रंग में भंग –  मुकुन्द लाल

बिरजु करता तो था मजदूरी किन्तु वह अन्य मजदूरों से, इस मामले में थोड़ा अलग था कि वह कुछ पढ़ा-लिखा था। जब वह दशवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तो उसी समय आई बाढ़ में उसका बापू डूबकर मर गया था। उसी वक्त से उसकी पढ़ाई बन्द हो गई थी। उसके परिवार को भूखों मरने की नौबत आ गई थी तो उसकी पढ़ाई कहांँ से हो सकती थी। फिर भी वह किताब खूब अच्छी तरह से पढ़ लेता था। चिट्ठी-पत्री लिखने में उस्ताद था। जो अनपढ़ मजदूर थे, वे चिट्ठी पढ़वाने और लिखवाने के लिए बिरजु के पास ही आते थे।

  वैसे विल्डिंग कंस्ट्रक्शन में मजदूरी का काम देश के कई बड़े-बड़े शहरों में करने का उसे अनुभव प्राप्त था। किन्तु उस समय वह अपने गांव के एक बड़े पड़ोसी शहर में निर्माणाधीन मार्केट कॉम्प्लेक्स में काम कर रहा था। 

  उसके अनुभव और कर्मठता के कारण ठेकेदार कभी-कभी अपनी अनुपस्थिति में काम की देखरेख की जिम्मेवारी भी उसको सौंप देता था। वह अपने नाम से अधिक मशहूर था विनोबा जी के नाम से। कोई उसे असली नाम से खोजता तो लोग असमंजस में पड़ जाते लेकिन विनोबाजी के नाम लेकर खोजने पर तुरंत लोग उसका पता बता देते।

  अपने इलाके में काम नहीं मिलने पर वह घर में बैठा नहीं रहता था। बिना समय गंवाये वह दूर के शहरों में या पड़ोसी शहरों में काम की खोज में चला जाता था। वहांँ अक्सर उसे अपनी बोली, दक्षता, लगन और कर्मठता के कारण काम मिल भी जाता था। बाद में वह कंस्ट्रक्शन करवाने वाले ठेकेदार से संपर्क करके अपने सहकर्मियों को भी काम दिलवा देता था।




  उसका अपना एक अलग संसार था। वह नियमों और कायदों में बंधा हुआ इंसान था, जो काम को ही पूजा समझता था। उसे काम करने में आनन्द मिलता था। कुदरत का नियम है कि जिस काम को करने में मनुष्य को आनन्द मिलता है, वह काम निश्चित रूप से सुन्दर और सफलतापूर्वक संपन्न होता है।

  बिरजु उस वक्त तक दिल्ली, कोलकाता, बंगलोर, पटना, रांची… आदि शहरों में मजदूरी का काम कर चुका था। मौका मिलने पर या बीच में एक-दो दिन काम बंद रहने पर वह वहांँ के ऐतिहासिक स्थलो, स्मारकों व प्राचीन इमारतों को देखकर वह हर्ष से पुलकित हो उठता था, जो उसकी सोच में नवीनता लाती थी।

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  काम करने के दरम्यान टिफिन में वह अपने सहकर्मियों के साथ अपना अनुभव साझा करता था। देखे गए दर्शनीय स्थलों का बर्णन इतनी तन्मयता के साथ करता था कि मानो वह ऐतिहासिक स्मारक उसके सामने खड़ा हो। इसमें कैसे टिफिन का समय कट जाता था कुछ पता ही नहीं चलता था। लोग तरोताजा होकर पुनः अपने काम में जुट जाते थे।

  जहाँ दो-चार वर्षों तक लम्बा काम चलता था। वहांँ वह अपनी पत्नी और पुत्र-पुत्री को भी साथ रखता था। यहाँ भी उसने अपने दोनों बेटा-बेटी का नामांकन सरकारी पाठशाला में करवा दिया था।

  कभी-कभी वह अन्य मजदूरों के झोपड़ीनुमा घरों में भी चला जाता। उनको सलाह देता अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए। वह यह भी कहता कि अगर अभिभावक ध्यान दें तो नगरपालिका या सरकारी स्कूल के बच्चे भी पढ़-लिखकर जीवन में तरक्की कर सकते हैं। उसने सफलता हासिल करने वाले कई गरीब लड़कों और उसके अभिभावकों का नाम उदाहरण स्वरूप बतलाया, किन्तु अधिकांश मजदूरों ने पढ़ाने के मुद्दे पर अपने हाथ खड़े कर लिये। उनलोगों ने जवाब में कहा कि दो वक्त का खाना तो मुश्किल से मयस्सर होता है, पढ़ाना उसके वश के बाहर की बातें है।




  उसके व्यवहार-कुशल और नशा-पान का विरोधी होने के कारण कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद उसने ठेकेदारों, मुंशियों और उस मोहल्ले के कम शिक्षित लोगों के दिलों में उसने जगह बना ली थी। लोग ऐसा मानते थे कि उसकी बातों में कुछ वजन होता है।

  वह बिना भेद-भाव किये होली, दशहरा, दीवाली… आदि त्योहारों में अपने संपर्क क्षेत्र के लोगों से मिलता-जुलता उन्हें मुबारकबाद और शुभकामनाएं देता, चाहे वह धनी हो या गरीब हो। उसका विचार था कि आदमी अमीर हो या गरीब हो, उसमें इंसानियत होनी चाहिए, मनुष्यता होनी चाहिए, यही सबसे बड़ी बातें है। वह दुरंगी और दोहरे-चेहरों वालों चरित्रों से अलग-थलग था। वह सीधा-साधा किरदार था।

उसने ये सारे गुण नीचे की कक्षाओं में पढ़ाये गये महापुरुषों की जीवनी से हासिल किये थे।

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  उस साल उसका विचार हुआ कि वह भी होली के मौके पर ठेकेदारों, मुंशियों और अपने संपर्क के लोगों को अपने यहाँ आमंत्रित करेगा।   जब लोगों को आमंत्रित करने उनके घरों पर गया तो पहले वे लोग आश्चर्य से पल-भर उसको देखते रह गए, फिर उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। 

  होली के दिन आमंत्रित ठेकेदारों, मुंशियों व कुछ अन्य लोगों का एक दल पहुंँच गया उसका मन रखने के लिए। 

  अपने घर के अगले हिस्से की कोठरी में लोगों के बैठने का इंतजाम किया था। अपने पड़ोसी के यहाँ से दो बेंच और दो-तीन स्टूल कुछ घंटों के लिए मांग कर ले आया था। कोठरी में बेंच लगाकर जमीन पर दरी बिछा दिया था। 




  उसने अपने स्तर से अच्छा से अच्छा इंतजाम किया था। पूओं-पकवानों, मिठाइयों और होली के अवसर पर बनने वाले कुछ व्यंजनों की व्यवस्था खासकर आमंत्रित लोगों के लिए किया था। 

  सभी लोगों को अभिवादन करने के उपरांत इज्जत के साथ बैठने के लिए निवेदन किया। अपनी सुविधा के अनुसार कुछ लोग बेंच व स्टूल पर बैठ गये, कुछ दरी पर। 

  पूए-पकवान और अन्य व्यंजनों से भरी प्लेटों को बिरजु अपनी पत्नी लीला की सहायता लेकर लोगों के बीच वितरित कर रहा था। 

  इसी क्रम में उन लोगों की नजरें लीला पर पड़ी। उसकी खूबसूरती के लोग कायल हो गए। तीखे नैन-नक्स और चेहरे की मासूमियत देखकर लोग दंग रह गए। 

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  खाने-पीने का काम लगभग समाप्त ही होने वाला था। इसी समय एक ठेकेदार उसकी पत्नी के साथ हंँसी-मजाक करने लगा। लीला शर्म से गङी जा रही थी। बिरजु को नागंवार गुजरने गुजरने लगा। बिरजु ने अच्छा महसूस नहीं किया। घर में आये हुए मेहमानों को दुख न हो जाए, इस भावना के तहत वह मन मसोस कर रह गया। वह खामोश होकर उस ठेकेदार के चेहरे को तीखी निगाहों से मात्र देखता रह गया। फिर उसने सोचा होली है इतना हंँसी-मजाक तो इस पर्व में चलता ही है, यह सोचकर उसने संतोष कर लिया। 

  सभी के चेहरे पर बिरजु ने रंग-अबीर लगाया, फिर नमस्ते कहा, आमंत्रित लोगों ने भी बिरजु को रंग-अबीर लगाया। सभी ने एक-दूसरे को ‘होली मुबारक हो’ कहा, शुभकामनाएं दी। 




  लीला हर्षोल्लास से सराबोर  हो इस दृश्य को घर के किनारे  खड़ा होकर देख रही थी और आनन्दित हो रही थी कि अचानक कुछ लोगों ने लीला के चेहरे पर रंग-अबीर लगा दिया होली है, होली है, कहते हुए 

  किन्तु ठेकेदार और मुंशी ने उसकी पत्नी को बारी-बारी से अपने आलिंगनपाश में जकड़ते हुए, उसके चेहरे पर रंग-अबीर मल दिया। 

  बिरजु क्रोधित हो गया, उसने गुस्से में उबलते हुए कहा, ” आपलोगों का यह घटिया कदम ठीक नहीं है और न न्याय संगत है। परायी स्त्री के साथ ऐसी ओछी हरकत करते शर्म नहीं आती है। अगर आपकी पत्नियों को इसी तरह भद्दे तरीके से रंग-अबीर लगाएंगे तो आप बर्दाश्त करेंगे। होली खेलने का यह अश्लील तरीका आपलोगों ने कमजोर और निर्धन समझकर ही अपनाया है,ऐसे लोग इंसान नहीं भेड़िये हैं। “

  ठेकेदार की पकड़ ढीली पड़ते ही वह दहकती आंँखों से उनको देखती हुई   उसकी पत्नी घर के अन्दर  कोठरी में दौड़कर चली गई । 

  क्षण-भर रुककर वह गरजा,” निकल जाओ घर से… गेट आउट! “

 पल-भर के लिए वातावरण में सन्नाटा छा गया था। 

  पर दूसरे ही पल सभी लोग हा… हा… ही… ही… करते, ‘होली है… होली है, बुरा न मानो होली है’ कहते हुए निकल गये। 




     # 5वां जन्मोत्सव 

  #  बेटियाँ जन्मोत्सव कहानी प्रतियोगिता 

            दूसरी कहानी 

   स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                   हजारीबाग(झारखंड)

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