रिश्ते – डा. नरेंद्र शुक्ल

पूरे सात वर्षों के बाद मनोहर अपने गॉंव चाचा के पास जा रहा था । चाचा नेे उसे जरूरी काम से बुलाया है । क्या काम हो सकता है ? चाचा ठीक तो है ? उसके मन में कई प्रशन उभर रहे थे । उसके चाचा इस धरती पर उसके लिये भगवान द्वारा भेजे हुये किसी फरिश्ते से कम नहीं थे । उसके मन में चाचा से मिलने की बड़ी उमंग थी ।

केवल पॉंच वर्ष का ही तो था जब उसके माता-पिता की एक बस दुर्घटना में मौत हो गई थी । वह बारवहीं तक वहीं गॉंव के सरकारी स्कूल में पढ़ा और फिर आई. आई. टी में स्लैक्शन होने पर वह कलकत्ता चला गया । कैंपस स्लैक्शन के ज़रिये उसे अमेरिका की मशहूर इलैक्ट्रीक कंपनी ‘रॉक्स‘ में ‘इंजीनीयर‘ के पद पर नौकरी मिल गई । सब कुछ इतनी जल्दी – जल्दी हुआ कि समय का पता ही नहीं चला । और आज़ पूरे सात साल हो गये चाचा से मिले । अपना घर देखे हुये । रहट के पानी में नहाये हुये । कहते हैं मेहनत और किस्मत अगर एक साथ मिल जायें तो व्यक्ति आसमान की बुलंदियों को पलक झपकते ही छू सकता है । उसके साथ कुछ ऐसा ही हुआ था । वह बचपन की यादों में खो गया । उसे याद आया कि चाचा के साथ स्कूल जाते हुये अक्सर वह पूछ बैठता था – ‘चाचा आसमान नीला क्यों होता है ? घास हरी क्यों होती है ? सरसों पर पीले रंग के फूल क्यों होते हैं ? चाचा अनपड़ थे । उन्हें , उसके प्रश्नों का उत्तर नहीं मालूम था । परंतु , वे मुस्कराकर जव़ाब देते – ‘बिटवा , सब परमेस्वर की माया है । भगवान की माया । कहीं धूप कहीं छाया । वे खिलखिला कर हॅंस देते । फिर एकाएक , बाद बदलकर पूछते – भैया , तुहार मास्टरवा तूका मारत तो नाहीं । अगर मारत है तो बताय दिवो भैया । ससूर के नाती का हुक्का पानी बंद कर देंगे । हम पंच बन गये है । अउर पंच के पास बहुत पावर होती है । समझयो कि नाहीं ।‘ वे उसे अपनी गोद में उठा कर दुलराने लगते और वह उनके गाल पर एक चुम्मा दे देता । वे निहाल हो जाते – ‘हमार बिटवा , बहुत बड़ा अफसर बनी ।‘ डिप्टी कल्क्टर से भी बड़ा । वह मुस्कराने लगा । उसने बस की खिड़की खोल ली । हरे – भरे खेत लहलहा कर प्रकति की सुंदरता का प्रमाण दे रहे थे । बस की सीट पर बैठे – बैठे कब उसे नींद आ गई । पता ही न चला ।




बस एक झटके के साथ से रूकी और अगली सीट पर बैठे होने के कारण , वह सबसे पहले उतर गया । कच्ची सड़कों की जगह पक्की सड़कें देखकर वह चकित रह गया । सड़क के बाईं ओर कुछ दुकानें बौर दायीं ओर सरकारी स्कूल था । कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे । उसका मन हुआ कि दो – चार हाथ दिखाये । लेकिन , देर हो जाने के डर से वह उस ओर नहीं गया । लिहाज़ा , मन की चाह को मन के भीतर दबाये वह तेज़ी से दुकानों की ओर चल पड़ा । हवा में नमी थी । हल्की – हल्की ठंड होने लगी थी । उसने सोचा , क्यों न एक कप चाय पी ली जाय । वह एक चाय की दुकान के पास आकर रूक गया । न जाने क्यों , वह इस टूटी – फूटी दुकान के पास चला आया था। वरना , दुकान के बिल्कुल सामने दायीं ओर दो – एक छोटे – छोटे होटल भी थे । चाय का आर्डर देकर वह चुपचाप वहीं पड़ी एक चारपाई पर बैठ गया । जूतों पर काफी गर्द जमा हो गई थी । वह उसे झाड़ने लगा । अचानक उसकी नज़र दुकान के मालिक पर पड़ी । जो उसे बराबर घूरे जा रहा था । जैसे कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा हो ।

‘तु…. तुम मनोहर तो नहीं हो बाबू ।‘ बूढ़े दुकान मालिक ने कुछ संकोच वश पूछा ।

मनोहर ने उसे गौर से देखा । वह गुटन बाबा थे । हमारे घर मज़दूरी करते थे । उनके पास एक उंट था । वे कभी – कभी तो उंट की सवारी करवा देते थे । पर हम बच्चों की टोली बड़ी शरारती थी । हम सवारी करके बिना पैसे दिये भाग जाते थे । और वे गालियां देते हुए हमारे पीछे भागते । लेकिन , हमारे आगे उनकी एक न चलती । वे कभी हमें पकड़ न पाते ।

मनोहर खुश होता हुआ बाबा के पास आकर बैठते हुये पूछा – ‘अरे बाबा , तुम यहॉं कैसे ? और तुम्हारा उंट कहॉं है ? किशोरी कहॉं है ?‘ उसने प्रशनों की लड़ी लगा दी ।

किशारी गुटन बाबा का इकलौता बेटा था । और बाबा ने किशोरी का पाने के लिये धमसा माई , मनसा माई , बाबा बटेसर नाथ , भवानी मैया आदि किस किस देवी – देवता से मिन्नतें नहीं मांगी । शादी के पूरे दस साल बाद किशोरी पैदा हुआ । किशोरी उसके बचपन का दोस्त था । प्राइमरी तक दोनों साथ – साथ खेले । स्कूल गये । दसवीं के बाद किशारी ने पढ़ना छोड़ दिया और वह चाचा जी के साथ खेती – बाड़ी के काम में हाथ बंटाने लगा था ।

उसने गुटन बाबा का हाथ पकड़ते हुए बच्चों की तरह आग्रह करते हुये पूछा – ‘बाबा , बताओ न । किशोरी कहॉं है ?‘

बाबा उदास हो गये । उनकी ऑंखों के कोरों में ऑंसू भर आये । चाय का कप पकड़ाते हुये बड़ी सावधानी से गमछे से ऑंखें पोंछते हुये बोले – ‘बिटवा चाय पियो। बाकी छोड़ दियो । सब ठीक – ठाक है ।‘ अबकि बाबा अपने ऑंसू न रोक पाये । वहीं एक कोने में जाकर सिसकने लगे । उसने उठकर उन्हें सांतवना दी – ‘बाबा , घबराओ नहीं सब ठीक हो जायेगा । पर , कुछ तो बताओ ।‘ सांतवना पाकर वे चुप हुए । धीरे – धीरे बोले – ‘बिटवा , उ हमका छोड़ के इस दुनिया से चला गवा ।‘ वे एकाएक फूट- फूट कर रोने लगे । उसने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा – ‘पर कैसे ?‘ बाबा ने रोते हुसे कहा – ‘किशोरवा गॉंव का लीडर होय गवा रहा भैया । गॉववाले उस पर अपनी जान छिड़कते थे । बस भैया यक जमीन -विवाद मा कुछ लोगन ने मिलकर उसकी हत्या कर दी । हमार जिगर का टुकड़ा चला गवा । बाकी भैया हम जानत हैं उहका के मरवाइस है ।‘ वह रोने लगा । ‘उ हमसे डायरेक्ट कहते । हम खुशी – खुशी आपन ज़मीन उनके नाम कर देते । हमका जीवन भर खाने का लालच देत रहे । वे चाहत हैं कि हम कुकुर बनके उनके उनके सामने दुम हिलायें । पर , किहु के आगे हाथ फैलाना हमें मंजू़र नाहीं । हमने जम़ीन उनके नाम लिख दी । जब बिटवा ही नहीं रहा तो जमीन रख कर क्या करें । ‘ उसने उसके कंधे को थपथपाया – ‘वो कौन हैं बाबा । हम पुलिस स्टेशन जायेंगे । कंपलेंट करेंगे । कोर्ट जाना पड़ा तो वहां तक भी जायेंगे । कोई कायदा कानून है कि नहीं । तुम घबराओ नहीं । अब मैं आ गया हूूं । सब ठीक हो जायेगा । हम सब मिलकर सब ठीक कर देंगे । तुम्हारी ज़मीन तुम्हें मिलकर रहेगी ।‘ वह उत्तेजित होते हुये बोला । ‘बस तुम एक बार बता दो वह कौन है जिसने ऐसा घिनोना काम किया है ।‘ बाबा ने कुछ नहीं बताया । उन्होने एक बार मेरी आंखों में देखा । और चुप्पी साध ली । उसने घड़ी में देखा । चार बजनेे को थे ।




उसने बाबा से कहा – बाबा , चलता हूं । देर हो रही है । पर , आप मुझे बताना जरूर ।‘ उसने सामने से आते हुये रिक्शे को रूकने का इशारा करते हुये कहा । बाबा कुछ नहीं बोले । वह रिक्शे पर बैठ गया और उसे ज्वाला प्रयाद के घर की ओर चलने को कहा । रिक्शा वाला उन्हें जानता था । लिहाज़ा , कुछ ही पलों में वह ज्वाला प्रसाद के घर पर था । कच्चे मकान की जगह आलीशान हवेली जैसा घर देखकर वह चकित रह गया । उसने सोचा , शायद यह रिक्शा वाला उसे किसी और के घर ले आया है । उसने रिक्शे पर बैठे – बैठे ही उससे पूछा – ‘भाई ये तुम मुझे कहॉं ले आये हो । ये तो ज्वाला प्रसाद का घर नहीं है।‘ रिक्शे वाले ने कहा – ‘यही ज्वाला प्रसाद जी का घर है । वह देखो , उधर गेट पर । बायीं ओर उनका नाम लिखा है । बाबू , शायद तुम यहॉं बहुत दिनों बाद आये हो ।‘ वह रिक्शे से उतरते हुये बोला ।

मनोहर ने देखा गेट के बायीं ओर नेम प्लेट पर ब्रास के अक्षरों में मोटे – मोटे शब्दों में लिखा था – ‘नेता ज्वाला प्रसाद ।‘ वह रिक्शे से उतर गया । रिक्शे वाले को किराया दिया । और कुछ सोचते हुये गेट पर दायीं ओर लगी कॉल बैल बजा दी । वह असमंजस में था कि चाचा जी नेता कैसे बन गये । कुछ ही पलों में दरवाज़ा ख्ुाला । चाची बाहर आईं थी । उसने आगे बढ़कर चाची के पैरों को स्पर्श किया । लेकिन , चाची ने कोई ज़वाब नहीं दिया । वह चुपचाप घर के भीतर चली गई । वह भी उनके साथ घर के भीतर आ गया । रंगीन दिवारें , कीमती कालीन , सोफा , टी.वी . , बाईं ओर दीवारों पर नेता बने चाचा जी अनगिनित तस्वीरे , सब कुछ उसे जादूई सा लग रहा था । वह कुछ और सोचता कि इससे पहले बाईं ओर की सीढ़ीयों से चाचा जी व उनके दोनों बेटे नील व सुशील आते हुये दिखाई दिये । सफेद ‘ कुर्ते पायजामें व नेहरू जाकिट ने उनके व्यक्तित्व को निखार दिया था । उसने मुस्कराकर आगे बढ़ते हुये चाचा जी के चरणों को स्पर्श किया और अपने से छोटे नील व सुशील को गले लगाना चाहा । लेकिन , उन्होंने उसे कोई भाव नहीं दिया । वे सीधे खाने की टेबल पर चले गये । चाचा जी ने उसेे सामने पड़े सोफे पर बैठने को कहा । वह उनके सामने सोफे पर बैठ गया । उसने पूछा – ‘चाचा जी , वो अपना . . गुटन मिला था । चौराहे पर । उसके बेटे किशोरी की हत्या हो गई है ।‘ चाचा जी ने सिर हिलाते हुये बड़े नपे – तुले शब्दों में ज़वाब दिया – ‘जानते हैं। पुलिस इन्क्वायरी कर रही है । देखते हैं क्या निकलता है ।‘ वह उनके उत्तर से संतुष्ठ नहीं हुआ – ‘लेकिन , सुना है , उसकी ज़मीन भी किसी ने हथिया ली है ।‘ ‘वह हमारी ज़मीन थी !

‘हमारे पुरखों ने उसे खेती करने के लिये दिया था । कितना कमीना और चालबाज़ था उसका बेटा । कहता था – यह मेरे बप्पा की ज़मीन है । देखता हूं कौन हाथ लगाता है । अरे बताओ ये कहॉं का कानून है कि खाना खायें हमारे घर में । कपड़े पहने हमारे । और साहब बहादुर बताते हैं कि ज़मीन उनकी है । भाई हद है नमक हरामी की ।‘ चाची ने बीच में आते हुये कहा ।

नील और सुशील भी पास आकर चाचा जी के साथ सोफे पर बैठ गये । नील ने अपनी मॉं की बातों का समर्थन करते हुये कहा – ‘मॉं ठीक कह रही है । हमारी बिल्ली हमी से म्यॉंउ ।‘

सुशील बोला -‘दे आर ऑल नानॅसेंस । हाउ दे कैन कलैम अवर लैंड । रबिश । दिस द क्लियर केस ऑफ टरांसप्रियसी । भैया ने रोका न होता तो वह जेल में होता ।‘ सुशील ने लॉ की थी ।

नील ने धमकी के लहज़े में कहा – ‘कानून , कचहरी साहब यहॉं जांध के नीचे रहती है । इधर दिख भी गया तो साले की टांगें तोड़ दूंगा । जीते जी नहीं छोड़ूंगा । हमें किसी की परवाह नहीं ।‘

चाचा ने अपने बड़े बेटे नील को शांत करते हुये कहा – ‘तुम चुप रहो नील । जो काम शांति से हो सकता है उसके लिये हिंसा ठीक नहीं है । उसका यहॉं अब क्या है जो यहॉं वापिस आयेगा ।‘ चाचा जी पूरे नेता हो गये थे ।




‘पर , यह तो सरासर अन्याय है । वह ऐसा नहीं होने देगा । ‘चाचा जी , माफ करना मैं आपसे सहमत नहीं हूं । जिस के पुरखों ने हमारे पुरखों की आजीवन सेवा की । जिसके घर के लिये गुटन बाबा ने अपनी सारी जवानी बलिदान कर दी । उसके लिये हम ऐसा कैसे सोच सकते हैं । लानत हैं हम पर । मैं कोर्ट जाउंगा । उसे न्याय दिलाउंगा ।‘ उसने उठते हुये कहा ।

‘जाओ बबूआ । जहॉं जाना है । जाओ । हमें कोई परवाह नहीं । जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरों को क्यों दोष देना । हम ही नालायक थे जो तुम्हें पास -पोस , पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाया । वरना , पड़ा होता किसी ज़मीदार कीे डयोढ़ी पर । दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती । बड़ा आया गुटन का वकील बनकर । तेरा बाप भी ऐसा ही था । जिसकी थाली में खाता था । उसी में छेद करने को तैयार रहता था। सॉंप के बच्चे कितने भी सभ्य हो जायें डसना नहीं छोड़ते । जा बेटा जा । तुझसे यही उम्मीद थी । पर , जाने से पहले अपना हिसाब करता जा । नहीं तो कल तू भी कहेगा कि चाचा ने मेरी ज़मीन छीन ली । ‘ चाची , चाचा जी को इशारा करके चली गई । इससे पहले कि वह सिर उठा कर चाचा जी की ओर देखता । चाचा जी सोफे से उठ कर उसके पास आते हुये बोले – ‘देखो मनोहर , हमने तुम्हें पढ़ा – लिखा कर इस काबिल बना दिया कि आज़ तुम अपने पैरों पर खड़े हो । अपनी लाइफ के बारे में खुद डिसिज़न ले सकते हो । अब तुम्हें हमारी जरूरत नहीं । तुम्हारी चाची ठीक कह रही है । तुम्हारे मॉं – बाप तुम्हें पॉंच वर्ष की आयु में ही छोड़ कर चले गये थे । तुम तनिक सोच कर देखो कि अगर आज़ वे जीवित भी होते तो भी तुम्हें इस काबिल न बना पाते ।‘

‘चाचा जी , मेरे मॉं- बाप को प्लीज़ कुछ न कहिये ।‘ वह रो पड़ा ।

चाचा ने कुर्ते की जेब से चालीस हज़ार रूपये निकालते हुये बोले – ‘ये लो मनोहर , पूरे चालीस हजा़र हैं । गिन लो । तुम्हारी ज़मीन के पैसे । अब रही बात तुम्हारे घर के हिस्से में । तुम्हारे पिता जी ने मरते समय तुम्हारी परवरिश के लिये अपना घर मेरे नाम कर दिया था ।‘ तुम चाहो तो घर के पेपर देख सकते हो ।‘ चाचा जी उसकीे हथेली पर चालीस हज़ार रखकर डायनिंग टेबुल की ओर चल पड़े ।

उसके दिल में ये चालीस हज़ार रूपये शूल की तरह चुभने लगे । वह सोचने को मज़बूर हो गया – ‘क्या चाचा जी ने उसे इसी लिये बुलाया था ? क्या चाचा जी के प्रति उसके मन में निस्वार्थ व प्रेम की कीमत ये चंद कागज़ के टुकड़े लगा सकते हैं ? क्या जीवन में रिश्तों की कोई अहमियत नहीं है ? रिश्ते – नाते , प्यार मोहब्बत सब ढ़कोसला है । उसका मन भारी हो उठा । वह जोर – जोर से रोना चाहता था । लेकिन , न जाने कौन सी भीतरी शक्ति उसे रोके हुये थी । वह कमजोर नहीं दिखना चाहता था । उसने एक बार चाचा जी की ओर देखा। चाचा जी भोजन करने में व्यस्त थे । उसके लिये अब वहॉं एक पल कि लिये भी ठहर पाना असहनीय था । वह तेज़ी से गेट खोलकर घर से बाहर निकल गया ।

संध्या उतर आई थी । लंबी व दूर तक साथ न छोड़ने वाली परछाइयां अब विलुप्त होने लगी थीं ।

डा. नरेंद्र शुक्ल

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