बुआ बनारसी साड़ी पहनकर माथे पर आँचल डाले बाहर निकली। ये बनारसी साड़ी की भी एक कथा है । बुआ जब विदा होकर ससुराल आई थी तब मैके वाले ने अपने हैसियत से ढेरों साड़ियां दी थीं पर उसमें बनारसी साड़ी नहीं थीं।
दुल्हन को साधारण चुनरी में देख बुआ के सास ससुर भड़क गए। उसी समय बुआ की सास ने फरमान जारी किया। आज से किसी तीज त्योहार में मैके से बुआ के लिए कपड़े नहीं आयेंगे और अगर औकात हो तो बनारसी साड़ी ही भेजें।
हमारे खानदान की बहुएं हरेक पर्व पर बनारसी साड़ी ही पहनती है। बेचारे मैके वाले जितना अपना चादर था उसी में ही सिमट कर रह गये। बेटी को तीज त्योहार में कपड़े भेजना छोड़ दिया। बेटी हजारों में सुंदर थी । सुंदरता ने ही उसे ऐसा घर- वर दिलाया था वर्ना उनकी हैसियत कहां थी जो ऐसा ससुराल ढूंढते।
खैर अब बीती हुई बातों को याद कर मन खराब करने का समय नहीं था। बुआ बैठक के दरवाजे तक पहुंची ही थी कि बेटे ने टोका-” ओ माँ , यह क्या लुक बना रखा है दुल्हन वाली लोग तुम्हें देखने थोड़े न आये हैं।”
अब तुम मदर इन लॉ बनने जा रही हो थोड़ा सा तो चेंज लाओ अपने ऑउटफिट में । बुआ बेटे की बातों पर अंदर तक झेप गईं लेकिन क्या कहती। बेटा भी पिता के नक्शे -कदम पर चल पड़ा था। उससे बहस करना व्यर्थ था।
बबूल के पेड़ पर आम फलने की उम्मीद करना बेकार था। बचपन से उसने यही तो देखा था पिता के द्वारा हर बात के लिए टीका टिप्पणी करते रहना। बुआ क्या कहती वह तो पति का हुक्म मान कर यह भारी भरकम लबादा ओढ़ कर मेहमानों के बीच जा रहीं हैं। दरअसल बुआ को मेहमानों से मिलवाना तो एक बहाना था फूफा जी को तो अपना रुतबा दिखाना था।
बुआ से मिलकर लड़की के पिताजी और भाई बड़े प्रसन्न हुए। लड़की के पिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा कि बहन जी मेरी एक ही बेटी है जिसे मैं आपकी चरणों में रखना चाहता हूं। बुआ ने उनका हाथ थामते हुए कुछ कहना चाहा तभी फूफा जी ने बुआ को घूरकर देखा। बेचारी बुआ ने झट से हाथ छोड़ दिया।
धूमधाम से बुआ के बेटे की शादी हुई। दुल्हन बिदा होकर आ गई। वह साथ में ज्यादा धन दौलत तो नहीं लाई पर साक्षात लक्ष्मी की अवतार थी। सिमटी सकुचाइ हुई जब उसने बुआ के पाँव छुए तो बुआ ने उसे ऊपर उठाकर गले से लगा लिया।
ऐसा लगा जैसे कोई अपना मिल गया हो। समय पच्चीस साल पीछे लौट गया था या फिर खुद को दुहरा रहा था बिल्कुल सब वैसे ही हो रहा था जैसे बुआ के साथ हुआ था। अन्तर बस इतना था की बुआ को ससुराल वालों ने पराया समझा था जबकि बुआ को बहु अपनी बेटी लग रही थी। शादी के दो दिन बाद सारे नाते रिश्तेदार अपने -अपने घरों को चले गए।
फूफा जी के तेवर में कोई बदलाव नहीं आया था । दूसरे ही दिन उन्होंने बुआ को कह दिया -” बहु भी तुम्हारे जैसे मिडिल क्लास से आई है इसलिए यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि तुम हमारे खानदान के तौर तरीके उसे सिखाने की कोशिश करो।लड़की सुंदर थी इसलिए हमने बेटे का ब्याह कर दिया वर्ना कहां राजा भोज और कहां…..।”
बुआ ने फूफा जी के सामने हाथ जोड़ कर चुप रहने के लिए कहा उन्हें डर था कि कहीं बहु सुन ना ले। बेटा का भी तैश कम नहीं था बहु के मायके वालों की कमी निकालने में उसे विशेष मज़ा आता था।
बहु की पहली विदाई थी बेटे ने साथ जाने से इन्कार कर दिया। बुआ ने समझाने की कोशिश की तो बेटे ने कहा-” पिताजी कभी तुम्हारे साथ गये जो मैं जाऊँ इन भिखारियों के घर ।”
बहु को गुस्सा आ गया उसने पलट कर कहा-” फिर शादी ही क्यूँ किया आपने जब रिश्तों का अपमान ही करना था आपको। मैं अपने मायके का अपमान नहीं सहन करूंगी ।”
इतना सुनते ही बेटे ने ताव में बहु पर हाथ उठा दिया। अभी वह कुछ सोचता इसके पहले ही बुआ ने तड़ाक से एक जोरदार थप्पड़ बेटे के गाल पर जड़ दिया और बोली -” ख़बरदार जो कभी पत्नी पर हाथ उठाया तोड़ कर रख दूँगी समझा ,स्टेट्स की दुहाई देता है संस्कारहीन कहीं का। पहले इंसान बनना सीख फिर पति बनना। “
बुआ ने नौकर को बाहर भेज ड्राइवर को बुलाया और बोली मैं जाऊँगी अपनी बहु को उसके मैके छोड़ने और तब तक वह वापस नहीं आयेगी जब तक यह उससे माफ़ी नहीं माँग लेगा।
बेटे को आग्नेय आंखों से घूरते हुए कहा-” तूने क्या सोचा मैं तेरे पिता का विरोध नहीं कर पायी तो तुझे भी मनमानी करने दूँगी। मेरे पिछे कोई नहीं था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा मैं खड़ी हूँ अपनी बहु के साथ समझा।”
#विरोध
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर , बिहार