पुरुष – तरन्नुम तन्हा

भाई का फोन आया तो मेरा मन ज़ार-ज़ार रो उठा। हफ्ते भर बाद ही विवाह था, उनकी वाणी बिटिया का। यद्यपि ससुराल पक्ष की ओर से कोई मांग नहीं थी, तथापि भाई की कोरोना काल ही में नौकरी छूट जाने के कारण जैसा सोचा था, वैसा नहीं हो पा रहा था। नई नौकरी से बस किसी तरह से भरण-पोषण ही हो पा रहा था।

पिता जी के गुजरने के बाद, भाई ने ही तो सब कुछ किया था। उनकी बदौलत ही मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाई थी; फिर मेरा विवाह भी! जानती थी मैं, किसी अन्य दशा में मेरा खुद्दार भाई कभी मुझसे अपनी विवशता न कहता। किंतु मैं करती भी क्या। अपने उसूलों के पक्के विवेक की कोई योजना थी, जिसके लिए वह हाथ खींच कर रखते थे।

नाश्ता मेज पर रखा तो अखबार पढ़ते विवेक ने नज़र उठा कर देखा। फिर एक विज्ञापन दिखाते हुए मुझसे पूछा, “यह कार कैसी है?”

“बहुत शानदार है,” मैंने मन की बेचैनी को दबाने का प्रयास किया।

“क्या बात है? देख रहा हूँ, भाई से फोन पर बात करने के बाद खुश होने के स्थान पर दुःखी हो। वाणी के विवाह पर हफ्ते भर के लिए चली जाना,” उन्होंने मुझे प्रसन्न करना चाहा।

“जी, कोई बात नहीं। आप नाश्ता कीजिए न!”

“नहीं, पहले बताओ मुझको। देर करोगी तो मुझे ऑफिस के लिए देर हो जाएगी,” विवेक ने मेरा हाथ पकड़ कर पास वाली कुर्सी पर बिठा लिया।

मैंने उन्हें सारी बात बताई तो विवेक ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा।

“सुनो, मैंने पाँच लाख रुपये इकट्ठे किए हैं, अपनी कार के लिए। मेरी योजना थी कि हमारी संतान के जन्म से पहले हमारे पास कार हो जाए। तुम्हारे भाई को जितने रुपये चाहिएं, तुम उन्हें दे दो। कार का क्या है, नई न लेंगे तो पुरानी ले लेंगे”।

“और आपके पुरानी कोई चीज न लेने के उसूल का क्या?” मेरे हाथ अपने आँसुओं को सम्भालने के लिए आँचल तलाशने लगे।

“तुम्हारी खुशी से बढ़ कर भी कोई उसूल होगा क्या?” विवेक के अधर मेरे आँसुओं को पीने के लिए बढ़ आए।

—TT (तरन्नुम तन्हा)

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