एक गाँव था। छोटा सा प्यारा सा। बैलों के गले में बजती घंटियाँ और हरवाहे की हुर्र हुर्र की ध्वनि से अरुणिम अंगड़ाई लेता गाँव। दिल के ऊपर कुर्ते की जेब से विपन्न और कुर्ते की जेब के नीचे दिल से सम्पन्न गाँव। फटी कमीज के दोनों कौने पकड़कर नंग धड़ंग खेतों में हगने जाते बालकों का गाँव।
दही की हांडी से पोते की बासी रोटी पर ढेर सारा मक्खन लपेटकर प्यार से बलैयां लेती दादी माँ का गाँव। काठ की तख्ती पर पोतने वाली खड़िया की सफेदी और औंधे तवे की कालिख से तख्ती पर कम और शायद कभी सफेद रहे कपड़ों पर अधिक कला चित्र से उकेरते नौनिहालों का गाँव। मुंडेर पर बोलते कौए की शुभ ध्वनि संकेत से पुलकित होकर कपड़े सुखाने के बहाने चौबारे पर चढ़कर दूर क्षैतिज तक कागज पर खींची रेखा सी बटिया पर प्रियतम की बाट में पालक पांवड़े बिछाये नवयौवनाओं का गाँव।
गाँव छोटा था मगर … हालांकि उतना छोटा भी नहीं, पर लोगों में एक दूसरे के प्रति प्यार बहुत था। ऐसा एका, कि यहाँ कभी प्रधान का चुनाव नहीं होता था बल्कि सारा गाँव मिलकर एक मत से किसी सम्मानित बुजुर्ग को अपना प्रधान चुन लेते। चार किलोमीटर दूर तहसील के वकील इस गाँव के किसी झगड़े टंटे मुक़द्दमे का बस इंतजार ही करते रहते। मगर गाँव का सौभाग्य और वकीलों का दुर्भाग्य। गाँव का एक भी विवाद कभी अदालतों तक नहीं गया था।
उनही दिनों गाँव में चकबंदी का दल आया।
पीढ़ियों दर पीढ़ियों जमीनो का बंटवारा हो जाने के कारण किसानो के खेत छोटे छोटे और दूर दूर बिखरे हुए हो जाते हैं जिसके कारण सिंचाई की व्यवस्था करने, रास्ते और कृषी कार्यों में असुविधा होती इस लिए समय समय पर सरकार एक किसान की सारी जमीन एक स्थान पर निर्धारित करने की योजना चलाती है। एक किसान की जमीन के छोटे छोटे टुकड़ों को एक साथ समायोजित कर दिया जाता है जिस से उसे ट्यूबवेल लगाने में ट्रेकतर चलाने में और रास्तों की सुविधा मिल जाती है। इस एक किसान के एकत्रित जमीन के टुकड़े को जिसे चक कहते हैं और इस प्रक्रिया को चकबंदी।
प्रधान जी ने पंचायत बुलाई। गाँव के सभी भूमि धारियों को एकत्रित किया गया। चर्चा का विषय था चकबंदी।
“जमीन हमारी और हमारे गाँव की। सरकार अपने झोले से जमीन निकालकर तो हम को देने से रही। उसी जमीन का बंटवारा किया जाएगा। जिस गाँव में चकबंदी होती है वहाँ खूब लड़ाई झगड़े, मुक़द्दमे और वैमनस्य होते हैं। दूसरी सब से बड़ी बात। चकबंदी के नाम पर अधिकारी जमकर लूट पाट मचाते हैं। लोग बेहतर जमीन का टुकड़ा प्राप्त करने के लिए अपने घर के गहने तक बेच डालते हैं। किन्तु जमीन तो कहीं बाहर से आनी ही नहीं है। हमारी ही जमीन की बंदरबांट में अधिकारी चांदी काटते हैं।
इसलिए आज इस पंचायत में एकमत से ये निर्णय लिया जाय कि गाँव का कोई व्यक्ति अधिकारियों की सेवा सुश्रुषा नहीं करेगा। चाट्टुकारिता नहीं करेगा और किसी भी सूरत में एक रुपया रिश्वत नहीं देगा। किसी को नहर किनारे की जमीन मिले या गाँव के बाड़े की। कोई उजरदारी नहीं करेगा। बस, एक ही लाइन याद रखना। जो कोई प्रलोभन दे उस से कहना ‘तू क्या जमीन अपने घर से लाएगा।‘ अरे गाँव में हम सब एक दूसरे के भाई, भतीजा और चाचा ताऊ हैं। मुझे न मिली, तुझे मिली, क्या फर्क पड़ता है।” प्रधान जी ने अपने विचार रखे।
पढ़े लिखे प्रधान जी की बात से सब लोग सहमत थे। सब ने वहीं पंचायत में शपथ ली कि चकबंदी करने वालों को एक पैसा नहीं देंगे।
स्टाफ आया। अधिकारी, पटवारी, सर्वेयर, क्लर्क और नपाई करने वाले सहायक। सभी गाँव गाँव चकबंदी कर चुके अनुभवी लोग थे। जानते थे कि दो चार दिन में लोग अपने अपनी सिफारिश लेकर आएंगे। फिर ज़मीनों की बोली लगेगी। गाँव के बाड़े की उपजाऊ जमीन के दस हजार देने पड़ेंगे वरना वहाँ तेरे पड़ौसी का चक लगेगा। बंजर नाप दूंगा चौधरी। अगली पीढ़ियाँ भी रोएँगी। बड़ी ज़मीनों वाला गाँव है। बड़ा खेल होगा।
महीनों गुजर गए। पूरा अमला जंगल जंगल, खेत खेत चार धड़ी लोहे की जरीब ढोये सर्वे करने जाता और रूखे सूखे वापस लौट आता। कोई पानी को भी पूछने वाला नहीं था। अभी पिछले दिनों ‘सेकरी’ गाँव में चकबंदी की थी तो सारी टीम का वजन पाँच पाँच सेर बढ़ गया था। आज चंदू के यहाँ खीर कचौरी तो कल हलदू के यहाँ हलुआ पूड़ी। बहुत जगह काम किया मगर गाँव के लोगों का ऐसा व्यवहार कहीं नहीं देखा।
चकबंदी अधिकारी ऊपर बड़े मोटे पैसे देकर इस बड़ी जमीन वाले गाँव का इंचार्ज बना था। बड़ा निराश हुआ। ऊपर जो पैसे दिये हैं, वो भी बेकार गए। गाँव तो घास ही डालने को तैयार नहीं है। परेशान निराश होकर अपना तबादला दूसरी जगह करवाकर पतली गली से खिसक जाने में ही भलाई समझी और निकल लिए।
नया अफसर आया। बड़ा खाँटी किस्म का घुटा हुआ अधिकारी था। रेत में से तेल निचोड़ना जनता था।
गाँव में बिजली नहीं थी। चारों तरफ अंधेरा पसर गया था। तारों से भरे आसमान से ही दिशा ज्ञान हो रहा था। गली से मोटा सूती खेस लपेटे इक्का दुक्का आदमी गुजर रहे थे।
अधिकारी महोदय पंचायत घर के द्वार पर मोटा ओवर कोट पहने हुए खड़े सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट क्या पी रहे थे व्याघ्र की तरह घात लगाए अपने शिकार की तलाश कर रहे थे।
तभी एक शक्ल से ही सम्पन्न किसान दिखाई देने वाले एक अधेड़, गरम चादर लपेटे हुए सामने से गुजरते दिखाई दिये। अधिकारी की आँखों में भूखे शेर के सामने से गुजरते लगड़े हिरण को देखकर आने वाले चमक आ गई। उन्होने मार्ग पर जाते सज्जन को पुकारा “सुनो, आ … चौधरी साब, तुम्हारा घर यहीं आस पास ही है क्या।”
किसान ने अत्यंत विनय के साथ उत्तर दिया “हाँ साब, बस यहीं चार घर छोड़कर …।”
“भाई … ऐसा है कि यहाँ गाँव में कोई होटल वोटल तो है नहीं। सो मैं घर से ही खाना बनवाकर ले आया था मगर … लगता है सब्जी खराब हो गई है। तुम्हारे यहाँ कोई सब्जी बनी हो या … न हो तो कोई आचार वगहरा। और हाँ। भैया जरा छुपाकर लाना। लोग क्या कहेंगे कि इतना बड़ा अधिकारी सब्जी भी मांगकर खाता है। समझ गए न।”
किसान घर गया और एक कटोरी सब्जी कपड़े में ढक कर चोरों की तरह चारों तरफ देखते हुए पंचायत घर में अधिकारी के कमरे में पहुंचा आया और शांति से अपने घर आकर सो गया। उसे क्या पता था कि ये एक कटोरी सब्जी सुबह को गाँव में तूफान उठाने वाली है।
अगली सुबह गाँव के हर किसान के मुंह पर एक ही बात थी कि रतीराम रात के अंधेरी में चकबंदी अधिकारी को रिश्वत देकर आ गया है।
नाराज किसान प्रधान के घर गए। प्रधान जी ने शांत रहने को कहा और अधिकारी से ही पूछने का निर्णय लिया गया। दिन ढलते ढलते प्रधान जी अधिकारी के पास पहुँच गए।
“साब, कल रात को अंधेरे में चुपके से रतीराम आप के पास आया था।”
“हूँ … हाँ आया तो था।” अधिकारी ने उबासी से लेते हुए लापरवाही के साथ कहा।
“तो … किस लिए आया था साब।” प्रधान ने डरते डरते पूछा।
“अपने बच्चे का स्कूल में एडमीशन कराने आया था। हा हा हा। अरे हम चकबंदी करते हैं भाई। हमारे पास कोई किस लिए आयेगा। सब को बढ़िया जमीन चाहिए।”
“उसकी जमीन तो वैसे ही बंजर है साब। मुझे भी अपना चक वहीं चाहिए जहां फिलहाल है। पीपल वाले कूए के पास।”
“अरे तो हम यहाँ किस लिए बैठे हैं प्रधान जी। आज रात को तुम भी मिल लेना।” अधिकारी ने धीरे से रहस्यमयी मुस्कान के साथ कहा।
बताने की जरूरत नहीं कि उसके बाद उस गाँव ने रिश्वत के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। चकबंदी तो हो गई मगर फिर किसी किसान की बहू बेटी के गले में कंठी, हार, गलबंद तो छोड़िए यहाँ तक कि मंगल सूत्र न था।
रवीन्द्र कान्त त्यागी