Moral stories in hindi : स्नेहा प्रसव-पीड़ा से कराह रही थी और नर्स उसे बार-बार सांत्वना दे रही थी कि बस थोड़ी देर और… सब ठीक हो जायेगा।स्नेहा को दर्द से छटपटाते देख सुकेश नर्स से पूछता,” ऐसा कब तक…और कितना टाइम..।” जवाब में नर्स कहती,” हैव पेशेंस…फ़र्स्ट बेबी है, ऐसा तो होता ही है।”
करीब एक घंटे तक पत्नी की तकलीफ़ देखने और नर्स की ‘हैव पेशेंस’ सुनने के बाद उससे रहा नहीं गया।चिल्लाते हुए नर्स से बोला, ” कितनी देर से आप मुझे ‘हैव पेशेंस’ कह रहीं हैं।आपको दिखाई नहीं दे रहा है..मेरी वाइफ़ कब से दर्द से तड़प रही है और आप हैं कि….।”
शोर सुनकर डाॅक्टर शैलेज़ा अपने केबिन से बाहर आईं और सुकेश से पूछने लगी कि क्या बात है? आप इतने हाइपर क्यों हो रहें हैं? सुकेश ने बेड पर लेटी स्नेहा की ओर इशारा करते हुए वही बात दोहरा दी जो उसने नर्स से कही थी।
डाॅक्टर शैलेज़ा बोली,” मिस्टर सुकेश, प्रसव की पीड़ा तो हर स्त्री को सहनी पड़ती है।कभी बच्चे का सही मूवमेंट नहीं होता तो कभी माँ के शरीर में पानी की कमी हो जाती है।शहरी महिलाओं को चिकित्सीय सुविधा मिलने के कारण काफ़ी राहत है लेकिन गाँव में तो महिलाओं को इससे भी अधिक तकलीफ़ झेलनी पड़ती है।
आपकी पत्नी का पहला बच्चा है, इसलिए थोड़ी तकलीफ़ होना तो स्वाभाविक है।आपकी माँ ने भी तो आपको बताया ही होगा कि आपको जन्म देते समय उन्हें कितनी पीड़ा सहनी पड़ी थी।क्यों..उन्होंने नहीं बताया।” डाॅक्टर शैलेज़ा ने उसकी तरफ़ देखा तो वह सकपका गया।कैसे कहता कि…
जब से स्नेहा ने उसे बताया कि वह माँ बनने वाली है तब से वह पत्नी को कहता,” स्नेहा.. ये मत करो, स्नेहा.. ऐसे बैठो, स्नेहा..स्नेहा..।” ऑफ़िस से कई बार फ़ोन करके पूछता रहता और ऑफ़िस से आते ही उसे बैठा देता कि काम नहीं करना है।
अरे! तुम समझती नहीं, तुम माँ बनने वाली हो..।बेटे का ऐसा व्यवहार देखकर उसकी माँ को हँसी भी आती थी और चिंता भी होती।
छठे महीने के बाद तो उसने स्नेहा को बीमार ही बना दिया था।उसे बिस्तर से हिलने ही नहीं देता था।तब उसकी माँ ने उसे समझाते हुए कहा था, ” स्नेहा जितनी चलेगी- फिरेगी, उतनी ही उसे डिलीवरी में तकलीफ़ कम होगी।” और तब वह अपनी माँ पर चिल्लाया था,” आपको क्या पता कि बच्चे को जन्म देने के कितना दुख सहना पड़ता है।
आप देख नहीं रही कि ये कितना धीरे-धीरे चल रही है।एक बच्चे को अपने अंदर लेकर चलने में कितना दुख सहना पड़ता है…।” वह बोलता जा रहा था और उसकी माँ चुप-सी हो गई थी।नहीं कह पाई कि हाँ, मैं कैसे जान पाती क्योंकि तेरे पिता ने मुझे कभी इंसान समझा ही नहीं।
जब तू मेरी कोख में तीन महीने का था तब मैं पूरे दस आदमियों की रोटियाँ अकेले बैठकर पकाती थी और जब तू सात महीने का था, मुझसे ज्यादा देर तक बैठा नहीं जाता था, तब भी तेरी दादी मुझसे चक्की चलवाती थी।
डिलीवरी के वक्त भी गाँव की दाई से ही काम चला लिया था और तेरे पैदा होने के चार दिन के बाद ही मैं फिर से काम में जुत गई थी।तुमने सही कहा बेटा कि मैं कैसे समझूँगी।
डाॅक्टर शैलेज़ा ने जब उसे कहा कि आपकी माँ ….,तब उसे अपनी माँ और उनका दर्द समझ आया।तभी डाॅक्टर ने आकर उसे कहा,” बधाई हो, आपको बेटी हुई है।खुश है ना।”
” जी..बहुत खुश।” कहते हुए उसने माँ को फ़ोन लगाया और बोला, ” माँ, आपके घर लक्ष्मी आई है।इसका पालन-पोषण आप वैसे ही करेंगीं जैसा आपने मेरा किया है क्योंकि आपसे अच्छी माँ तो कोई और हो ही नहीं सकती।” कहते हुए उसका गला भर्रा गया और बेटे की बात सुनकर उसकी माँ को लगा जैसे आज मेरी सारी पीड़ा खत्म हो गई है।
विभा गुप्ता
स्वरचित