पूर्णिमा की चांदनी… पूरे आकाश पर फैली हुई थी… हल्की-हल्की ठंडी हवा के झोंके… साथ में मस्त चांदनी… राधिका खिड़की खोले बस निहारे जा रही थी… वह जैसे खो सी गई थी… हजार द्वंदों से उलझे हुए मन पर… जैसे यह चांदनी रात की ठंडी हवा अमृत वर्षा कर रही हो… कहीं दूर से हरि कीर्तन की आवाज धीमी-धीमी कभी तेज… हवा की रौ में कानों को छू रही थी… उसका मन वहां से हटने का बिल्कुल नहीं था…!
विचारों की उधेड़बुन में खोई राधिका का ध्यान झकझोर कर रख दिया अमित ने… “कितनी देर लगा रही हो… जल्दी आओ ना… कब तक अंश का बहाना करोगी…!” लगभग चीखती आवाज से राधिका का कलेजा धक्क से रह गया… सचमुच बहाना ही तो कर रही थी वह… नहीं जाना था उसे अमित के कमरे में… वही रोज के बेमतलब अनासक्त प्रेम… को सोचने भर से उसका तन मन बगावत कर रहा था…!
अंश तो कब का सो चुका था… पर हरि नाम की धुन में खोई राधिका… एक रात ऐसा मांग रही थी… जिस रात में उसे कोई आवाज ना दे… वह सो जाए उसके बगैर… पर ऐसा नहीं हुआ… अमित की चीख ने फिर से राधिका को मजबूर कर दिया… वह धीरे-धीरे बेमन से… पास वाले कमरे में चली गई…!
लगभग 1 घंटे के बाद… वह वापस आकर खिड़की के पास बैठ गई… तंग आ चुकी थी अपनी घिसी पिटी जिंदगी से राधिका… उसका पति अमित सो चुका था… छोटे बच्चों की तरह उसे राधिका की लत थी… वह अगर दो दिन के लिए भी मायके जाती तो अमित साथ में… ससुराल तो साथ में… कहीं बाहर… फंक्शन… शादी… पार्टी… अमित कभी उसे अकेला नहीं छोड़ता था… या यूं कहें कि कभी उसके बगैर अकेला नहीं रह पाता था… !
दफ्तर जाते-जाते साथ में और आने के बाद तो सोने तक बस राधिका राधिका… अंश के होने के बाद तो यह और भी बोझिल हो गया था… पहले अंश को संभालो सुलाओ… फिर रोज नियम से अमित को समय दो… नहीं… उसे कुछ दिन का ठहराव चाहिए था… वह भी इंतजार करना चाहती थी अमित का… वह भी चाहती थी कि कुछ दिन ऐसा हो… जब अलग रहे… वह कहीं अकेले घूमने जाए… उसे अब अकेलेपन की बेतरह चाह हो रही थी… पर अमित का दिल ना टूट जाए… यह सोचकर उसे कुछ कहना नहीं चाहती थी… उसका दिल बुरा नहीं है… यह भी उसे पता था… पर वह करे तो क्या करे…!
राधिका इस रोज-रोज के बंधन से अब आजाद होना चाहती थी… इसलिए बहाना बनाकर इधर-उधर समय लगाती थी..… कि शायद आज वह सो जाएगा पर चार सालों में एक दो बार छोड़कर.… ऐसी एक भी रात ना गुजरी… बस अब और नहीं… मैं भी इंसान हूं… हरि कीर्तन की धुन धीरे-धीरे बहुत कमजोर हो गई थी… हवा और भी शर्द…” हे हरि… मुझे रास्ता दिखाइए… आप ही मार्गदर्शन करें…मेरे मन की व्यथा हरें… क्या केवल यही मेरी जिंदगी है… सब कहते हैं नाज करो… कि इतना प्यार करने वाला पति मिला है… क्या यही प्यार है… क्या इसी प्यार को पाने की इच्छा रखती है हर स्त्री… हे प्रभु आप ही कोई मार्ग सुझाएं… आप ही रक्षा करें… राधिका ईश्वर की शरण में आ गई थी…!
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रात भर ठंडी हवा में बैठी राधिका की सुबह आंख लग गई… अमित उठा तो पास में राधिका नहीं थी… यहां वहां आंख दौड़ाया तो बगल के कमरे में तकिए पर टिकी… जमीन पर पड़ी राधिका को देख उसका माथा ठनका…” क्या हुआ यहां क्यों ऐसे पड़ी हो…?” हाथ लगाया तो उसे तेज बुखार था…” हे भगवान इतना तेज बुखार…!”
उसे उठाकर जल्दी से बिस्तर पर लेटाया.… अंश भी अब तक जाग चुका था… “क्या हुआ मम्मा को…!”
” कुछ नहीं बेटा… मम्मा अभी उठ जाएगी… आओ तुम आज मैं तुम्हें ब्रश करता हूं…!”
अमित एक लापरवाह पूरी तरह पत्नी पर आश्रित पति था… बचपन से मां के आंचल को पकड़ कर सोने वाला… मां पर पूर्णतया आश्रित अमित… शादी से कुछ ही महीने पहले मां के दुनिया से चले जाने पर बिल्कुल ही अकेला हो गया था… ऐसे में उसकी जिंदगी में आई राधिका… अब स्थिति यह हो गई थी कि बिना राधिका के उसका कोई काम… रात… दिन… सुबह… कुछ भी नहीं हो पता था… वह उसे एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ना चाहता था… शायद वह उसे खोना नहीं चाहता था… कारण चाहे जो भी हो… पर यह अधिक प्यार ही… राधिका के लिए बोझ बन चुका था…!
पूरे पांच दिनों तक राधिका बुखार से तपती रही… इन पांच दिनों में… उसे ना खुद का होश रहा… ना अंश का… ना अमित का… जिस अमित से छुटकारा पाने के लिए रात वह हरि से अर्जी लगा रही थी… वह अमित कैसे दिन से रात तक दफ्तर से छुट्टी लेकर… उसकी और अंश की देखभाल कर रहा था… उसे तो यह भी होश नहीं था…!
पांचवें दिन बुखार कुछ कम हुआ… पर यह बुखार की कमी साथ में बहुत सारे बड़े-बड़े दाने लेकर आया था… उसके पूरे शरीर में… चेहरे… गर्दन… पीठ… सीना… हर जगह दर्द भरे बड़े-बड़े फफोले उठ आए थे…” हे भगवान… यह क्या हो गया मुझे…!”
वह चीख उठी…” अमित ले जाओ अंश को यहां से…!”
अमित किचन में दाल चढ़ाने की तैयारी कर रहा था… पांच दिन बाद इतनी जोर से राधिका की आवाज सुन कर वह लगभग भागता हुआ उसके कमरे में आया… उसकी हालत देखकर अमित भी बिल्कुल ही परेशान हो गया…” यह कैसे हो गया…!”
उसने झट से अंश को गोद में उठाया जो मां के बगल में बैठा खेल रहा था… वह भी घबराया सा मम्मी पापा को घूरने लगा… राधिका की आंखों में आंसुओं की बाढ़ जैसे आ गई…” अब क्या करोगे अमित… कैसे करोगे तुम… वैसे ही 5 दिनों से लगे हुए हो… यह मुझे क्या हो गया…!”
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उसे रोता देख अमित ने धीरज बंधाया…” कोई बात नहीं राधिका… रो मत… हमारी परीक्षा की घड़ी है… बीत जाएगी… शायद भगवान भी देखना चाहते हैं कि मैं क्या सब कर सकता हूं… पर तुम चिंता मत करो… मैं तुम्हें कुछ भी नहीं होने दूंगा… तुम बस धीरज रखो… विपदा आई है तो दूर भी होगी…!”
पूरे 15 दिनों तक अमित अंश और राधिका की पूरी जिम्मेदारी उठाए रहा… ढाई साल के बच्चे को संभालना… कोई खेल थोड़े ही होता है… फिर बार-बार मां को सामने देख बच्चा मां की जिद तो करेगा ही… लेकिन उसे मां से दूर रखना… साथ ही राधिका के लिए सारे पथ्य परहेज बनाना करना… सब कुछ आस पड़ोस से पूछ पूछ कर…ऐसे समय जब पूरा सभ्य समाज आप से दूरी बना लेता है… अमित दिन-रात उसकी सेवा करता रहा… रात-रात भर जाग कर राधिका को सहारा देना… अंश को दूध पिलाना… !
और राधिका बेबस आंखों से सब देख रही थी… जीवन में पहली बार… उसे अपने पति को देखकर बहुत प्यार आ रहा था… उसका जी कर रहा था कि काश… थोड़ी देर के लिए यह बीमारी मुझसे दूर हो जाए और मैं भाग कर उसके गले से लिपट जाऊं… उसी के बिस्तर के पास सोफे पर उसी की तरफ देखता… उसका अमित एक टक पड़ा रहता… और यूं ही सो जाता… कितना मासूम बच्चा लग रहा था उस वक्त वह… उसने एक घड़ी के लिए भी अपनी जिम्मेदारियां से मुंह नहीं मोड़ा…!
आखिरकार 21 दिन होते-होते राधिका अपनी शारीरिक पीड़ा.… जलन के साथ-साथ… अपनी मानसिक पीड़ा से भी मुक्त हुई… आज वह अपनी सभी कुंठाओं से मुक्त हो चुकी थी… अब वह अपने पति के पास खुद जाना चाहती थी…पर अमित अभी भी उसके पूरी तरह ठीक हो जाने का इंतजार कर रहा था…!
आज फिर कहीं मंदिर में कीर्तन हो रहा था… हरि बोल की आवाज से रात राधिका की आंख खुली तो… अंश और अमित दोनों उसके पास ही सोए थे… उसने हरि को बारंबार प्रणाम किया… और साथ ही साथ धन्यवाद भी किया… यह बीमारी उसके लिए बीमारी न होकर वरदान थी… जिसने उसे उसकी मानसिक वेदना से आजाद कर दिया था…!
कुछ दिनों बाद जब सब वापस ठीक हो गया… तो एक रात राधिका ने अमित से कहा…” जानते हो अमित… उस रात मैंने भगवान से कहा था कि मेरी रक्षा करें तुमसे… मैं तुमसे और तुम्हारे प्यार से तंग आ चुकी थी… मुझे तुमसे कुछ दिनों की दूरी चाहिए थी…!”
अमित आश्चर्य से राधिका की तरफ देखने लगा… “क्या कहती हो राधिका… क्या मैंने तुम्हें इतना परेशान कर दिया… कि तुम्हें मुझसे दूर होने के लिए भगवान को बुलाना पड़ा… अगर ऐसा था तो तुम पहले ही मुझे बता सकती थी…!”
“मैंने कई बार कहना चाहा…पर तुम्हें तो हमेशा वह सब मजाक ही लगता था… पर सच कहूं तो जो हुआ अच्छा ही हुआ… कभी-कभी बड़ी मुसीबत से पाला पड़ने पर ही पता चलता है… कि हमारे पास क्या है… जिंदगी में थोड़े गम भी होने चाहिए… केवल मीठा-मीठा पाकर… एक रस जिंदगी जीकर… इंसान उसकी कदर करना छोड़ देता है…!” बोलते हुए राधिका अमित के सीने से लग गई…!
अमित प्यार से उसके उलझे बालों में उंगलियां फिराता… बस इतना ही बोला…” राधिका आगे से मैं भी ध्यान रखूंगा… मेरा प्यार तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनेगा……!”
स्वलिखित मौलिक अप्रकाशित
रश्मि झा मिश्रा