इला व रोज़ी देवरानी जिठानी थी।दोनों सेठ मंगलदास की बहुएँ थी।
रोज़ी का रंग एकदम गोरा चिट्टा था,बहीं इला साँवली सलोनी थी।रोज़ी का रंग भले ही गोरा था ,लेकिन उसके फ़ीचर्स एकदम बेकार थे। परंतु रोज़ी को अपने रूप रंग पर बहुत गुमान था ।उसको लगता मैं तोड़ो भी पहन लूँ मुझ पर अच्छा ही लगेगा,कुछ गुमान रोज़ी को अपने मायके की धन दौलत का भी था।बचपन ेही उसका रूझान सिर्फ़ सजने संवरने में ही रहता,पढ़ाई लिखाई में उसका जरा भी रू,चि नहीं थी।माँ बाप के बहुत ज़ोर देने पर किसी तरह सिर्फ़ ग्रेजुएट ही कर पाई थी।
रोज़ी का गोरा रूपरंग देखकर ही उसका रिश्ता सेठ मंगलदास के बड़े बेटे से तय हो गया था।
सेठजी का बड़ा बेटा बिना भी अधिक पढ़ा लिखा नहीं थाlसिर्फ़ ग्रेजुएट करके अपने बावूजी के साथ बिज़नेस सँभाल रहा था।
सेठजी का छोटा बेटा विकास इंजीनियर था,उसने। फिर कह दियारा कि उसे सिर्फ़ पढ़ी लिखी लड़की से ही शादी करनी है।
इला भी इंजीनियर थी,बस उसका रंग थोड़ा सांवला था,लेकिन उसके फ़ीचर्स बहुत शार्प थे,अनेकों की भीड़ में भी वह अपने सावले रंग रूप के बावजूद लोगों को आकर्षित करने की क्षमता रखती थी,साथ ही उसका पहनने ओढ़ने का सलीका भी लोगों को पसंद आता था।
जब से शादी करके अपनी ससुराल आई थी,उसकी जिठानी रोजी उसको उसके रंग रूप को लेकर कुछ न कुछ सुनाती रहती थी।
इला को यह सब सुनना अच्छा तो नहीं लगता था परंतु वे बड़ी है उम्र व पद में यही सोच कर चुप लगा जाती।इला के चुप लगाने के रोजी उसकी कमज़ोरी समझलेती,कयोंकि वह अधिक पढ़ी लिखी तो थी नही,बस अपने रूप रंग के गुमान में ही डूबी रहती।
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आज सेठजी के घर किसी बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन रखा गया था।शाम को जब वे दोनों तैयार होने लगीं तो हमेशा की तरह रोजी ने कहा। बुरा मत मानना इला तुम चाहे कितनी भी कीमती साड़ी पहन लो, तुम्हारे सांवले रंग पर कुछ नही अच्छा लगता है,चाहे तुम कितना भी सज-संवर लो ,# जिठानी रोजी के #ऐसे शब्द सुन घर इला का खुनखौल उठा,,उसने भीआज खरा खरा सुनाने की सोचा।
भाभी जीसुन्दर लगनेके लिए सिर्फ रंग गोरा होना काफी नहीं होता।समझने संवरने का सलीका भी होना चाहिए, सिर्फ कीमती साड़ी पहनने से ही कोई सुन्दर नही दिखाई देता।उसका व्यवहार बातचीत का सलीका व तीखे नैन नक्श भी जरूरी होते हैं।
यहसब सुनकर इलाका जिठानी दंग रह गई,अब खून खौलने की बारी उसकी तो थी। किसी ने ठीक ही कहा है जैसी करनी वैसी भरनी।बस मुंह बना कर चुप लगा कर इला के सामने से चली गई।
इसीलिए कहते हैं कि बोलने से पहले अपने शब्दों को तौलना चाहिए।
कबीरदास जी ने इस बात बहुत अच्छा सहारे।
ऐसी वानी बोलिऐ,मन का आपा खोय
आपुन को शीतल करें,औरहु शीतल होय।
अतः अपने गलत शब्दों से किसी के मन को घायल करना गलत आचरण है ।चाहे कोई छोटा हो या बड़ा, इज्जत देने से ही इज्जत मिलती है ,बरना छोटे भी जबाव देने को मजबूर हो ही जाते हैं जैसा,इला ने अप ी जिठानीको दिया।
स्वरचित व मौलिक
माधुरी गुप्ता
नईदिल्ली
Sahi se to likhna tha