बातें बनाना। हम किसी की सोच को नहीं बदल सकते। जिसे जो कहना है वह हर तरह से ही कहेगा । मुझे इस सब का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मेरी आत्मा को तसल्ली है
कि बाबूजी के जीते जी हमने किसी चीज की कमी नहीं होने दी ना ही उनके इलाज में कभी कोई कटौती की है और इसमें मेरी पत्नी संध्या ने भी मेरा पूरा साथ दिया है? मुझे पता है मेरे बाबूजी की आत्मा मुझसे खुश है मुझे लोगों क कहने या ना कहने का कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें नहीं पड़ता लेकिन मुझे पड़ता है मैं अभी के अभी बैंकट हॉल बुक करा देता हूं। दिनेश थोड़ी सी ऊंची आवाज में बोला। कोई जरूरत नहीं है
दिनेश उनकी मां सावित्री जी ने पीछे से कहा जो बहुत देर से सब कुछ चुपचाप सुने जा रही थी। आज तुम्हे लोगों के कहने की चिंता हो रही है उस समय तो तुम्हें कोई चिंता नहीं हुई जब तुम्हारे बाबूजी बिस्तर पर पड़े थे।
मैंने तुमसे तबभी कहा था थोड़ी सी मदद करने के लिए अपने छोटे भाई की लेकिन तब तो तुम्हारे पास फूटी कोड़ी भी नहीं निकली , तुमसे बिना किसी अपेक्षा के।सारा खर्च अकेले विजय ने हीं उठाया है। इसने और इसकी पत्नी ने दिन रात एक कर दिया था उनकी सेवा में। एक ही शहर में रहने के बावजूद तुम दोनों पति-पत्नी तो हफ्ते में एक बार ही औपचारिकता के तौर पर आते थे। क्या उस समय वो तुम्हारे पिता नहीं थे? अगर विजय भी तुम्हारे जैसा ही हो जाता तो पता नहीं फिर तुम्हारे बाबूजी की बीमारी की वजह से क्या हालत हो जाती कहते-कहते सुमित्राजी रो पड़ी।
अपने आंचल से अपनेआंसू पूछते हुए उन्होंने कहा
तुम्हारे पिता यूं ही विजय को श्रवण कुमार नहीं कहते थे। जीते जी तो तुमने उनका कोई ख्याल नहीं किया अब मरने के बाद यह सब ढकोसला दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। और विजय तुम समाज की चिंता मत करो तुम्हारे पिता तुमसे पूरी तरह संतुष्ट थे। मेरे लिए यही काफी है। अपनी चादर के अनुसार ही इंसान को।पैर पसारने चाहिए।अपनी मां के मुंह से ये शब्द सुनकर दिनेश की आगे कुछ बोलने की हिम्मत नहीं थी। सही तो कह रही थी सावित्री जी, इतना पैसा होने पर भी उसने अपने पिता की बीमारी में कोई पैसा खर्च करना जरूरी नहीं समझा था फिर उनकी मृत्यु के बाद उनकी आखिरी रस्म में क्या दिखावा करना?
पहुंच जाओ बुलंदियों पर छूलो चाहे आसमां भी
मां-बाप ही अगर खुश नहीं, किसी काम की वो दौलत नहीं
पूजा शर्मा स्वरचित
#रिश्ते की डोर न टूटे