दूसरे दिन तड़के हरिया उस गाँव की ओर निकल गया। दो गाँव पार कर के उसके गाँव पहुँच गया। क्या कह कर घर के अंदर जाए इसी असमंजस में था कि उसपर एक आदमी की नज़र पड़ गई ,“ क्यों भाई किसको खोज रहे हो… तुम्हें पहले तो कभी नहीं देखा है… चौधरी साहब के रिश्ते में तो लगते नहीं… क्या चौधराईन के घर से आए हो?”
“ हाँ… हाँ… वो चौधरी साहब की खबर जरा देर से मिली तो बस वो जिज्जी को मिलने आ गया। मैं उनके दूर का भाई हूँ ।” घबराहट में हरिया को जो समझ आया बोल गया
“ तो फिर बाहर क्यों खड़े हो… अंदर आओ छोटी माँ से मिल लो…अब तो बाबूजी के जाने के बाद वो तो अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलती… बहुत वक़्त बाद उनके घर से कोई आया है … हम तो कभी किसी को देखे ना जाने .. आप से मिलकर शायद छोटी माँ ख़ुश हो जाए।” कहकर वो युवक हरिया को अंदर ले गया
“ ओ छोटी माँ देखो तो कौन आया है…अरे देखो तो सही..।” युवक ने कहा
वो महिला नजर उठा कर टुकुर-टुकुर हरिया को देख रही थी… अचानक उसकी आँखों में आँसू बहने लगे।
युवक हरिया को उस कमरे में छोड़कर हरिया के लिए चाय नाश्ते का इंतज़ाम करने चला गया।
“ कैसे आना हुआ हरिया… तुम तो मुझसे बात भी ना करते थे फिर काहे आ गए… सबने तो मुँह फेर ही लिया था ना मुझसे अब क्या देखने आए हो….।” महिला ने कंपकंपाती आवाज़ में कहा
“ मैं तो कभी नहीं आता यहाँ वो तो… छोड़ो तुम्हें क्या कहना कुछ भी कहाँ तुम तब समझी थी जो अब समझोगी… चौधरी साहब के गुजर जाने का जब से पता चला वो रजवा तुम्हारे हाल चाल जानने के लिए परेशान हो रखा था उसी ने भेजा है।अब जाता हूँ देखना सा देख लिया… तुम्हें जो चाहिए था मिल ही गया अब किस बात का अफ़सोस …।” कहकर हरिया जाने लगा
“ अरे आप कहाँ जा रहे हैं चलिए बैठक खाने में.. तुम भी आओ छोटी माँ.. कुसुमी ने उधर ही सब इंतज़ाम कर दिया है।”युवक ने कहा
“ अरे बेटा का ज़रूरत रहें बस जौन ख़ातिर आए रहे काम हो गया तो अब जाए दो।” हरिया ने कहा
“ ऐसे कैसे जाने दें… चौधरी साहब के यहाँ से कोई भूखा चला जाए ये तो ना तब हुआ ना अब होगा… क्यों छोटी माँ.. अरे आप चुप क्यों हो अपने भाई को कहो चाय नाश्ता क्या खाना खा कर ही अब यहाँ से जा सकते।” युवक ने कहा
“ हाँ हरिया विष्णु ठीक ही कह रहा..चलो बैठक में हम भी आते हैं ।” महिला ने कहा
हरिया कुछ बोल ना सका चुपचाप जाकर बैठक में बैठ गया।
तरह-तरह के पकवान से पूरी मेज भरी पड़ी थी… इतने पकवान तो उसने कभी ना देखे थे पर दिल एक भी चीज को हाथ लगाने की इजाज़त नहीं दे रहा था, उसे तो उस महिला से अब कोई सरोकार नहीं था वो तो बस अपने राजा साहब के लिए यहाँ चला आया था।
किसी तरह दो चार निवाले लेकर वो वहाँ से निकल गया।
कच्ची पक्की पगडंडी पर चलते चलते हरिया का मन बहुत कसैला सा होने लगा था… ना जाने क्यों आज फिर उसे उस महिला पर फिर से ग़ुस्सा आ रहा था।इतना भी क्या अकड़ था इसको जो राजा साहब का नेक दिल ना देख सकी। वो अपनी सोच में बढ़ ही रहा था कि दूसरे गाँव में उसके पहचान वाल कुछ लोग मिल गए उनसे शहर में बिताए अपने दिनों की कहानियाँ सुनने में व्यस्त हो गए।शाम होने को आई तो राजा साहब की याद आ गई,“ अरे अब जाने दो बातों बातों में बहुत देर हो गई …।”कहकर हरिया वहाँ से तेज गति से वहाँ से निकल गया
अपने गाँव पहुँच कर हरिया घर की ओर भागा.. देखा तो राजा साहब घर के बाहर चहलक़दमी कर रहे थे।
हरिया को देखते उसकी ओर लपके,“ बहुत देर कर दी हरिया… सब ठीक तो है ना.. वो तो ठीक है ना ..।” एक ही सांस में सारे सवाल कर गए
“ आप नाहक आज भी उसके लिए सोचते हो बाबू.. जिसको तब आपकी फ़िक्र ना हुई उसे आज काहे से होगी… अरे रईसों के घर की बहू बन कर गई है तो ऊँचा ओहदा रुतबा सब बरकरार है…. चौधरी साहब गए तो गए उनके बाल बच्चे हैं ना उसकी देखभाल करने के लिए… आप अब हमसे कोई सवाल ना करो.. बस जान लो वो अपने घर में ठीक है ।” हरिया राजा साहब के उतावले पन पर खीझते हुए बोला
“ ठंड रख हरिया.. अरे उसमें उसको क्यों दोष देता है… सबका अपना अपना स्वभाव होता है कौन कैसे जीना चाहता उसपर उसका हक़ होता है… चल अब ना पूछूँगा तेरे से कुछ भी..ख़ामख़ा नाराज़ मत हो.. बच्चों ने सुन लिया तो मुझे ही डाँटेंगे ,आपने हरिया काका को क्या कह दिया जो ये मुँह फुलाकर बैठे हैं ।”
राजा साहब (भाग 3 )
राजा साहब (भाग 1)