मेरे गृहनगर में मेरा स्थानांतरण कर दिया गया था।
मन ही मन बहुत ज्यादा खुशी हो रही थी। ऐसा भी हो सकता है विधाता के इस निर्णय पर…! मन में जितनी खुशी थी उससे ज्यादा रोमांचक फील कर रही थी।
अपने माता-पिता के घर में जाकर रहना, कितनी खुशी की बात होती है…!!
बड़े भैया प्रियांशु ने फोन कर कहा था
“दीप्ति ,वैसे भी हवेली लगभग बंद ही है.. तुम वहां जाकर ही रहना। थोड़ी हवेली की देखभाल भी हो जाएगी और तुम्हारा रहना भी…।”
“हां भैया!, मैं बहुत ही मन ही मन बहुत ही ज्यादा खुश होकर बोली।
एक लड़की की विदाई के बाद बाबुल का घर पराया हो जाता है लेकिन अब उतने ही अधिकार के साथ में उसे घर में जाकर रहूंगी…भले ही कुछ दिन..।
इस बात से मैं बहुत ही ज्यादा खुश थी।अब मां पापा तो हैं नहीं। तीनों भाई अपने-अपने शहर अपने-अपनी नौकरी में और दीदी अपने ससुराल में।
एक हफ्ता लगा अपने सामान व्यवस्थित करने में।
फिर अपने कॉलेज में लिव एप्लिकेशन के साथ और भी फॉर्मिलिटिज पूरी करने के बाद मैं आज अपने घर की दहलीज पर खड़ी थी।
अपना घर, जहां अपना निश्छल बचपन बीता था.. वहां की मिट्टी की सुगंध अब तक नाक में घोल रही थी।
“नमस्ते दीदी!,
मैं अपने खयालों में ही थी कि भीतर से बंसी बाहर निकल कर मुझे प्रणाम करते हुए कहा।
“अरे बंसी…!,कैसे हो?”
“ठीक हैं दीदी।
“आइए भीतर।”
वह मेरा स्वागत करते हुए कहा।
मैं अंदर आई तो गरमागरम चाय मेरा इंतजार कर रही थी।
“बंसी तूने चाय भी बना दिया..।”
“हाँ दीदी, प्रियांशु भैया ने बता दिया था.. आपके आने का…। दीदी बहुत अच्छा लग रहा है। आप यहीं रहो। जब से अम्मा बाबूजी गुजरे हैं तब से अच्छा नहीं लगता!” बंसी की आंखें भर आई थीं।
अम्मा बाबूजी नहीं थे यह बात तो हम सबको सालता था लेकिन बंसी की आंखों में आंसू देख कर मुझे ऐसा लगा कि कुछ रिश्ते जन्मों के हैं। आप रहोगे तो अच्छा लगेगा।”
“हां बंसी, मैं तो अब यही रहूंगी। अभी कम से कम 3 साल तक!”
“हां दीदी आपका आपका कमरा भी साफ कर दिया है।
अम्मा बाबूजी ने यह जिम्मेदारी देखकर गए थे वही जिम्मेदारी निभा रहे हैं।अपना दायित्व पूरा कर रहे हैं।भूल चूक माफ कर दीजिएगा।”
“ कैसी बातें कर रहा है बंसी, तुम्हारे कारण देखो घर कितना सुंदर लग रहा है। ऐसा लग रहा है हर कोने में अम्मा बाबूजी बैठे हुए हैं।” “सचमुच दीदी, हम तो यही चाहते हैं।” बंसी की आंखें बहने लगी थीं।
“हम जमुना को बोलकर रखे हैं दीदी को कढ़ी चावल बहुत पसंद है। आप जल्दी से नहा लीजिए। तब तक हम खाना लगाते हैं।”
“ ठीक है बंसी!” यह कहकर मैं अपने कमरे में आ गई। अपने कपड़े निकाल कर वॉशरूम में घुस गई।
नहाते हुए मैं पुरानी बातें याद कर रही थी। जब तीनों भैया नौकरी पर चले गए थे।
अम्मा बाबूजी गांव में इस हवेली में बिल्कुल अकेले पड़ गए थे। तब उन्होंने बंसी को गोद लिया था। बंसी हम लोगों की खेतों में काम करने वाले किसान किशन का बेटा।
बाबूजी का कहना था
“किशन,बंसी को हम लोग को दे दो।हमलोग उसे पढ़ा लिखा देंगे। अगर वह पढ़ लिख जाएगा तो दो पैसे कमाने के लायक भी हो जाएगा।”
“मालिक आज से यह आप ही का बेटा हुआ। आप इसे बेटा बने चाहे नौकर या इसकी किस्मत।”किशन ने कहा।
स्कूल में पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे कंपाउंडरी की ट्रेनिंग भी दिलवाया।फिर अस्पताल में नौकरी भी लगवा दिया।
अच्छी लड़की से शादी भी करवा दिया और रहने के लिए हवेली के बाहरी गेस्ट हाउस दे दिया था।
बंसी भी अपना फर्ज अपना दायित्व को भी निभा रहा था अम्मा बाबूजी ने उसे अपना बेटा माना था तो वह भी अपने बेटे का ही फर्ज निभा रहा था जब तक बाबूजी और अम्मा थे तब तक उनके देखभाल करता था जब नहीं है तब भी!!
नहाने के बाद मैं बहुत ही फ्रेश फील कर रही थी।
बाहर धूप में निकाल कर आकर खड़ी हो गई सर्दी आने वाली थी। धूप पीली होती जा रही थी।
गेंदा, गुलाब, चंपा, चमेली सभी वैसे ही क्यारी में आज भी सजे हुए थे जैसे अम्मा बाबूजी के समय में।
मटर,बैंगन, लौकी, धनिया वैसे ही हरी भरी कियारियों में लगी हुई थी जैसे बाबूजी के समय में लगती थी।
मेरी आंखें भर आई। मैं नजरों से ढूंढने लगी उन कियारियों के झुंड में कहीं बाबूजी नजर आ जाएं मगर अब कहां?
मगर बाबूजी के बाद भी आज भी मेरा घर आंगन वैसे ही बना हुआ है…वैसा ही सुगंधित महक रहा है।
एक अनपढ़ गांव का नौकर कितनी कुशलता से अपना दायित्व ,अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है।
मां बाबूजी ने उसे गोद लिया उसकी किस्मत बदलने के लिए, अब वह एक-एक पाई वसूल रहा है।
“ हे भगवान…तू भी कितना मायावी है ना…रिश्ते जोड़ देता है नित नई..। मैं तो हमेशा के लिए कृतज्ञ हो गई बंसी के लिए।
भले ही भैया ने बंसी की जिम्मेदारी में यह हवेली दे दी लेकिन वह तो बेटे की तरह अपना फर्ज निभा रहा है।”
तभी बंसी ढूंढता हुआ बाहर आया।
“दीदी आप रो रही हो ?जमुना खाने के लिए बुला रही है।”
“हां अभी आई।”
“दीदी,अम्मा बाबूजी की याद आ रही है ना…! हम समझ सकते हैं। अम्मा बाबूजी के बाद हम भी अकेले हो गए हैं दीदी….!” बंसी बोल रहा था ।
“नहीं मेरे भाई ,मैं मां बाबूजी को नहीं याद कर रही हूं मैं तो तुम्हारे लिए रो रही हूं।”
“मेरे लिए.. मगर क्यों?”बंसी घबरा गया।
“रिश्ते जन्मों के होते हैं मेरे भाई। मां बाबूजी को रिश्तों की पहचान थी। तुम जैसा भाई ही मुश्किल से मिलता है…।मैं तो कृतज्ञ हो गई। तुम्हारे कारण आज भी अम्मा बाबूजी यहीं बैठे हैं…।
बंसी मेरे भाई ऐसे ही रहना। एक बहन की दुआ तुम्हें लग जाएगी।”
मैंने उसे गले से लगा लिया। वह भी एक छोटे बच्चे की तरह मेरे गले से लगकर फूट-फूट कर रो पड़ा।
“दीदी कैसी बात कर रही हो, यह तो मेरा दायित्व है ना…!”
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प्रेषिका–सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
#दायित्व