“माँ…सुबह-सुबह क्या खटर -पटर कर कर रही हो किचेन में?”
“अरे बेटा कुछ नहीं, तू बहन के घर जा रहा है…सोचा कुछ अच्छा बना देती हूं ले जाने के लिए। दो-दो खुशियां हैं इसीलिए।
“दो दो खुशियां?”
“हाँ और नहीं तो क्या! एक तो राखी का दिन और दूसरा एक साल बाद तू बहन के घर जा रहा है राखी बंधवाने।
“तो तुम अकेले क्यूँ परेशान हो रही हो,कामवाली को बुला लो।”
“उसकी तबियत ठीक नहीं है।”
“अरे तो उसकी बेटी को बुला लो, वह तो बहुत ही कामकाजी है। लॉक-डाउन में उसने हमारे लिए बहुत कुछ किया है, जब अपने भी मुँह मोड़ कर बैठ गये थे।
“सो तो सब ठीक है ,पर कैसे बुला लूँ बेटा!”
उसके जवान भाई को कोरोना खा गया! राखी की तैयारी देखेगी तो बताओ उस बेचारी बहन पर क्या गुजरेगी।
“हाँ माँ तुम शायद सही कह रही हो।”
“बेटा देखो तो दरवाजे पर कोई है क्या?”
“देखता हूं माँ…।”
दरवाज़ा खोला सामने राधिका खड़ी थी, उसने बड़े प्यार से पूछा- “अब कइसन तबियत हैं भईया जी?”
“हाँ ठीक हूँ। तू क्यों आ गयी?”
“वो माई का तबियत ठीक नहीं था तो….।”
“अच्छा ठीक है, जाकर माँ की थोड़ी मदद कर दो।”
वह सीधे माँ के पास गई और बिना कुछ बोले काम में लग गई। माँ कभी उसका मुँह देखती, कभी बेटे का। पूरे लगन से उसने माँ के साथ मिलकर सारे पकवान बनवाये जो जो बहन को पसंद थी। काम निपटाकर वह बरामदे आकर खड़ी हो गई।
माँ ने पूछा-“तुझे घर नहीं जाना?”
“जी माजी जाना है….लेकिन कुछ देना था।”
“क्या है दिखा?”
“जी ये मैं भईया जी के लिए लाई थी….कहीं वो मना तो नहीं करेंगे ना!”
उसकी मुट्ठी में कागज की पूरिया थी। माँ किसी आशंका से घबड़ा गई।
उन्होंने बेटे को पुकारा- “देख तो बेटा राधिका तुझे कुछ दिखाना चाहती है।”
“क्या है इसमें?”
कांपते हाथ से राधिका ने पूरिया उसके हाथ में थमाकर बोली- “राखी है भईया जी,भाई तो अब रहा नहीं…इतना कह वह सुबकने लगी।”
राखी देख उसकी भी आँखें भर आई। उसने राधिका के माथे पर हाथ रखकर कहा -“तू रो मत, मैं आज से तेरा भाई होने का फर्ज हमेशा निभाऊंगा,मेरी बहन!”
“तुम यही रुको।”
वह अंदर कमरे में गया और एक पैकेट लेकर आया।
“इसे लो…कल पहनकर आना। मैं सबसे पहले तुमसे राखी बंधवाऊंगा, फिर मैं बहन के घर जाऊँगा।
वह चली गई तो माँ ने कहा- “बेटा तूने बहन वाला “उपहार” का पैकेट उसे क्यों दे दिया?”
“माँ, राधिका ने जो हमारे लिए किया है वह तो मेरी सगी बहन ने भी नहीं किया! जब मुझे बुखार हुआ था तो वह तो देखने भी नहीं आई थी कोरोना का हवाला देकर मना कर दिया था। जबकि इस लड़की ने दिन-रात यहीं रुककर मेरी और तुम्हारी जरूरतों का ख्याल रखा था।
“माँ, राखी ख्याल और स्नेह का बंधन है…खून का नहीं!”
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार