प्रोफेसर विद्रोही आराम कुर्सी पर लंबे पाँव फैलाए कॉफी का कप हाथ में लिए उदास निगाहों से अपनी स्वर्गीय पत्नि की बड़ी सी श्वेत श्याम तस्वीर को निहार रहे थे। तस्वीर के ऊपर जड़े शीशे पर उन्होंने मालती के माथे पर एक लाल बिंदी चिपका रखी थी। कभी कभी उन्हे लगता कि मेहंदी लगे
हाथों में कलाई भर चूड़ियां खनकाती मालती अभी तस्वीर का शीशा तोड़कर बाहर आ जाएगी और ताना सा मार कर रहेगी “क्यों जी, यह विद्रोही भी भला कोई नाम हुआ। आप समझाते क्यों नहीं अपने मित्रों को, कि आपका पूरा नाम प्रोफेसर हरिमोहन देशमुख लिया करें।” फिर मुंह पर हाथ रख कर लजाती सी कहेगी “हाय राम, हमने ये क्या किया। पति परमेश्वर का नाम मुख से लेना पाप होता है।”
“क्यों आयीं तुम इस जीवन में रस से भरा घटक लेकर।
प्यासे मृग सा छोड़ गई क्यों, इस वीराने मरुथल में।”
प्रोफेसर के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा और उनकी आंखों के कोर गीले हो गए।
अब तो यह भी यह याद नहीं कि कितने वर्ष पहले जीवन सागर की लहरों ने इस शहर में लाकर पटक दिया था। शुरू में दूसरी मंजिल के एक कमरे में किराये पर अकेले रहते थे। मार्क्स, लेनिन से लगाकर लियो टौल्सटौय, शरतचंद्र और प्रसाद की ढेर सारी किताबें चाटते चाटते बीस बाईस की सपनीली
लावण्यमई उम्र को पार करते-करते तीस बत्तीस की खुरदरी कठोर धरातल वाली उम्र में पहुंच गए थे। कभी-कभी अपने एकाकी जीवन के सूनेपन को शिद्दत से महसूस करते तो उदास से हो जाते। रोज सुबह मिट्टी के तेल के स्टोब पर अपने हाथ से बनाई गई काली सी चाय के साथ दो टोस्ट। हिंदी,
अंग्रेजी अखबारों के साथ माथापच्ची। कॉलेज में छात्रों के साथ आर्कमडीज और गैलीलियो के नीरस सूत्रों में सरखपायी और मारवाड़ी के ढाबे की एक जैसी महक वाली दाल के साथ दो चपाती। लाइब्रेरी और रात को अपने आप पकाई कच्ची पक्की खिचड़ी या दलिया खाकर दिन खत्म। फिर कल दूसरा दिन। वैसा का वैसा। जैसा कल था या परसों। यह भी कोई जिंदगी हुई भला।
यही वह समय था जब मोहल्ले में खुलने वाले शराब के ठेके का विरोध करते हुए प्रोफेसर हरिमोहन देशमुख अकेले ही धरने पर जा बैठे थे और माथे पर गहरी चोट का निशान तथा विद्रोही के उपनाम से अलंकृत हुए।
बत्तीस की वय पार करते करते प्रौफेसर का समाज में स्थान किसी साठ साल के वरिष्ठ नागरिक से कम ना था। उनकी गरिमामयी विद्रोही छवि ने उनकी गिनती शहर के सम्मानित वरिष्ठ जनो में कर दी थी।
उन्ही दिनों उनके घर से एक पत्र आया।
“प्यारे बबुआ, बहुत दिनों से तुम्हारा खत नहीं मिला। अब तो तुम हमें भेजे जाने वाले मनीऑर्डर फार्म पर संदेश का स्थान भी खाली छोड़ देते हो।
अब मैं और तेरी अम्मा चाहते हैं कि इस खत पर पूरा गौर किया जाए वरना हमारा रिश्ता तुमसे सदा सदा के लिए खत्म समझा जाए। गांव के प्राइमरी स्कूल के मास्टर परमात्मा शरण को तो तुम जानते ही हो। उन्होने तुम्हें बचपन में पढ़ाया भी था। रिटायर होने के बाद वे इसी गाँव में बस गए थे। पिछले वर्ष उनकी पत्नी लंबी बीमारी के बाद स्वर्ग सिधार गई थीं। पत्नी की बीमारी में मास्टर जी जिंदगी भर का
संचय लगा बैठे और उल्टा कर्जदार हो गए। घर में जवान बेटी की फिक्र ने मास्टर जी को भी ज्यादा नहीं चलने दिया और उन्होंने भी खटिया पकड़ ली थी। मरने से पहले अपनी बेटी मालती का हाथ मेरे हाथ में देकर बोले ‘देवा तुम्हारा, लड़का अभी कुंवारा है। मेरी आंख मुँदने से पहले मुझसे वादा करो कि मेरी बेटी को अपने घर की बहू बना लोगे।’
मैंने मास्टर जी को जबान दे दी थी बेटा। मरने के बाद भी उनकी खुली आँखें मानो मुझे ही देख रही थीं और पूछ रही थीं ‘अपना वादा भूल तो नहीं जाओगे देवाशीष।’
तुम्हारी मां उसी दिन मालती को अपने साथ घर ले आई थी। अकेली अनाथ बच्ची कहाँ जाती। मैंने और तुम्हारी माँ ने मालती को अपने घर की बहू मान लिया है। तुम जल्दी से आ जाओ तो समाज के चार आदमियों के सामने तुम्हारे फेरे डलवा कर हम अपने दायित्व से मुक्त हो जाएँ। बड़ी ही नेक लड़की है बेटा।
अंत में एक बार फिर यह बात गौर से सुन लो। तुम्हारी मां कहती है कि यदि अबकी बार मना किया तो मेरा मरा मुंह देखोगे। बल्कि हम दोनों का। हम तुम्हें अपनी अर्थी को कंधा देने का अधिकार भी नहीं देंगे। और हां अगर हमारा प्रस्ताव ना मंजूर हो तो अब हमें मनी ऑर्डर भी मत भेजना बबुआ। काट लेंगे हम अपनी जिंदगी। कड़वी बातें का बुरा मत मानना। तुम हमारे एक ही बेटे हो। तुम्हारा घर बस जाए तो हमारा नाम चले। हम चैन से परलोक जा सकें।
तुम्हारा पिता – देवाशीष देशमुख
इस तरह गोरी कलाइयों और सपानीली आंखों वाली मालती छम से उनकी जिंदगी में कूद पड़ी। कच्चे रास्ते पर खटर पटर चलने वाली प्रोफेसर की जिंदगी की गाड़ी अचानक सातवें आसमान पर उड़ने लगी थी। वही शहर। वही लोग। वही कॉलेज। पर सब कुछ नया नया सा लगता था। उन्हें लगता कि न
जाने कितनी किताबें चाट डालीं मगर मालती के समर्पित प्रेम की दुर्लभ पुस्तक यदि पढ़ने को नहीं मिलती तो सब कुछ अधूरा सा रह जाता। मालती के अनुपम प्यार ने उनके स्वादहीन और रस-रंग विहीन जीवन के पात्र को मदमयी सोमरस से भरकर उन्हे मदहोश कर दिया था। उनके जीवन में इंद्रधनुश के सप्तरंग भर दिये थे।
तेरह साल मालती का प्यार प्रोफेसर विद्रोही की मरुथली जिंदगी पर सावन के मेघ सा बरसता रहा और उष्ण भास्कर की एक भी तप्त किरण उनके जीवन को तापित नहीं कर पायी। मगर जीवन के तेरह वर्षों पर सुगंधित कबीर उड़ती मालती एक दिन अचानक बीमारी से काल के गाल में समा गई और पीछे छोड़ गई अंतहीन विषाद, यादें, अकेलापन और दोनों के प्यार का प्रतीक नकुल।
कई बसंत और कई पतझर गुजर गए थे। नकुल बीस साल का बांका जवान बन गया था। आसपास व्यवस्था न होने के कारण उसका दाखिला दार्जिलिंग के बायोटेक्निकल कॉलेज में करवाना पड़ा था। हजारों किलोमीटर दूर।
एक दिन न जाने क्या हुआ। नकुल अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के छुट्टी लेकर घर आ गया। गुमसुम रहता और किसी से बात नहीं करता। पूछने पर कुछ भी बोलने को तैयार नहीं था। तभी से प्रोफेसर अपने लाड़ले बेटे की अजीब सी स्थिति से बेहद परेशान थे।
नकुल के माथे की एक-एक शिकन प्रोफेसर विद्रोह के हृदय में नाविक के तीर सी गहरी चुभकर वेदना दे रही थी। मालती के जाने के बाद प्रौफेसर ने अपने जीवन की सारी इच्छाएं, अभिलाषाएं जिस एक बिन्दु पर केन्द्रित कर दी थीं वही लक्ष्य उन्हे धूमिल सा होता दिखाई दे रहा था। बेटे का ये अवसाद उसकी जिंदगी को कोई भी भटकाव दे सकता था।
शाम का धुंधलका घिरने लगा था। नकुल पिछले चार घंटे से घर से गयाब था। प्रोफेसर बार बार मालती की तस्वीर के सामने जाकर बड़बड़ाने लगते। “मालती, मैं तुम्हारी अमानत को संभालकर नहीं रख पाया। मुझे क्षमा कर देना” और उनकी आँखों से अश्रुधार बह निकलती।
रात दस बजे नकुल ने व्यथित सी हालत में घर में प्रवेश किया और बिना कुछ बोले सीधा अपने कमरे में चला गया। प्रोफेसर को न जाने क्या सूझी। वे तेजी से उठे और नकुल की बांह पड़कर उसे लगभग खींचते हुए मालती की तस्वीर के सामने ले गए। वे करुण स्वर में बोले “अपनी मरी हुई मां की कसम
खाकर बोल। वो कौन सी चीज है जो तुझे अंदर ही अंदर खाए जा रही है। क्या तूने कोई अपराध किया है जिससे भाग कर तू यहां आ गया है या तुझे कॉलेज से रैस्टीगेट कर दिया गया है। या तो मेरे सर पर हाथ रखकर सब कुछ सच सच बता नकुल अन्यथा इसी क्षण से हमारे रिश्ते सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे। आखिर तू अचानक अपने रास्ते से क्यों भटक जाना चाहता है। तेरी मां के जाने के बाद तेरे लालन पालन में कौन सी चूक हो गई मुझसे मेरे बेटे।”
नकुल बौराया सा पिता के इस अजीब से रूप को देख रहा था। फिर पिता के कंधे पर सर रखकर बिलख उठा। देर तक फूट-फूट कर रोता रहा। हिचकियाँ एक बार बंधी तो रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। मानो महीनों से मन में भरे अवसादों को बाहर निकाल डालना चाहता हो। प्रोफेसर ने नकुल को धीरे से कुर्सी पर बिठा दिया और किचन में जाकर दो कप कॉफी बना कर ले आए। एक कप बेटे को देकर सामने बैठ गए। नकुल ने बिना भूमिका के कहना शुरू किया।
“वहां एक लड़की थी पापा। मेरे कॉलेज में इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी की छात्रा शार्ली से मैं गहरी मित्रता मानने लगा था। हम हर रोज मिलते थे। कभी लाइब्रेरी में तो कभी किसी पार्क में। साथ-साथ घूमते। पढ़ाई करते और बातें करते। धीरे-धीरे हम दोनों ने एक दूसरे को लेकर सपने बुनने शुरू कर दिए थे।
साथ रहने के। घर बसाने के और जीवन भर साथ निभाने के। शार्ली मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी पापा। वह मणिपुर के एक गांव की रहने वाली सीधी साधी पारिवारिक लड़की थी। शार्ली ने तो अपने मित्रों तक से बता रखा था कि पढ़ाई खत्म होने के तुरंत बाद वह नकुल के साथ…।” और आगे के स्वर हिचकियों में दब गए।
“फिर क्या हुआ? और तुम बार-बार उसे ‘थी’ कहकर क्यूँ बुला रहे हो। क्या अब नहीं है? कहां चली गई शार्ली?” प्रोफेसर ने अधीर होकर कहा।
“पिछले दोनों पंद्रह दिन की छुट्टियों में शार्ली अपने गांव चली गई थी। मगर… मगर तीन माह तक नहीं लोटी। कॉलेज और हॉस्टल से उसका नाम काट दिया गया है। सुदूर पूर्वोत्तर के छात्र छात्राएँ अकसर बीच पढ़ाई से गायब हो जाते हैं।”
“तुमने उसे ढूंडने का प्रयास नहीं किया? क्या उसके बाद वह तुमसे कभी नहीं मिली?”
“एक दिन मुझे उसकी एक मित्र ने बताया कि शार्ली उसे मिली थी। वह दर्जालिंग के चौलाबाड़ी के गरीब मोहल्ले में रहती है और कॉलेज के किसी दोस्त से कोई बात नहीं करना चाहती। उसने बताया कि शायद उसने शादी कर ली होगी या उसके साथ कोई असामान्य घटना घटी है।”
“तुमने उससे मिलने का प्रयास नहीं किया?”
“कई दिन चौलाबड़ी में भटकने के बाद एक दिन मैंने उसे ढूंढ निकाला… मगर उसने मुझसे बात तक करने से इनकार कर दिया। यहां तक कि एक दिन मोहल्ले के लड़कों से धमकी तक दिलवा डाली, कि दोबारा यहां दिखाई ना दें। समझ में नहीं आता पापा कि मैं क्या करूं। कभी कोई कहता है कि वह बदचलन हो गई है। कभी वह किसी को मैटरनिटी होम से निकलती दिखाई देती है। ना पढ़ने में
मन लगता है ना कुछ काम करने में। दार्जिलिंग की एक एक सड़क, गलियां, कॉलेज, हॉस्टल जहां उसकी यादें बसी हैं सब मुझे खाने को दौड़ते हैं। मेरी क्लास में पढ़ने वाले लड़के बार-बार मेरे सामने उसके चरित्र के किस्से सुना सुना कर मुझे चिड़ाते हैं। कभी कहते हैं तुझे उल्लू बना गई। कोई कहता
है कि यह रूप देश है। यहाँ की लड़कियां जादू टोना जानती हैं। तुझ पर भी जादू करके चली गई है। मैं मर जाना चाहता था पापा मगर एक ही बात मुझे जिंदा रखती रही। कहीं भीतर से आवाज आती थी कि तू हरी मौहन देशमुख का बेटा है। इतना कमजोर नहीं हो सकता।” वह एक बार फिर रोने लगा।
“तुम गए तो थे अपना करियर बनाने। पढ़ाई करने। पर तुम किस झंझट में पड़ गए बेटा। ये उम्र तुम्हारे इतना आहत होने की और मरने जीने की बात सोचने की नहीं है। मगर क्या करें। भावुकता तुम्हारे खून में है।” प्रौफेसर ने उदास स्वर में कहा।
“पापा मेंने जानबूझकर कुछ नहीं किया। न जाने कैसे सारी परिस्थितियां अपने आप क्रिएट होती रहीं।” फिर कुछ रुक कर बोला “क्या मैंने कोई अपराध किया है पापा।”
“नहीं… अपराध तो तुमने नहीं किया है। इस उम्र में ये सब नेचुरल है मगर अपनी पढ़ाई के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय भी तो नहीं दे पाए। मेरी बात ध्यान से सुनो मेरे बच्चे। जिंदगी कोई रस भरी
आइसक्रीम नहीं है जिसे तुम बड़े मजे से चाटकर खत्म कर दो। यहां सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा तुम चाहते हो। जीवन की पथरीली कंटीली राहों पर चलने की क्षमता जिनमें नहीं होती वे टूटकर बिखर जाते हैं। जरा से झटके को नहीं झेल पाये और इतने भावुक हो गए कि वर्षों की तपस्या को ठोकर मार कर, शिक्षा बीच में छोड़कर चले आए। खैर छोड़ो। चलो खाना खाते हैं।”
नकुल हिला भी नहीं और ऐसे ही हथेलियों में मुंह छुपाये बैठा रहा।
“उठो बेटा। कल तुम मेरा दर्जालिंग का टिकट करा देना।”
“क्या…? आप दर्जालिंग जाएंगे?” उसने आश्चर्य से पिता की ओर देखा।
“हमारा नाम प्रोफेसर विद्रोही ऐसे ही थोड़े ही है बेटा। तुम्हारे मन में इतनी वेदना है तो कुछ तो करना पड़ेगा। चल अब खड़ा हो और खाना गरम करके ला।” और प्रोफेसर हंसने लगे।
“मगर नकुल एक बात गौर से सुनो।” वह एकदम गंभीर होकर बोले।
“मेरे दार्जिलिंग जाने से पहले तुम्हें मुझसे एक वादा करना होगा। वहाँ जैसे भी हालात हों, कोई भी घटना घटी हो, हर परिस्थिति को सहजता से झेलते हुए अपनी पढ़ाई की यात्रा जारी रखोगे।”
दार्जिलिंग की सुबह बेहद सुहानी थी। ठंड के उपरांत गुनगुनी धूप की सुनहरी किरणों ने पूरे शहर को मानो सुनहरी आभा से रंग दिया था। प्रोफेसर का होटल चौलाबाड़ी से बमुश्किल आधा किलोमीटर दूर था। वे धड़कते दिल से पैदल ही उस मोहल्ले की तरफ चल दिए। अजनबी शहर, अंजाने लोग, अश्रुत भाषा व असाध्य सा लक्ष्य।
ये एक पुरानी बस्ती थी। जहां अधिकतर चीनी मूल के लोग रहते थे। लकड़ी की बालकनी और खपरैल की छत वाले पुराने जर्जर मकान। नशेड़ी से देखने वाले लोग और झगड़ालू सी दिखने वाली औरतें। लाप्चा टी स्टॉल से बाएं बढ़ते ही वह दो मंज़िला इमारत दिखाई दी जिसमें नकुल के अनुसार शार्ली
रहती थी। लोहे की घुमावदार सीढ़ियां जर्जर सी लकड़ी की बालकनी तक जाती थीं। उसके बाएँ कोने के कमरे पर एक पर्दा झूल रहा था। प्रोफेसर कुछ क्षण पहली सीढ़ी पर खड़े रहे और अंदर की संभावित परिस्थितियों और शार्ली से बात करने की भूमिका सोचते रहे। न जाने कैसी लड़की होगी।
कैसा व्यवहार करेगी। क्या पता लड़की किसी आपराधिक गैंग से या सेक्स रैकेट से जुड़ी हुई हो और नकुल से दोस्ती करना उसके किसी षड्यंत्र का हिस्सा हो। क्या पता भोले भाले लड़कों की भावनाओं से खेलना उसका शौक हो। पैसे के आकर्षण में कहीं इस बड़े टूरिष्ट प्लेस में किसी अवैध ‘धंधे’…। उफ़्फ़ ईश्वर करे ऐसा कुछ ना हो। अपने दृढ़ चरित्र और मजबूत इच्छा शक्ति को बटोर कर वे सीढ़ियां चढ़ने लगे और खुले दरवाजे की कुंडी को खटखटाया।
“कौन है?” भीतर से थका अलसाया सा सुनाई दिया
“जी मुझे शार्ली दोरांग से मिलना है।” प्रोफेसर ने सधे हुए स्वर में कहा। द्वार पर एक मंगोलियन नस्ल की गौरवर्ण सुंदर लड़की प्रगट हुई। उसकी आंखों में एक अजीब प्रकार का आकर्षण था और चेहरे पर एक सभ्य और संस्कारित परिवार की आभा झलक रही थी।
“क्या तुम ही शार्ली हो ?”
“जी हां। कहिए कौन हैं आप और क्या काम है आपको?” चार्ली प्रश्न सूचक निगाहों से आगंतुक को पहचानने का प्रयास कर रही थी।
“मैं नकुल देशमुख का पिता प्रोफेसर हरिमोहन देशमुख हूँ।” प्रोफेसर ने सीधा अपना परिचय दिया। शार्ली अवाक रह गई। ना जाने कितने रंग उसके चेहरे पर आए और चले गए। कुछ पल स्तब्ध खड़ी रही और यह भी भूल गई कि उसे क्या करना चाहिए। अचानक उसकी तंद्रा लौटी और उसने प्रोफेसर को अंदर आने का संकेत किया।
कमरे की दीवारें और छत एकदम जर्जर और पुरानी थी मगर एक-एक चीज करीने से सजाई गई थी। दीवाल से लगे टेबल और उसके ऊपर बनी सेल्फ पर कुछ पुस्तक सजी हुई थीं और एक लैंप की रौशनी का गोल दायरा खुली किताब पर पड़ रहा था। कमरे में एक दीवान और दो फोल्डिंग चेयर मौजूद थीं जिसमें से एक पर प्रोफेसर बैठ गए।
“सर आप इस तरह अचानक यहां? नकुल तो ठीक है ना?”
“हां ठीक है। तुम यहां अकेली रहती हो।”
“जी हां कुछ हालात… पढ़ाई छूट गई है। सर आप क्या लेंगे। चाय या कॉफी?” लड़की ने महीन आवाज में कहा। उसके चेहरे के से लग रहा था कि उसके भीतर एक तूफान सा मचा है।
“क्या तुम और नकुल मित्र थे?”
“प्लीज सर। इस विषय में कोई बात ना करें।” बोल तो रही थी शार्ली किन्तु उसके चेहरे के उद्वेग से लग रहा था वह अचानक फट पड़ेगी और अपने भीतर धधकते गरम लावे से संसार को जलाकर राख कर देगी।
“क्या नकुल ने किसी प्रकार तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुंचाई है शार्ली? क्या नकुल के चरित्र में, आचार विचार में, संस्कारों में, जाति, नस्ल, धर्म या कृत्य में कोई ऐसा दोष है जिसका तुम्हें बाद में पता चला और तुम उस से दूर चली गईं?”
“प्लीज सर। मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहती।”
“क्या नकुल ने तुम्हारा आर्थिक, मानसिक या शारीरिक शोषण करने का प्रयास किया है?”
“नहीं… नहीं… नहीं। ऐसा कुछ नहीं है सर मैं आपसे हाथ जोड़कर रिक्वेस्ट करती हूं। उस के ऊपर कोई आरोप ना लगाएँ प्लीज।” वह चीख कर बोली और उठकर कमरे से चली गई।
कहां गई होगी? क्या किसी को बुलाने गई होगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब देर तक लौटे ही नहीं। पता नहीं इनके समाज में महिलाएं विवाह उपरांत के प्रतीक चिन्न्ह धारण करती हैं या नहीं जैसे मांग में सिंदूर। किन्तु उसके विवाहित होने के कोई लक्षण तो नजर नहीं आते। कमरे को देखकर भी ऐसा नहीं लगता कि यहाँ उसके अलावा कोई और रहता होगा। पता नहीं लौटेगी या कोई और ही आकर उसके न लौटने की खबर देगा। कोई पड़ोसी या कोई गुंडा बदमाश… या पुलिस। नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता। लड़की संस्कारी लग रही है। शिक्षित भी है और सुंदर भी। पता नहीं उसके जीवन में कौन सा तूफान आया कि… शिक्षा छूट गई और एक मलिन बस्ती में रहती है।” प्रोफेसर गहरी सोच में डूबे कड़ियाँ जोड़ने की कोशिश कर रहे थे कि शार्ली पुनः प्रगट हुई। उसके हाथ में काफी का प्याला और दूसरे हाथ में बिस्कुट की प्लेट थी। इन चंद क्षणों में उसकी आंखें ढेर सारे आंसू बहा डालने का भीगा भीगा सा प्रमाण दे रही थीं।
“सर आप दार्जिलिंग में कहां ठहरे हैं?” सधे हुए स्वर में उसने पूछा। लगता था वह अब स्वयं को पहले से हल्का और कम उद्वेलित अनुभव कर रही थी। उसके हृदय का तूफान अब एक दिशा ले रहा था। पहली बार एक पिता स्वरूप व्यक्ति को देखकर वह अपने दिल का सारा बोझ उन्हे सामने उंडेल देना चाहती थी शायद। क्या पता अपने हृदय की गांठें खोल देने का मन बनाकर ही उसके कमरे में दोबारा कदम रखा हो।
उसने बिना किसी भूमिका के कहना शुरू किया “कोहिमा के पास एक छोटा सा शहर है ताडूबी। ताडूबी के पश्चिम में लगभग चालीस किलोमीटर दूर मेरा गांव है। वहां मेरे पिता जूनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाते थे और हम अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती भी करते थे। आप सुन रहे हैं ना?”
“हां बेटी कहती रहो मैं सुन रहा हूं।”
“सर मैं अपने माता-पिता की इकलौती बेटी हूं। पापा की सैलरी और एग्रीकल्चर लैंड से होने वाली इनकम से हम तीनों…।” लड़की ने एक हिचकी ली और चुप हो गई। मानो भीतर घूमड़ रहे काले धुए को रोकने का प्रयास कर रही हो।
“सर आपने 12 सितंबर का न्यूज़ पेपर पढ़ा था।” अल्पविराम के बाद उसने कहा।
“12 सितंबर। हां शायद पढ़ा होगा। कोई खास बात थी क्या उसमें?”
कुछ देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा। लड़की ने आंखों के कोरों पर उभर आई बूंदों को रुमाल से साफ किया और गहरी सांस ली। जैसे सर्कस में मौत के झूले से छलांग लगाने वाला कलाकार अपनी सारी जिजीविषा को समेटकर स्वयं को हवा में फेंक देता है। कुछ वैसे ही अनुभूति के साथ शार्ली ने अनिश्चित परिणाम की अंधेरी खोह मैं कूद पड़ने का मन बना लिया था। सामने बैठे प्रोफेसर देशमुख का गरिमामयी व्यक्तित्व शार्ली को पिता का स्नेह और मां की गोद की सी ममता का आभास दे रहा था इसलिए उसने भीतर धधक रहे गरम लावे को बर्फीले सागर के हवाले करने का निश्चय कर लिया था।
“दस सितंबर की रात हमारा सारा गांव शांत निद्रा में सोया हुआ था। मैं भी छुट्टियां मनाने गांव गई हुई थी। रात के लगभग तीन बजे शोर सुनकर हम तीनों जाग गए। मैं और पापा बाहर निकले तो भयानक मंजर देखने को मिला। गांव में कोहराम मचा हुआ था। कई घरों से ऊंची ऊंची आग की लपटें उठ रही थी। सैकड़ों अर्धनग्न युवक हाथ में तीर कमान, बरछी भला और खतरनाक हथियार लिए हुए गांव में लूटपाट कर रहे थे। बीच-बीच में वे किसी आंदोलन का नाम लेकर जोर-जोर से नारे लगने लगते। फिर हत्या लूटपाट में जुट जाते।” शार्ली फटी, सूनी आंखों से मानो अतीत के सारे दृश्य देख रही थी।
“फिर” प्रोफेसर ने चुप्पी तोड़ी।
“सुबह तक सब खत्म हो चुका था। गांव के 56 लोगों की हत्या और 14 लड़कियों के साथ…।” उसने खिचकी ली और अपनी आंखों को पूरी तरह दोनों हाथों से ढक लिया। उसका सारा शरीर जोर-जोर से काँप रहा था।
“तो तुम्हारे पिता भी?”
“हां पापा भी हत्यारों की भेंट चढ़ गए और लोग जब दाह संसकार करके लौट रहे थे तब तक मां ने आत्महत्या कर ली थी।”
“और तुमने अपनी मां को बचाने का प्रयास…।”
“मैं… उस समय अस्पताल में थी। न जाने कितने… समूहिक…।”
“बस अब कुछ मत कहना शार्ली मैं। सुन नहीं पाऊंगा।”
“आप सुन भी नहीं पा रहे हैं सर। लेकिन मैंने तो सब कुछ बर्दाश्त किया है। अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी पड़ी अपने टूटकर कतरा कतरा हो गए संसार के एक-एक टुकड़े को जोड़ने के सपने देखती रहती थी सर। और मेरे हर सपने में जो एक चेहरा होता था वह नकुल का होता था। मगर उस दिन सारा बर्फ पिघल कर बह गया जब मुझे पता चला कि उस भयंकर काली रात का जहर मेरे पेट में पल रहा है।”
“उफ़्फ़” प्रोफेसर के मुंह से अनायास निकल पड़ा और उन्होंने अपने दोनों हाथों से आंखों को ढक लिया।
“उसी रात मैंने निश्चय किया कि अपनी काली छाया अपने प्यारे से मित्र पर नहीं पढ़ने दूंगी और मैंने नकुल को स्वयं से दूर करने का निश्चय कर लिया था।”
“थोड़ा पानी पिलाओ शार्ली बेटा।” प्रोफेसर ने शार्ली के हृदय की वेदना के अतिरेक को विराम देने के लिए कहा। शार्ली जब पानी लेकर लौटी तो पहले से कुछ आस्वस्त दिखाई दे रही थी।
“कुछ भी हो शार्ली। दुनिया में आने वाले उसे नए जीव का तो…।”
“किस जीव की बात कर रहे हैं सर। नफरत, आतंक और वासना के उस चिन्न्ह को में कब का समाप्त कर चुकी हूं।” उसके चेहरे पर कम से कम अब पश्चात का तो कोई भाव नहीं था।
प्रौफेसर कई पल शांत, कुछ सोचते रहे। फिर अचानक दृढ़ सा चेहरा लिए उठ खड़े हो गए। शार्ली आवक उनके गंभीर चेहरे को देख रही थी।
“मैं जा रहा हूं शार्ली। किंतु मैं जल्द लौटूंगा।”
“क्या कीजिएगा सर लौट कर। आप यहां तक आए और किसी ने पहली बार मेरे दर्द को सुना। समझा। पहली बार किसी के सामने मन हल्का करने का…।”
“चुप रहो लड़की। प्रोफेसर हरिमौहन देशमुख ‘किसी’ नहीं है। यदि नकुल मेरा बेटा तुम्हें पहले वाले सम्मान और प्यार के साथ स्वीकार करता है तो तुम मेरी बहू बनोगी। नहीं तो… नहीं तो तुम प्रोफेसर देशमुख की पुत्री बनोगी। शर्ली देशमुख। मेरा इंतजार करना मेरी बेटी।” और वह धड़धड़ाते हुए सीडियों से उतर गए।
अगली सुबह धुंध के बड़े-बड़े गोले मानो घरों की खिड़ियों से भीतर झांक रहे थे। दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे। बादल के फाहे सारी कयनात को अपनी बाहों में समेट लेना चाहते थे। प्रौफेसर देशमुख ने अपना पसंदीदा नीला सूट पहन रखा था। उनके चेहरे पर विजय की आभा चमक रही थी। शार्ली के घर की पहली सीढ़ी पर कदम रखते हुए स्वयं को रोक नहीं पाए और जोर-जोर से बोलने लगे। “सुनो शार्ली। वो मेरा बेटा है। प्रोफेसर हरिमोहन देशमुख का बेटा। तुम मेरे घर की बहू बनोगी। कहां हो शार्ली। तुम बोलती क्यों नहीं।”
कमरे में शार्ली उदास निगाहों से अपने विकृत अतीत को देख रही थी। कल प्रोफेसर के द्वारा अनजाने ही उसकी वेदना के तारों को झंकृत करने के बाद उसका पीला चेहरा और भी थका हुआ और निराश लग रहा था। रात भर वो एक क्षण के लिए भी सो नहीं पाई थी।
प्रोफेसर उसे देखकर एक क्षण के लिए ठिठक से गए। फिर पहले वाले जोश के साथ आगे बढ़े। खड़ी हो जाओ मेरे बच्चे। मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूं। उठो तो सही। देखो बाहर कौन आया है। और प्रोफेसर छोटे बच्चों की तरह शार्ली की बांह पकड़ कर बाहर घसीट ले गए। सीडियों के नीचे नकुल खड़ा था।
शार्ली मानो पांति से बिछड़ी हंसिनी सी, भेड़ियों के झुंड के बीच से निकली घायल डरी सहमी हिरनी सी कभी प्रोफेसर तो कभी नकुल को देख रही थी।
नकुल एक कदम आगे बढ़ा। शार्ली भी एक कदम आगे बड़ी मगर उसकी वेदना ने चेतना पर प्रहार सा कर दिया था। अचानक बदले इस घटनाक्रम ने उसके मस्तिष्क को संज्ञा शून्य बना दिया था। शार्ली किसी प्रस्तर प्रतिमा सी स्थिर हो गई थी। उसके शरीर में अजीब सी कंपन हो रही थी। इससे पहले कि वह मूर्छित होकर सीडियों पर लुढ़क जाती नकुल ने चार चलांग में सारी सीढ़ियां पार कर लीं और शार्ली को अपनी मजबूत भुजाओं में थाम लिया।
“अब नहीं गिरने दूंगा शार्ली। जीवन भर नहीं।”
प्रौफेसर हरि मोहन देशमुख अपनी ही धुन में बोले जा रहे थे “जल्दी करो शार्ली। पीछे मुड़कर मत देखना। यहाँ तुम्हारा कोई नहीं है। सुनो, तुम्हें अपना कुछ सामान वगहरा समेटना हो तो उठा लो। तीन बजे की फ्लाइट है। एक बड़ी दावत करनी होगी। आखिर प्रोफेसर के बेटे की शादी है। सब दोस्त जल भूनकर रह जाएंगे। किसी एक के बेटे को भी मिली है ऐसी सुंदर पत्नी भला।”
पड़ोस की खिड़कियों से लोग झांक रहे थे।
रवीन्द्र कान्त त्यागी