प्रणय अपहरण – रवीन्द्र कान्त त्यागी

आजकल न जाने क्यूँ बचपन की यादों के गुब्बारे रह रहकर दिमाग में फट रहे हैं। कहते तो ये हैं कि  इंसान के आखिरी समय में ऐसा होता है मगर, तुरंत तो ऐसा एहसास नहीं हो रहा है।

बात पचास साल से भी अधिक पुरानी है। बचपन में हम जोधपुर में रहते थे। हमारा मकान सरदारपुरा मुहल्ले में तत्कालीन सांसद लखमी मल सिंघवी के बनाए फ्लैटों में था।

पचास साल एक बहुत बड़ा अरसा होता है। आधी सदी बीत गई। मुझे पता है कि वहाँ भी अब सब कुछ बादल गया होगा किन्तु आज ग्लोबल हो रही दुनिया की अपेक्षा देखा जाये तो तब आदमी कूंए का मेंडक ही था। न टेलीवीजन, न अलग अलग रेडियो के चैनल और इन्टरनेट तो कल्पना में भी नहीं था। हमारे आस पास के सैकड़ों घरों में टेलीफोन केवल सांसद जी के घर था।

खैर, विषय से भटकना नहीं है। मुझे तो आज आप को अपना एक मजेदार संस्मरण सुनाना है।

मारवाड़ में उस जमाने में लड़के लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दे जाती थी। कभी कभी पाँच सात साल की उम्र में किन्तु उनका गौना उनके वयस्क होने पर ही होता था। एक प्रकार से गौने के बाद ही दाम्पत्य जीवन जीने का अधिकार मिलता था।

उस जमाने में मारवाड़ के कुछ इलाकों में कुछ जातियों में एक अजीब सी परंपरा थी। शादी के बरसों बाद जब गौना सुनिश्चित हो जाता था तो लड़का चुप चाप अपनी ससुराल या आस पास आता और बाहुबल के आधार पर लड़की को उठा कर ले जाता था। कई बार ऐसे आयोजन लड़की के घर वालों से मिलकर योजनाबद्द तरीके से सम्पन्न कराये जाते।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

औरत की इच्छा का मान सम्मान – रश्मि प्रकाश  : Moral stories in hindi



कुछ भी हो लड़की के घर वालों को इस पूरे अभियान का पता रहता था और पूर्ण समर्थन भी, इसलिए कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं होता। लड़की गाँव मुहल्ले में निर्भीक घूम रही है या खेल रही है और एक कटारदार मूछों वाला नौजवान उसका अपहरण कर के ले जाता था और माता पिता अपने दामाद के पौरुष पर खुश होते थे। इस अपहरण को पूरे समाज समर्थन हासिल था।

बड़े भले लोग थे साहब। बड़ी मजबूत थीं उनकी अस्थाएं, परंपराए और रस्मोंरिवाज। आँखें बंद करके अपने बचपन के उस काल की कल्पना में खो जाता हूँ मानो बचपन दोबारा लौट आया है।

रवीवर का दिन था। हम बच्चे घर के सामने खेल रहे थे। उस समय पिताजी शायद अखबार पढ़ रहे थे और माँ रसोई के काम में लगीं थीं कि एक लड़की की चीख पुकार की आवाज सुनाई दी। हम ने देखा कि हमारे मुहल्ले में रहने वाले ‘घौंची’या ‘घोसी’ जो पशुपालन और दूध का व्यवसाय करते थे उनकी लड़की बिन्नूड़ी (बीना) को एक युवक उठाकर घोड़े तांगे में लादने का प्रयास कर रहा है।

हम बच्चे तो डरकर चीखते हुए घर की ओर भागे किन्तु घौंची परिवार शांति से अपने पशुओं के बाड़े में अपने काम में जुटा हुआ था। बगल में तलवार लटकाए, गहरी काली घनी मूँछों वाले हृष्ट पुष्ट नौजवान ने लड़की को जबरन घोड़े तांगे में डाला और चालक से चलने का इशारा किया।

तब तक हमारे पिताजी और पड़ौस में रहने वाले अरोड़ा जी बाहर निकल आए थे। उन्होने तत्कालीन शान्तिप्रिय शहर जोधपुर में अपनी ही मुहल्ले में सरेआम एक लड़की का अपहरण होते देखा तो स्तब्ध रह गए। पिताजी ने आगे बढ़कर घोड़े की लगाम थाम ली। अरोड़ा साहब तो घर से डांडा उठा लाये और नौजवान को ललकारा।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

समयचक्र – माधुरी गुप्ता : Moral stories in hindi



इस से पहले कि अचानक हुए इस अप्रत्याशित विरोध से सहमा सा लड़का कोई उत्तर देता, लड़की पर से उसकी पकड़ ढीली पड़ गई और मौका मिलते ही लड़की यह जा और वो जा। भाग खड़ी हुई। लड़का अपराधी की तरह तांगे से उतरकर खड़ा हो गया।

हालात बदलते देखकर सारे घटना को कनखियों से देखा रहा घौंची परिवार बाहर निकला। हमारे उनके मधुर संबंध थे। हमारे यहाँ दूध भी उन्ही के यहाँ से आता था।

लड़की का पिता उदास स्वर में बोला “त्यागी साब, आज आप में म्हारे दामाद का सात रुपये का नुकसान करवा दिया। बापड़ा (बेचारा) दस कोस दूर गाँव से तांगा किराए पर करके गौना करने आया था पण, अब कायीं बताऊँ साब। छोरा न दुबारा आणों पड़सी।”

हेतराम की पत्नी ने शर्माते हुए कहा “म्हारे यहाँ गौणा ऐसे ही होता है साब। मुझे भी ये ठेले (ट्रक) में डालकर लाये थे।”

आधी सदी बीत गई। बचपन के बाद तो जवानी भी गुजर गई है मगर नहीं भूलते वो भोले भाले लोग। वो रेत के टीलों पर ऊंटों की कतारें। कोहनी के ऊपर तक हाथीदांत की चूड़ियाँ पहने हुए रमणियाँ और रंगीन पगड़ी बंधी हुए नौजवान। बचपन चला गया पर यादें पंचतत्व में विलीन होने तक साथ रहेंगी।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!