“क्या हमारा ब्याह न हो पायेगा आरू?” अरिंदम की बाँहों में सिमटी सुनयना ने आह भरते हुए कहा।
“नहीं।”
“क्यों आरू।”
“क्योंकि तुम बड़े घर की हो और मैं छोटे घर का।”
“लेकिन मुझे तुमसे दूर रहना होगा, यह सोचकर भी डर लगता है। मेरा ब्याह होगा किसी और से, तो तुमसे क्यों नहीं। प्रेम की तो कोई जाति नहीं होती आरू।”
“लेकिन समाज की होती है सुनयना और हम समाज में रहते हैं।”
“जो समाज में रहते हैं क्या वे प्रेम नहीं करते हैं आरू।” इस बार सुनयना की भौंहें सटने से उनके बीच सिकुड़न बन गई और उसने आँखें बड़ी करते हुए कहा।
“वो हमारे वाला प्रेम नहीं करते हैं सुनयना।”
“हमारे वाला प्रेम समाज वाले प्रेम से अलग है?”
“ब्याह वाला प्रेम सिर्फ एक जात वालों के बीच में हो सकता है सुनयना।”
“और जात में ब्याह हो और जो अगर प्रेम न हो?”
“नहीं भी हो सकता है।”
“फिर?”
“यही प्रेम पर भी लागू होती है सुनयना। प्रेम में पड़कर ब्याह कर लेने से भी प्रेम पकड़कर नहीं रखा जा सकता है।”
“फिर भी प्रेम की समझ हो जाने से प्रेम निभाना तो आ ही जाता है।” सुनयना ने अपनी शक्तियों को एकजुट करते हुए जवाब दिया।
“प्रेम की समझ से बड़ी है परिवार की समझ जो समाज में रहने से आती है। ”
“परिवार और समाज को सिर्फ जाति का प्रेम ही समझ में आता है! और उसकी संकुचित समझ के लिए कोई प्रेम करना छोड़ दे, ये कैसा विचित्र है?”
“विचित्र नहीं यही व्यवस्था है।”
“व्यवस्था या विवशता?”
आरू ने सुनयना की गेसुओं में उंगलियाँ फेरते हुए कहा- “एक समाज के लोग अपने कुटुम्ब में विवाह करते आए हैं। इस व्यवस्था से कुटुम्ब का दायरा बढ़ता है
और इसलिए कुटुम्ब में विवाह होने पर ही परिवार और समाज की सहमति बनती है। इन सब से रिश्तों में स्थायित्व बनता है, ऐसा लोग मानते हैं।”
“तो प्रेम क्यों होता है?”
“सबका निर्वाह प्रेम से तो नहीं हो जाता है, जिसे प्रेम नहीं होता है उसके बारे में भी तो विचार करो। उस परिस्थिति में व्यवस्था भी न हो
तो किसी का जीवन कैसे सफलेगा। फिर प्रेम में व्यभिचार भी पनपता है, व्यवस्था उसे संस्कृत करती है।”
“प्रेम को तो व्यवस्था से अप्रीति नहीं फिर व्यवस्था को प्रेम से विक्षोभ क्यों? व्यवस्था के उपरांत विवाह क्या व्यभिचार मुक्त है? व्यवस्था के उपरांत विवाह में भी स्त्री और पुरुष दोनों पिसते हैं; स्त्री कहीं ज्यादा।”
“सुनयना अभी हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि प्रेम की भावना को व्यवस्था के समान स्वीकार करने लगे और मान्यता दे।”
“इसका मतलब है व्यवस्था में कमी है और प्रेम को इसका मूल्य चुकाना है।” इसके बाद प्रेमियों के बीच एक पल के लिए सन्नाटा पसर जाता है।
”उचित है, हम अभी के लिए यही मान लें। लोग प्रेम विवाह को माता-पिता की इच्छा के विरूद्ध मानते हैं।”
“माता-पिता को भी तो अपनी संतान की खुशी देखनी चाहिए। माता-पिता या समाज को क्या यह समझने की जरूरत नहीं है
कि उनकी संतान को अपने पसंद के जीवनसाथी के साथ जीवन बिताने का अवसर हो। माता-पिता या समाज युवक या युवती को अपने पैरों पर खड़ा करने तक ही तो साथ देता है,
उसके बाद उन्हें अपना जीवन तो जीवनसाथी के साथ ही व्यतीत करना है। और कहो, अपने प्रेम के साथ जीवन बिताने में माता-पिता या समाज का असम्मान कैसे है?”
यह कहकर सुनैना कुछ देर के लिए रुक जाती है और फिर कातर नेत्रों से अरिंदम को देखते हुए कह पड़ती है- “क्या हुआ जो हम ब्याह कर लें, ज्यादा-से-ज्यादा हमारे घर वाले नहीं मानेंगे यही ना?”
“तुम बहुत भोली हो, व्यवस्था ऐसे लोगों को निर्वासित कर देती है, उनका जीवन सांसत में पड़ सकता है, जीवन लिया जा सकता है।”
“जीवन ले लेंगे सिर्फ इसलिये कि हम प्रेम करते हैं और एक जात के नहीं हैं, तो धिक्कार है ऐसी व्यवस्था का।”
“हम या तुम या कोई भी समाज से अलग नहीं रह सकते सुनयना।”
“समाज से अलग नहीं रह सकते तो आरू क्या तुम मेरे बगैर रह सकते हो। अगर ऐसा है तो कितने निष्ठुर हो तुम।”
“निष्ठुर नहीं सुनयना यही सच्चाई है। मैंने कहा न अभी हम और हमारा समाज उस हद तक परिपक्व नहीं हुए कि प्रेम की मर्यादा को व्यवस्था के समान ऊँची जगह पर रख सके।”
“समाज की परिपक्वता को परखा किसने है। किसे मालूम जिस सामाजिक व्यवस्था को हम अपरिपक्व मान बैठे हैं वह असल में उदार हो।”
“नहीं समाज को उदार समझने की भूल नहीं करना। समाज अपने आचरण में बहुत ही निर्मम और कठोर होता है। वह कोई परिपाटी न तो तत्परता से अपनाता है और न ही शीघ्रता से छोड़ता है।”
“तो फिर।”
अरिंदम सुनयना की इस बात पर कोई जवाब नहीं देता है, चुप्पी ओढ़ लेता है।
“तो फिर क्या, आरू? यही कहना चाहते हो कि समाज बलिदान चाहता है।”
“समाज जज्बा चाहता है जो यह दिखा सके कि प्रेम समाज का शत्रु नहीं, उसका पोषक है। समाज नहीं हारने वालों की ऊर्जा से हार जाता है और उसे अपना भी लेता है। लेकिन ये ऊर्जा प्रेम के प्रति निष्ठा से आती है।”
“और हम ये ऊर्जा लगाएंगे आरू। हम अपनी ऊर्जा से समाज को दिखाएंगे कि प्रेम उसकी रवायतों को मजबूत करती है
उसे कमजोर नहीं करती। परिवार को यह भरोसा दिलाएंगे की प्रेम से पारिवारिक संस्था को कोई नुकसान नहीं है।
हम प्रेम को भी निभाएंगे और समाज को भी। हम परिवार और समाज सबके सामने प्रेम की नजीर पेश करेंगे।”
कह नहीं सकते कि ये किस दौर का प्रेमालाप है। अरिंदम और सुनयना ने अपना प्रेम परिवार और समाज को अर्पित किया अथवा नहीं।
अर्पित किया तो व्यवस्था ने उसे अपनाया कि नहीं। और जब ये सब हो गया तो उन्होंने अपना प्रेम निभाया कि नहीं। बात जो भी हो लेकिन प्रतीत होता है कि यह प्रेमालाप सदियों से चली आ रही है।
–पुरुषोत्तम
(यह मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है।)